सम्पादकीय

बढ़ते मुकदमे, बोझिल होती जेलें

Subhi
11 Aug 2022 4:05 AM GMT
बढ़ते मुकदमे, बोझिल होती जेलें
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न्याय तक पहुंचना इस मूलभूत सिद्धांत पर आधारित है कि लोगों को अपने अधिकारों और कर्तव्यों से अवगत होना चाहिए और कानून में उनका दृढ़ विश्वास होना चाहिए। लेकिन हकीकत में मामला उलट है।

सुशील कुमार सिंह: न्याय तक पहुंचना इस मूलभूत सिद्धांत पर आधारित है कि लोगों को अपने अधिकारों और कर्तव्यों से अवगत होना चाहिए और कानून में उनका दृढ़ विश्वास होना चाहिए। लेकिन हकीकत में मामला उलट है। कुछ को तो अपने अधिकार ही नहीं मालूम और बहुत से ऐसे हैं जो वकीलों को कानूनी फीस भी नहीं चुका सकते।

सत्रहवीं शताब्दी में इंग्लैंड के कानूनविद् विलियम ब्लैकस्टोन ने एक विचार दिया था, जो बाद में पूरी दुनिया में आधुनिक न्याय व्यवस्था के लिए एक सिद्धांत बना। उन्होंने कहा था कि एक भी निर्दोष को कष्ट नहीं होना चाहिए, भले ही दस अपराधी बच कर क्यों न निकल जाएं। यह अवधारणा इस बात को पुख्ता करती है कि न्याय पर भरोसा तो पूरा करना चाहिए, मगर निर्दोष के लिए कानून तनिक मात्र भी संकट न बने। देश की शीर्ष अदालत ने भी कई बार कहा है कि जमानत ही नियम होना चाहिए और जेल अपवाद। जाहिर है, अन्याय, गिरफ्तारी और जेल का यह सिलसिला कमोबेश अनवरत चलता रहेगा। मगर बढ़ते मुकदमे और बोझिल होती जेलें कब भारहीन होंगी, इसका अंदाजा लगा पाना कठिन है।

भारत की जेलों में कैदियों की संख्या इस कदर बढ़ी हुई है कि कई बार जगह न मिलने और बुनियादी सुविधाओं पर भी सवाल उठते रहे हैं। गौरतलब है कि वे कैदी जिन पर जब तक आरोप सिद्ध नहीं हुए हों, उन्हें विचाराधीन की श्रेणी में रखा जाता है और अदालत में उनके मामले चल रहे होते हैं। संसद में इसे लेकर के एक सवाल पहले उठा था, जिस पर गृह मंत्रालय ने जवाब में बताया था कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) जेल संबंधी आंकड़ों का ब्योरा रखता है और इन्हें अपनी सालाना रिपोर्ट प्रिजन स्टेटिस्टिक इंडिया में प्रकाशित करता है।

31 दिसंबर 2020 की स्थिति के अनुसार भारत में तीन लाख इकहत्तर हजार से अधिक विचाराधीन कैदी हैं। इसमें उन्नीस हजार से थोड़े अधिक आठ केंद्रशासित क्षेत्रों से हैं, जबकि शेष सभी भारत के अट्ठाईस राज्यों से हैं। रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि 2015 से देश की जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों की संख्या में तीस फीसद से अधिक की वृद्धि हुई है, जबकि दोष सिद्धी के मामले में पंद्रह फीसद की कमी आई है। पड़ताल के अगले हिस्से में देखें तो यह भी पता चलता है कि जमानत पर रिहा किए जाने के कारण साल 2020 में 2019 की तुलना में विचाराधीन कैदियों की संख्या दो लाख साठ हजार की कमी आई।

शायद यह बहस की जा सकती है कि देश में बढ़ रहे विचाराधीन कैदियों की संख्या लोकतांत्रिक दृष्टि से सामाजिक न्याय को ही चुनौती दे रही है। विचाराधीन कैदियों के अनुपात को सघनता से समझा जाए तो सबसे अधिक वृद्धि पंजाब में देखने को मिलती है। उसके बाद हरियाणा और मध्यप्रदेश को देखा जा सकता है। पंजाब में यह संख्या 2019 में छियासठ फीसद से बढ़ कर 2020 में पिच्यासी फीसद हो गई। जबकि हरियाणा में यही चौसठ फीसद से बयासी फीसद और मध्य प्रदेश में चौवन से बढ़ कर लगभग सत्तर फीसद तक पहुंच गई।

दिल्ली में भी विचाराधीन कैदियों की संख्या बयासी फीसद से बढ़ कर इनक्यानबे फीसद हो गई, जिसकी वजह से यह राज्य सबसे अधिक विचाराधीन कैदियों वाला बन गया। बिहार की जेलें हों या उत्तर प्रदेश, झारखंड, ओड़ीशा आदि की, ऐसे कैदियों की तादाद सब जगह बढ़ रही है। तमिलनाडु के बाद तेलंगाना ऐसा राज्य हैं जहां विचाराधीन कैदियों की संख्या में कमी देखने को मिलती है। तमिलनाडु की जेल में बंद कैदियों में महज इकसठ फीसद ही विचाराधीन कैदी हैं और तेलंगाना में यह आंकड़ा पैंसठ फीसद के आसपास है।

साल 2020 में केरल की जेलों में विचाराधीन कैदियों का अनुपात सबसे कम महज उनसठ फीसद था। इसका एक बड़ा कारण तमिलनाडु, केरल जैसे राज्यों में कैदियों को अदालत में ले जाए बिना जेलों में ही सुनवाई भी हो सकता है। गौरतलब यह भी है कि लगभग सभी राज्यों में कोविड प्रतिबंधों के चलते चिकित्सा देखभाल को लेकर अदालती यात्राओं की संख्या में गिरावट हुई है। शीर्ष अदालत ने कोविड-19 को देखते हुए पात्र कैदियों की अंतिम रिहाई का आदेश दिया था। न्यायालय का उद्देश्य जेलों में भीड़ कम करना और कैदियों के जीवन के स्वास्थ्य के अधिकार की रक्षा करना शामिल था।

कानून के शासन की अभिव्यक्ति इस मुहावरे से होती है कि कोई भी व्यक्ति कानून से बड़ा नहीं। मगर जब इसी कानून से समय से न्याय मिलने की अपेक्षा हो और उसमें मामला लंबित हो जाए तो इसकी कीमत वे विचाराधीन कैदी चुकाते हैं जो न्याय की बाट जोह रहे हैं। हमारी संवैधानिक प्रणाली में हर व्यक्ति को कानून के सामने समता और संरक्षण का अधिकार हासिल है। मगर कानून का उल्लंघन करने वालों को मुकदमे, जेल और सजा इत्यादि से गुजरना पड़ता है। इसी का परिणाम है कि करोड़ों मुकदमे लंबित और लाखों लोग जेल में बंद हैं, जिसमें अधिकतर विचाराधीन हैं और जेल में बंद हैं।

प्रिजन स्टेटिस्टिक इंडिया 2016 में भारत में कैदियों की दुर्दशा पर प्रकाश डाला गया है। विचाराधीन कैदियों की आबादी भारत में सर्वाधिक है। साल 2016 के आंकड़े से यह पता चलता है कि कुल कैदियों में से अड़सठ फीसद विचाराधीन थे। खास बात यह भी है कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436 (क) को लेकर अनभिज्ञता भी इन्हें जेल में रहने के लिए मजबूर किए हुए है।

गौरतलब है कि दंड प्रक्रिया संहिता की इस धारा के अंतर्गत रिहा होने के योग्य और वास्तव में रिहा किए गए कैदियों की संख्या के बीच अंतर स्पष्ट किया गया है। इसके तहत अपराध के लिए निर्धारित अधिकतम जेल अवधि का आधा समय पूरा करने वाले विचाराधीन कैदियों को व्यक्तिगत गारंटी पर रिहा किया जा सकता है। साल 2019 का एक आंकड़ा बताता है कि जेलों में कैदियों के रहने की दर बढ़ कर एक सौ अठारह फीसद से अधिक हो गई है। जाहिर है, बुनियादी दिक्कतें तो बढ़ेंगी ही, साथ ही रखरखाव के लिए बजट की भारी-भरकम राशि भी इन पर खर्च होती है।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति अमिताभ राय समिति ने जेलों में सुधार के लिए कई सिफारिशें की थीं। इसमें शीघ्र विचारण को सर्वोत्तम तरीकों में से एक माना गया, तीस कैदियों के लिए कम से कम एक वकील अनिवार्य करने की बात कही और पांच साल से अधिक समय से लंबित छोटे-मोटे मामलों के निपटान हेतु त्वरित न्यायालयों की स्थापना का सुझाव शामिल था। इतना ही नहीं, कैदियों के लिए कानूनी सहायता जैसे तमाम संदर्भ भी इसमें निहित हैं। इसके अलावा रिक्तियों को भरने जैसे कई अन्य संदर्भों पर भी सुझाव देखे जा सकते हैं।

पिछले दो दशक में बड़ी संख्या में त्वरित अदालतें बनाई भी गई हैं, लेकिन अधीनस्थ न्यायालय और इन त्वरित अदालतों में लंबित मामलों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। मई 2021 तक चौबीस राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की नौ सौ छप्पन त्वरित अदालतों में नौ लाख से अधिक मामले लंबित थे। साल 2019 और 2020 के बीच उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों में बीस फीसद की दर से और अधीनस्थ न्यायालयों में तेरह फीसद की दर से बढ़ोत्तरी हुई।

न्याय तक पहुंचना इस मूलभूत सिद्धांत पर आधारित है कि लोगों को अपने अधिकारों और कर्तव्यों से अवगत होना चाहिए और कानून की गरिमा में उनका दृढ़ विश्वास होना चाहिए। लेकिन हकीकत में मामला उलट है। कुछ को तो अपने अधिकार ही मालूम नहीं हैं और बहुत से ऐसे हैं जो वकीलों की कानूनी फीस नहीं चुका सकते। एक गंभीर समस्या न्याय प्रक्रिया की जटिलता भी है। कानूनी प्रक्रियाएं लंबी और महंगी हैं। न्यायपालिका के पास इन मामलों के निराकरण के लिए कर्मचारियों और भौतिक ताम-झामों की भारी कमी है। शायद यही कारण है कि भारत की अदालतों में करोड़ों मुकदमें लंबित पड़े हैं जो न्याय में देरी को पूरी तरह पुख्ता करते हैं।

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