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- स्विस बैंकों में बढ़ा...
जब-जब स्विस बैंकों का जिक्र आता है, काला धन का मुद्दा सतह पर आ जाता है। हालांकि, स्विस बैंकों में जमा सभी धनराशि काला धन नहीं है। उनसे कई औद्योगिक कंपनियों के वैध खाते भी संचालित होते हैं, जो कारोबारी लेन-देन के उद्देश्य से खोले गए हैं। वैसे, आम लोगों को यह कुछ अजीब लग सकता है कि जिस कोरोना-काल में यहां लोगों की आय घट रही थी, इस दौरान स्विस बैंकों में भारतीयों की पूंजी-वृद्धि ने पिछले तेरह वर्षों का रिकॉर्र्ड तोड़ दिया। इन बैंकों में भारतीयों का धन बढ़कर 20,700 करोड़ रुपये से भी अधिक हो गया है। स्विट्जरलैंड के केंद्रीय बैंक के मुताबिक, भारतीयों का धन नगदी के रूप में नहीं, बल्कि सिक्योरिटी, विभिन्न बॉन्ड और कई अन्य तरह की वित्तीय होल्डिंगके कारण बढ़ा है। बहरहाल, इन ब्योरों से स्विस बैंकों में कितने भारतीयों का कितना काला धन जमा है, इसका संकेत नहीं मिलता, बल्कि इनसे बस यही जानकारी मिलती है कि भारतीय खाताधारकों के प्रति स्विस बैंकों की कितनी देनदारी बनती है। काला धन के मुद्दे ने कई बार देश की राजनीति की दशा-दिशा बदली। साल 2014 के आम चुनाव में तो यह एक बहुत बड़ा मुद्दा बना था। नेताओं द्वारा चुनावी रैलियों में अतिरंजित दावे किए गए थे। इसीलिए, जब इस पर लगाम लगाने के लिए नवंबर 2016 में प्रधानमंत्री ने नोटबंदी का एलान किया, तब देशवासी काफी तकलीफें उठाकर भी सरकार के फैसले के साथ अडिग रहे। लेकिन कुछ ही महीनों में यह साफ हो गया कि इससे कोई फायदा नहीं हुआ। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है- चुनाव आयोग द्वारा लोकसभा और विधानसभा चुनावों में बड़े पैमाने पर नगदी, शराब व आभूषणों की बरामदगी। बताने की जरूरत नहीं कि कुछ मायनों में नोटबंदी से अर्थव्यवस्था को नुकसान ही पहुंचा। उसके बाद काला धन का मुद्दा न सरकार के लिए लोक-लुभावन बचा, और न लोगों के लिए किसी उम्मीद का बाइस रहा। फिर भी, इसको नियंत्रित करने की शासन-प्रशासन की कोशिशें बंद नहीं हुईं, हो भी नहीं सकतीं, क्योंकि यह अंतत: देश की अर्थव्यवस्था को खोखला करता है। यह एक कटु सच्चाई है कि भारत ही नहीं, अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में भी कोरोना-काल में आम लोगों की जिंदगी दुश्वार हुई, पर शीर्ष के धनपतियों व उनकी कंपनियों के खजाने में अरबों की दौलत बढ़ी। ऐसे में, स्विस बैंकों में भारतीयों के धन में बॉन्ड, सिक्योरिटी आदि के जरिए बढ़़ोतरी समझी जा सकती है। लेकिन यह खुला सच है कि जितने भी 'टैक्स हैवेन' देश हैं, उनके बैंकों में दुनिया भर के रसूखदारों और धनपतियों ने विशाल धनराशि छिपा रखी है। पनामा पेपर्स लीक इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। दिक्कत यह है कि ये देश किसी प्रकार की वित्तीय जानकारी साझा नहीं करते। सरकारों के लिए लंबे समय से यह बड़़ी चुनौती बनी हुई है कि कैसे कर-चोरी के इस रास्ते को बंद किया जाए? जाहिर है, कूटनीतिक तरीकों से ही ऐसे खाताधारकों तक पहुंचना होगा। भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति इस वक्त अच्छी नहीं है और आने वाले कुछ वर्षों में उसके आर्थिक अनुशासन की कड़ी परीक्षा होगी। इसलिए हरेक स्तर पर वित्तीय पारदर्शिता सुनिश्चित करने के साथ-साथ सरकार को विदेश में काला धन रखने वालों से सख्ती से निपटना होगा। देश जानना चाहेगा कि कितना काला धन उसके खजाने में लौटा?