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विशेष गुप्ता: कटु सत्य यह भी है कि परिवारों में बुजुर्गों की भूमिका खत्म-सी हो गई है। छोटे परिवारों के बाद बने कामकाजी एकल परिवारों में मां-बाप भी अब बच्चों के बचपन से गायब हो रहें हैं। ऐसे अकेले वातावरण में बच्चे अपने मनोरंजन की चीजों के चयन के लिए स्वतंत्र हो गए हैं।
इंटरनेट की दुनिया ने बच्चों और किशोरों के मनोमस्तिष्क को आक्रामक बना दिया है। इस संदर्भ को प्रमाणित करतीं तमाम घटनाएं देखने-सुनने को मिलती रहती हैं। मोबाइल, इंटरनेट आदि की लत के शिकार बच्चे तक दहला देने वाले अपराध कर बैठते हैं। मोबाइल इस्तेमाल करने और पबजी जैसे हिंसक खेल खेलने से रोकने जैसी बात पर ही बच्चे माता-पिता को मार डाल डालने या खुदकुशी जैसा आत्मघाती कदम उठा लेते हैं। पिछले कुछ समय में ऐसी घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। कुछ महीने पहले लखनऊ में सोलह साल के एक किशोर ने अपनी मां की हत्या कर दी थी। कारण पता चला कि वह उसे मोबाइल पर पबजी खेल खेलने को मना करती थी। यह किशोर दसवीं कक्षा का छात्र था।
ऐसी घटनाओं को देखते हुए लगता है कि इंटरनेट के माध्यम से उभरती इस हिंसा के समाज शास्त्र को समय रहते समझने और इस समस्या का समाधान खोजने की महती आवश्यकता है। ऐसी घटनाएं परिवार, समाज और सामाजिक परिवेश पर सवाल खड़े करती हैं। इन घटनाओं से लगता है कि बच्चों के सामाजीकरण में अपनी खास भूमिका का निभाने वाली परिवार और स्कूल जैसी प्राथमिक संस्थाओं की जिम्मेदारी कहीं न कहीं सिमटती जा रही है। इसका असर यह हुआ है कि बच्चे अपनी दुनिया अलग बनाते जा रहे हैं।
सच्चाई यह है कि पिछले कुछ दशकों से कंप्यूटर और इंटरनेट सूचनाओं ने एक संवेदनाशून्य समाज गढ़ दिया है। आज सूचनाओं के इस भाव शून्य समाज में लोगों के सामने यह सामयिक प्रश्न जवाब मांग रहा है कि आखिर क्यों इस इंटरनेट आधारित समाज में हमारे बीच आपसी संवाद बनाने वाली संस्थाएं दम तोड रही हैं? आज इंटरनेट पर उपलब्ध तरह-तरह के हिंसक खेलों के सामने हमारे मस्तिष्क को तरोताजा रखने वाली सामाजिक और शैक्षिक क्रियाएं समाज से क्यों गायब होती जा रही हैं? लगातार विस्तार लेतीं ये आभासी दुनिया आज एक बीमारी की शक्ल क्यों लेती जा रही है? विद्यालयों में पठन-पाठन, शिक्षण और शिक्षक की मौजूदगी के बाद भी इंटरनेट से जुड़े आभासी खेल हिंसा की हदें क्यों पार करते जा रहे हैं? तकनीकी व डिजिटल समाज के विकास के इस संक्रमणकाल में इन सवालों के जवाब खोजना जरूरी हो गया है।
कड़वी सच्चाई यह है कि परिवार के बिखराव से बच्चों का बचपन सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है। दादा-दादी, नाना-नानी की देखरेख में पलने वाला बचपन अब कंप्यूटर, इंटरनेट, टीवी और वीडियो गेम जैसे संचार माध्यमों के बीच पल रहा है। उसके इस मनो-शारीरिक विकास में दैहिक समाज नदारद है। आज आर्थिक दबावों के समक्ष अभिभावकों को इतनी फुर्सत ही नहीं है जो उसे यह बता सकें कि उसके जीवन में उपयोगी चीजों को चयन करने की दिशा क्या हो।
संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों की सीख देने वाले परिवार और स्कूल भी उनके बचपन से दूर छिटक रहें हैं। वर्तमान का कटु सत्य यह भी है कि परिवारों में बुजुर्गों की भूमिका खत्म-सी हो गई है। छोटे परिवारों के बाद बने कामकाजी एकल परिवारों में मां-बाप भी अब बच्चों के बचपन से गायब हो रहें हैं। ऐसे अकेले वातावरण में बच्चे अपने मनोरंजन की चीजों के चयन के लिए स्वतंत्र हो गए हैं।
इसके अलावा आज का वैश्विक बाजार और सोशल मीडिया भी इंटरनेट से जुड़ी आनलाइन धाराओं को पूरी तरह से काबू करने पर उतारू है। बच्चे इंटरनेट दुनिया के बड़े उपभोक्ता बन चुके हैं। घर-परिवार में बच्चों की सुनवाई ठीक से न होने के कारण आभासी दुनिया उन्हें अपना दोस्त बनाने को आतुर है। यही वजह है कि अबोध बच्चे आभासी दुनिया के चुंगल में फंसते जा रहे हैं। देखने में यह भी आ रहा है कि परिवारों में बच्चों को भौतिकतावादी सुविधाएं देकर मां-बाप अपनी सामाजिक भूमिका की इतिश्री समझ रहे हैं।
लिहाजा बच्चे घर की चारदीवारी में बंद होकर आभासी दुनिया में चले जाते हैं। इंटरनेट पर हिंसक खेल खेलते हैं। खेल में जीतने के लिए उन्हें कंप्यूटर, वीडियो अथवा मोबाइल के पर्दे पर किसी चरित्र को मारने में बहुत मजा आने लगता है। नतीजा यह होता है कि इन कृत्रिम चरित्रों को मार-मार कर पलते और बड़े होते ये बच्चे अपने वास्तविक जीवन में भी ऐसा करने से नहीं चूकते।
तथ्य बताते हैं कि आज देश-दुनिया में आनलाइन गेम का अरबों-खरबों का कारोबार है। वर्ष 2019 में आनलाइन गेम का वैश्विक कारोबार सैतींस अरब डालर से भी ज्यादा का रहा था। वर्ष 2025 तक एक सौ बीस अरब डालर से भी अधिक हो जाने का अनुमान है। केपीएमजी की रिपोर्ट बताती है कि भारत में भी यह कारोबार अभी बारह हजार करोड़ रुपए से अधिक का है। आनलाइन खेल खेलने वालों की संख्या से जुड़े आंकड़े बताते हैं कि कोरोना काल में इनकी संख्या पैंतीस करोड़ के आसपास थी, जो इस साल के अंत तक पचास करोड़ से भी ज्यादा हो जाने का अनुमान है। हालांकि भारत सरकार ने पिछले दो सालों में चीन के सौ से ज्यादा एप पर प्रतिबंध तो लगाया है, मगर इसके बावजूद नाम बदल-बदल कर ये हिंसक खेल अपना करतब दिखाने से नहीं चूक रहे हैं।
आज जिस हिंसा का प्रयोग बच्चे अपने दोस्तों, सहपाठियों व स्वजनों के साथ कर रहे हैं, वह निश्चित ही उनकी सहनशक्ति के कमजोर होने और उनके क्रोधी व्यक्तित्व का परिचायक है। पहले परिवार, शिक्षक और शिक्षा का त्रिपक्षीय संगम व्यक्तित्व को एक सुरक्षा कवच प्रदान करता था। पर लगता है कि वह कवच अब कमजोर पड़ता जा रहा है। संचार माध्यमों ने तो बच्चों के कल्पनालोक और उनके यथार्थ में घालमेल करते हुए आक्रोश व हिंसा को केंद्र में लाकर उसे लक्ष्य प्राप्ति का साधन बना दिया है। हिंसा अब बच्चों के सामान्य अनुभव का हिस्सा बनती जा रही है।
संयम, सहनशीलता, दया, करुणा और अंहिसा जैसे मूल्य अपना महत्त्व लगातार खोते जा रहे हैं। लक्ष्यों की प्राप्ति में विलंब बच्चों से असहनीय हो रहा है। परिवारों में बच्चों की खुद की अस्मिता अन्य परिवारजनों से अलग होने की मांग कर रही है। यही वजह है कि परिवार में टोका-टाकी तक बच्चों में बर्दाश्त से बाहर हो रही है। बच्चों को हिंसा की गिरफ्त से बचाने के लिए आवश्यक है कि हम बच्चों के प्रति तटस्थता के भावों का अबिलंब त्याग करते हुए उनके नजदीक आने का प्रयास करें।
कहना न होगा कि बच्चों के बचपन के वात्सल्य, प्रेम, दया, सहानुभूति, सच-झूठ और हिंसा-अहिंसा के बीच के अंतर से जुड़े अच्छे भावों को उनके जीवन में लाने और उतारने के लिए परिवार व स्कूल जैसी प्राथमिक संस्थाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। साथ ही, बच्चों के जीवन में उनके एकाकीपन, तनाव, निराशा और कुंठा को कम करने का अच्छा तरीका है कि उनको रचनात्मक गतिविधियों से जोड़ा जाए, उन्हें खेल संबंधी व अन्य सृजनात्मक गतिविधियों में व्यस्त किया जाए।
इसके अलावा बच्चों में हिंसक भावों को कम करते हुए अभिभावक उनसे निकटता और संवाद स्थापित करने के प्रयास लगातार जारी रखें। ध्यान रहे कि बच्चों के जीवन का एकाकीपन उन्हें उत्तेजना के तरह-तरह के भावों के प्रकटीकरण लिए उकसाता है। बच्चा जो कहना चाहता है, माता-पिता के साथ-साथ स्कूल में भी उसकी बात को ठीक से सुना जाए। बच्चे के परिवार या स्कूल में उसके निहायत शांत रहने अथवा अलग-थलग रहने की दशा में भी उसकी सुनवाई ठीक से हो और उससे निरंतर तरह-तरह के सकारात्मक संवाद करने के उपाय तलाशे जाएं। इन छोटे-छोटे बाल आधारित प्रयासों से ही बच्चों को आभासी व हिंसक दुनिया की चुनौतियों से बचाया जा सकता है।