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- ब्याज में बढ़ोतरी
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Written by जनसत्ता; यह चौथी बार है। मई से लेकर अब तक 1.90 फीसद की बढ़ोतरी की जा चुकी है। इस तरह अब रेपो दर 5.90 फीसद हो गई है। लघु बचत करने वालों के लिए तो यह कुछ राहत का फैसला साबित हो सकता है, मगर जो लोग कर्ज लेकर कारोबार करते, मकान, वाहन या कोई टिकाऊ सामान खरीदते हैं, उनके ऊपर किस्तों का बोझ थोड़ा और बढ़ जाएगा। हालांकि रेपो दरों में बढ़ोतरी के अनुमान पहले से लगाए जा रहे थे।
रेपो दर ब्याज की वह दर होती है, जिस पर रिजर्व बैंक दूसरे बैंकों को कर्ज देता है। यानी, बैंक अपने ग्राहकों को इससे अधिक दर पर कर्ज देते हैं। दरअसल, पिछले कुछ महीनों से महंगाई, डालर के मुकाबले रुपए की कीमत और लगातार बढ़ते व्यापार घाटे और उसके परिणामस्वरूप चालू खाता घाटे पर काबू पाना कठिन बना हुआ है। इससे पार पाने का आसान तरीका रेपो दरों में बढ़ोतरी ही नजर आता है। पिछले दिनों रेपो दरों में बढ़ोतरी से महंगाई के रुख में मामूली उतार का रुख नजर आया था। मगर रिजर्व बैंक खुद इस उपाय को अंतिम हथियार नहीं मानता।
एक दिन पहले ही चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में चालू खाते में चिंताजनक बढ़ोतरी के आंकड़े सामने आए। पिछले वित्त वर्ष की तुलना में यह घाटा कुल जीडीपी के 1.5 फीसद की तुलना में 2.8 फीसद दर्ज हुआ है। बताया जा रहा है कि यह घाटा व्यापार घाटे की वजह से बढ़ा है। यानी निर्यात में कमी और डालर के मुकाबले रुपए की गिरती कीमत इसकी बड़ी वजह है।
हालांकि सरकार ने अपने खर्चों में कुछ कटौती शुरू की है और अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की घटती कीमतों के बावजूद घरेलू बाजार में तेल की कीमतों में कोई बदलाव नहीं किया है, फिर भी यह घाटा काबू में नहीं आ रहा है, तो आर्थिक विकास दर को लेकर चिंता स्वाभाविक है। पहले ही अपेक्षित निवेश नहीं आ रहा, उद्योग जगत का जीडीपी में योगदान काफी नीचे चला गया है। ऐसे में रोजगार के नए अवसर सृजित करना और बाजार में पूंजी का प्रवाह बढ़ाना सरकार के लिए मुश्किल बना हुआ है। विदेशी मुद्रा भंडार लगातार छीज रहा है। इसलिए रेपो दरें बढ़ने से कितना लाभ मिलेगा, दावा करना मुश्किल है।
सरकार दावा करती रही है कि निर्यात में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। अगर इस दावे में दम होता, तो व्यापार घाटा इतना न बढ़ता और निवेश आकर्षित करने में मुश्किलें नहीं आतीं। कुछ दिनों पहले ही वित्तमंत्री को घोषणा करनी पड़ी कि घरेलू निवेश में उत्साह दिखाई नहीं दे रहा, उद्योग जगत अपनी परेशानियां बताए, तो सरकार उन्हें दूर करने का प्रयास करेगी। मगर मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रहीं।
व्यापार घाटा बढ़ने, तेल की कीमतों को संतुलित करने में सफलता न मिल पाने, उद्योग जगत का प्रदर्शन उत्साहजनक न होने और उत्पादन लागत बढ़ने से न तो महंगाई पर अंकुश लगाने में मदद मिल पा रही है और न रोजगार के नए अवसर पैदा करने में। सूचना तकनीक से जुड़ी कंपनियां भी अब किसी न किसी बहाने छंटनी का रास्ता अख्तियार करती देखी जा रही हैं। यानी बाहर के बाजार में उन्हें भी काम नहीं मिल पा रहा। ऐसे में तदर्थ उपायों से अर्थव्यवस्था को संभालने के बजाय समग्र रूप से रणनीति बनाने की जरूरत है।