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फिल्म एक महिला एथलीट के बारे में है जो शीर्ष पर पहुंचने के लिए साथियों की जलन
एन. रघुरामन का कॉलम:
एक नई हिन्दी फिल्म में सुनवाई के दौरान एक स्पष्टवादी जज, वकील से तंज के साथ पूछती हैं, 'आप हिन्दी फिल्में बहुत देखते हैं क्या? असलियत में कोर्टरूम में इतना हाई-ड्रामा नहीं होता।' मैं नहीं जानता कितनी बार मैंने ऐसा ही संवाद ऑफिस में इस्तेमाल किया है, खासतौर पर जब कोई मीटिंग में 15 या 30 मिनट देरी से आता है।
हर रोज मेरा रेलवे रिपोर्टर मुझे मुंबई लोकल ट्रेन लेट होने के अपडेट देता था। इससे मैं देख पाता था कि कौन हमेशा देर से आने पर ट्रेन लेट होने का बहाना करता है। मेरी टेबल पर हमेशा मुंबई की तीनों लोकल सर्विस का टाइम टेबल होता था और मैं उन्हें उलझाने वाले सवाल पूछकर फंसा देता था जैसे, 'अपने उपगनर में तुम ट्रेन में कब बैठे थे?' और जवाब टाइम टेबल से मिलाता था। जब रिपोर्टर कहते, 'सर, मैं सिर्फ 10 मिनट लेट हूं।' तब मैं शांति से पूछता, 'तुम लेट आए हो या नहीं? हां या न? और ऐसा नियम कहां कि कितना लेट होने पर व्यक्ति लेट माना जाएगा!'
मेरे इस काम ने पूरे संपादकीय फ्लोर को स्पष्ट संदेश दे दिया था कि मैं एटिड मीटिंग में लेट आने पर 'किसी भी ड्रामा' का बहाना नहीं मानूंगा। साथ ही ऐसे अनुशासन ने मेरे जूनियर्स की सामान्य विषय पर चर्चा में भी आसानी से सोचकर, सीधे कानूनी पक्ष पर आने की काबिलियत बेहतर की थी। लेकिन मैं वही व्यक्ति हूं जो देर से आने पर लोगों को माफ कर देता था, अगर उनके पास विश्वसनीय और छापने योग्य कहानी होती थी, जिसमें वह ड्रामा हो जो उन्होंने ऑफिस आते वक्त देखा। साथ ही जिन्हें वे तथ्य, आंकड़ों, बयानों और कुछ तस्वीरों की मदद से बता पाएं। याद रखें कि उन दिनों फोटो खींचने, भेजने या जानकारी देने के लिए मोबाइल नहीं होते थे।
इसलिए मुझे ऐसी हिन्दी फिल्में पसंद हैं, जो सिनेमा की 'सबको खुश करने वाले' श्रेणी से नहीं आतीं। यही कारण है कि डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) के बावजूद मैं हाल ही में रिलीज फिल्म 'रश्मि रॉकेट' में दुती चंद के मामले की झलक नजरअंदाज नहीं कर सका। इसमें जज की भूमिका निभा रहीं सुप्रिया पिलगांवकर बचाव पक्ष के वकील से वह पूछती हैं, जो लेख की शुरुआत में है।
फिल्म एक महिला एथलीट के बारे में है जो शीर्ष पर पहुंचने के लिए साथियों की जलन, संस्थागत पितृसत्ता और आदिम लैंगिक भेदभाव से संघर्ष करती है। हर संस्थान, हर पांच वर्ष में किसी नई चीज से प्रभावित होता है और हम नेतृत्वकर्ताओं का काम होता है कि हम सभी के कार्यों में 'सुधार' और 'उच्च मानकों' के बारे में सोचें। लगातार बेहतर तरीकों की तलाश एक नेतृत्वकर्ता को बेहतर और संस्थान को होशियार बनाती है।
जब आप मानते हैं कि कुछ असंभव है, आपका दिमाग साबित करने में लग जाता है कि ऐसा क्यों है। लेकिन जब आप मानते हैं कि कुछ कर सकते हैं, तब दिमाग उसे करने के तरीके खोजने में मदद करता है। कई लोग अपनी इच्छाओं का दमन करते हैं क्योंकि वे 'क्यों नहीं कर सकते' पर ध्यान देते हैं, जबकि 'कैसे कर सकते हैं' पर ध्यान देना चाहिए। फिल्म इन दोनों परिस्थितियों पर रोशनी डालती है और हीरोइन (तापसी पन्नू) को शक्तिशाली लोगों से लड़कर जीतने का साहस देती है।
Gulabi
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