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सोर्स : prabhatkhabar
दुनिया में मौसम का मिजाज तेजी से बदल रहा है.
दुनिया में मौसम का मिजाज तेजी से बदल रहा है. जहां कड़ाके की ठंढ पड़ती थी, वहां गर्मी का एहसास होने लगा है. जहां भीषण गर्मी होती थी, वहां ठंढ बढ़ने लगी है. रेगिस्तान में बाढ़ आ रहे हैं और जहां साल भर बारिश होती थी, वहां लोग पानी के लिए तरसने लगे हैं. इस परिवर्तन से दुनिया बदल जायेगी और इसका प्रभाव हर व्यक्ति पर पड़ेगा. इस परिवर्तन को देखते हुए दुनिया के समझदार देशों ने तो अभी से योजना बनानी शुरू कर दी है.
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मोटे अनाजों के उत्पादन पर जोर जलवायु परिवर्तन के खतरों के समाधान का ही एक प्रयोग है. फिलहाल भारत की जनसंख्या लगभग 140 करोड़ है. उसको खिलाने के लिए भारत सरकार के पास पर्याप्त अनाज भी है, लेकिन जरूरी नहीं है कि भविष्य में भी ऐसी स्थिति बनी रहेगी. मौसम परिवर्तन हमारे अन्न उत्पादन पर भी असर डालेगा.
कृषि वैज्ञानिकों ने कम उत्पादन की आशंका जतायी है. इसके लिए भारत सरकार ने जहां मोटे अनाज को बढ़ावा देना प्रारंभ कर दिया है, वहीं देश भर में फैले कृषि विज्ञान केंद्रों के माध्यम से किसानों को जागरूक भी किया जा रहा है. विगत दिनों आसन्न कृषि तकनीक को लेकर कृषि विज्ञान केंद्रों में सेमिनार का आयोजन किया गया. ये केंद्र कार्यशालाओं का आयोजन भी कर रहे हैं, जिनमें यह बताने का प्रयास किया जा रहा है कि आने वाले समय में मौसम में व्यापक परिवर्तन आयेगा और उस परिवर्तन को लेकर हमें अपनी कृषि तकनीक बदलनी होगी.
इस बदलाव के लिए इन केंद्रों ने अपने-अपने क्षेत्रों में रबी, खरीफ और गर्मा फसलों के लिए पायलट प्रोजेक्ट भी प्रारंभ किये हैं. इस प्रयोग को अखिल भारतीय रूप प्रदान किया गया है. देश के लगभग हर जिले में एक या एक से अधिक कृषि विज्ञान केंद्र हैं. इन केंद्रों की संख्या 721 है. इन केंद्रों ने सबसे पहला काम लिया है मोटे अनाज की खेती के लिए किसानों को प्रोत्साहित करना. इनका दूसरा बड़ा काम बिना जुताई खेती को बढ़ावा देना है.
तीसरी प्राथमिकता सिंचाई, उर्वरक, कीटनाशक एवं मशीनी प्रयोग को सीमित करना है. जानकारी में रहे कि मोटे अनाज के उत्पादन में सिंचाई की जरूरत कम पड़ती है. मानव और अन्य श्रम भी कम ही उपयोग में लाया जाता है. चूंकि ऐसे अनाज सामान्य व पारंपरिक हैं, इसलिए इसके उत्पादन में उर्वरक और कीटनाशकों का उपयोग भी कम होता है.
खरीफ में धान की खेती के लिए अमूमन कादो कर रोपाई की परिपाटी रही है. अब इसे बदलने का प्रयास हो रहा है. कृषि वैज्ञानिकों ने सीधे बुआई की तकनीक विकसित कर ली है. हालांकि बाढ़ वाले क्षेत्रों में पहले भी इस प्रकार से धान की बुआई होती थी, पर उसका प्रति हेक्टेयर उत्पादन बहुत कम होता था, लेकिन अब कृषि तकनीक में सुधार और वैज्ञानिक पद्धति ने इस समस्या का समाधान खोज लिया है. सरसों और अलसी आदि की खेती के लिए भी किसानों को खेतों की जुताई करनी होती थी, लेकिन अब बिना जुताई की खेती संभव है.
इसके लिए थोड़े उन्नत तकनीक का प्रयोग किया जा रहा है और यह उत्पादन भी बढ़िया दे रहा है. इस तकनीक से मिट्टी की गुणवत्ता को बरकरार रखा जा सकता है. कृषि विज्ञान केंद्र, किसानों की कार्यशाला और कृषि वैज्ञानिकों के सेमिनार के माध्यम से अपने-अपने क्षेत्र में कृषि की नयी तकनीक और नये प्रकार की संस्कृति का प्रचार कर रहे हैं.
अभी तक गेहूं की बुआई का आदर्श समय 15 नवंबर के आसपास माना जाता था, पर मौसम परिवर्तन के कारण इस समय के बुआई का दुष्परिणाम देखने को मिल रहा है. कृषि वैज्ञानिकों ने नये प्रकार के गेहूं के प्रभेद को विकसित किया है, जिसका नाम एचडी 2967 है. इस प्रभेद के उत्पादन में न तो पछुआ हवा का प्रभाव पड़ता है और न ही कोई अन्य समस्या आ रही है.
गर्मा फसल को बढ़ावा देने की योजना भी बनी है. जानकारी में रहे कि मूंग एक ऐसा दलहन है, जो न केवल गर्मी बर्दाश्त करता है, अपितु मौसम जितना गर्म होता है, उत्पादन भी अधिक होता है. मूंग उत्पादन पर जोर देने की योजना बनी है. उत्तर बिहार में पहले से दुफसली रबी की खेती होती रही है. यहां अधिकतर किसान आलू के साथ मक्के की फसल लगाते हैं. ऐसी खेती को अखिल भारतीय स्तर पर प्रोत्साहन देने की योजना है.
दुनिया में बदल रहे मौसम के प्रभाव से खेती को बचाने के लिए भारत समेत विभिन्न देश अपने-अपने तरीके से प्रयास कर रहे हैं. भारत में हो रहे प्रयास का अग्रदूत कृषि विज्ञान केंद्र बन रहे हैं. बदलती कृषि तकनीक के प्रचार और किसानों को जागरूक करने में इन केंद्रों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो रही है. यदि भारत की खेती-किसानी को बचाना है, तो हमें न केवल पारंपरिक खेती की ओर मुड़ना होगा, अपितु उसमें आधुनिक तकनीक को भी जोड़ना पड़ेगा. हमारे कृषि विज्ञानी देर से ही सही, पर अब समझ गये हैं.
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