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Written by जनसत्ता: भवन निर्माण के क्षेत्र में पिछले करीब आठ सालों से मंदी का दौर है। लाखों घर अधूरे पड़े हैं, लाखों बन कर तैयार हैं, पर उनके खरीदार नहीं हैं। कोरोना काल में सबसे ज्यादा मार इस क्षेत्र पर पड़ी। महामारी का दौर कुछ धीमा पड़ा, तो सरकार ने इस क्षेत्र में पूंजी का प्रवाह बढ़ाने के मकसद से भारी निवेश किया। उससे कुछ गति तो मिली, पर फिर भी यह घिसटता हुआ ही चल रहा है। इसका अंदाजा एक नए अध्ययन से लगाया जा सकता है। देश में करीब साढ़े चार लाख करोड़ रुपए मूल्य के चार लाख अस्सी हजार आवास अब भी अधूरे पड़े हुए हैं।
इनमें सबसे ज्यादा घर दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में हैं। हैदराबाद, बंगलुरू और कोलकाता में कुल भवनों के पांच से नौ फीसद अधूरे पड़े हैं। यह सर्वेक्षण एक संपत्ति सलाहकार कंपनी ने कराया है और उसने केवल देश के सात प्रमुख महानगरों तक अपने अध्ययन को केंद्रित रखा है। यानी देश के सभी शहरों को शामिल कर लिया जाए, तो अधूरे घरों की तादाद बहुत ज्यादा होगी। उल्लेखनीय है कि इस अध्ययन में उन्हीं इकाइयों को शामिल किया गया है, जो 2014 के आसपास शुरू हुई थीं। यानी लाखों लोग पिछले आठ सालों से अपने घर की आस लगाए बैठे हैं और उन्हें यह भी नहीं पता कि उनका सपना कब पूरा होगा।
भवन परियोजनाओं के लंबे समय तक लटके रहने से कई स्तरों पर लोगों को नुकसान झेलना पड़ता है। इसमें सबसे बड़ी मार उस ग्राहक पर पड़ती है, जिसने घर के लिए अग्रिम राशि का भुगतान किया है और हर महीने किस्त चुका रहा है। किराए के मकान में रहता है। यानी उस पर दोहरी मार पड़ती है। निर्माण कार्य लंबे समय तक टलते रहने से उसकी लागत भी बढ़ती जाती है, जिसका बोझ आखिरकार ग्राहक पर ही डाला जाता है। उसके बाद उन परियोजनाओं से जुड़े निर्माण मजदूरों की आजीविका प्रभावित होती है।
गौरतलब है कि लघु, मझोले और सूक्ष्म उद्योगों के बाद भवन निर्माण सबसे अधिक रोजगार देने वाला क्षेत्र है। कोरोना काल में भवन निर्माण ठप पड़ जाने की वजह से लाखों लोगों के सामने आजीविका का सवाल खड़ा हो गया था। हालांकि यह क्षेत्र कोरोना संकट से पहले से ही ठप पड़ा है, क्योंकि सात साल पहले बेनामी संपत्ति और काले धन पर अंकुश लगाने की मंशा से सरकार ने इस क्षेत्र पर कड़ी बंदिशें लगा दी थी। फिर भवन निर्माण सामग्री की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई थी।
आर्थिक विकास की वास्तविक स्थिति किसी से छिपी नहीं है, बेशक सरकार तेज आर्थिक विकास की विरुदावली अब भी लगातार गाती सुनी जाती है। पर हकीकत यही है कि बहुत सारे लोगों की कमाई घटी है। उस पर महंगाई की मार। रिजर्व बैंक ने उसे साधने के लिए रेपो दरों में दो बार बढ़ोतरी कर दी। यानी कर्ज की किस्तें बढ़ गर्इं।
इस तरह आशियाने का सपना और महंगा हो गया। यह स्थिति तब है, जब केंद्र सरकार प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत इस क्षेत्र में पूंजी प्रवाहित करती है। सौ शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने की योजना लागू है। इन सबके बीच जो घर अधूरे खड़े हैं, उनमें लगी पूंजी और उनकी नींव में दबे लाखों सपनों का हिसाब कैसे हो। कुछ भवन निर्माताओं के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय ने कठोर आदेश दिए, कइयों को कड़ी चेतावनी दी, उसके बावजूद अगर यह स्थिति है, तो सरकार के लिए गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए।