सम्पादकीय

अप्रासंगिक होती संधियां

Subhi
9 March 2022 3:57 AM GMT
अप्रासंगिक होती संधियां
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सन 1945 में जब संयुक्त राष्ट्र की स्थापना हुई थी, तब उसका मुख्य उद्देश्य विश्व में परमाणु निरस्त्रीकरण ही था।

प्रमोद भार्गव: सन 1945 में जब संयुक्त राष्ट्र की स्थापना हुई थी, तब उसका मुख्य उद्देश्य विश्व में परमाणु निरस्त्रीकरण ही था। लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि इस वैश्विक संस्था के अस्तित्व में आने के बाद से ही परमाणु हथियार रखने वाले देशों की संख्या तो बढ़ ही रही है, परमाणु और हाइड्रोजन बमों की

संख्या भी बढ़ रही है।

युद्ध से बचने और शांति के प्रयासों में स्थायित्व लाने की दृष्टि से जिन संधियों को विश्वव्यापी रूप में अमल में लाया गया था, रूस-यूक्रेन युद्ध में उनकी भूमिका निष्क्रिय साबित हो रही है। परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) पर अमेरिका, यूरोपीय संघ और रूस के दबाव में यूक्रेन ने भी हस्ताक्षर किए थे, आज वही संधि उसके सामने काल बन कर खड़ी है। रूस ने तो यूक्रेन पर हमला बोलने के साथ परमाणु हथियार चलाने की तैयारी भी शुरू कर दी है। जबकि अमेरिका और यूरोपीय संघ असमंजस की स्थिति में हैं।

नाटो देश भी बगलें झांक रहे हैं। बावजूद इच्छाबल के बूते यूक्रेनी नागरिक रूसी सेना से लोहा ले रहे हैं। रूसी सेना ने राजधानी कीव सहित कई शहरों पर भारी हमले करते हुए इन पर नियंत्रण की कोशिश में है। ऐसे में यदि कुछ और दिन यही हालात बने रहे तो आशंका है कि राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन परमाणु हथियारों का सीमित इस्तेमाल कर सकते हैं। ऐसा इसलिए मुमकिन है क्योंकि एनपीटी पर हस्ताक्षर कर देने के कारण यूक्रेन परमाणु हथियार बनाने की दिशा में आगे नहीं बढ़ पाया। उसे अब अपनी भूल का अहसास हो रहा है।

यूक्रेन 1994 में बुडापेस्ट समझौते के तहत परमाणु हथियार नहीं बनाने के लिए वचनबद्ध हो गया था। अमेरिका और यूरोपीय देशों ने उस समय रूस के साथ मिल कर यूक्रेन को परमाणु हथियारों से वंचित रखने की नीति अपना ली थी। उसके बाद यूक्रेन ने अपने पास मौजूद परमाणु हथियारों को 1996 में नष्ट कर दिया था। यूक्रेन ने यह पहल 20 जून 1996 को जिनेवा सम्मेलन में अस्तित्व में आई 'व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि (सीटीबीटी)' के तहत की थी। जबकि भारत ने परमाणु परीक्षण से जुड़ी इस संधि पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था। भारत की ओट लेकर पाकिस्तान ने भी यही रुख अपनाया था। भेदभाव पूर्ण इस संधि के दोष अब साफ नजर आ रहे हैं।

भारत का पहला परमाणु परीक्षण तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1974 में राजस्थान के पोखरण में कराया था, ताकि दुनिया को पता चल जाए कि भारत परमाणु शक्ति संपन्न देश बन जाने की दिशा में आगे बढ़ चुका है। दूसरा परीक्षण 1998 में प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने कराया था। हलांकि इस परीक्षण के बाद भारत ने इस सिद्धांत को अपनाया था कि वह पहले परमाणु हथियार का इस्तेमाल नहीं करेगा। अगस्त, 1999 में भारत सरकार ने इस सिद्धांत का एक प्रस्ताव भी जारी किया था। इसमें कहा गया था कि 'परमाणु हथियार केवल निरोध के लिए हैं और भारत केवल प्रतिशोध की नीति अपनाएगा।' अर्थात भारत कभी स्वयं आगे बढ़ कर पहले परमाणु हमला नहीं करेगा। परंतु यदि किसी देश ने उस पर परमाणु हमला किया तो वह प्रतिकार की भावना से परमाणु हमला करके प्रतिक्रिया देगा।

विश्व फलक पर उभरी तमाम विडंबनाओं और विरोधाभासों के चलते परमाणु निरस्त्रीकरण के प्रयास में जुटी संस्था 'इंटरनेशनल कैंपेन टू एबोलिश न्यूक्लियर वेपंस' (आईसीएएन) को 2017 में नोबेल शांति पुरस्कार दिया था। नार्वे स्थित यह अंतरराष्ट्रीय संस्था परमाणु हथियारों के खात्मे के लिए अंतरराष्ट्रीय अभियान चला रही है। इस संस्था को नोबेल शांति पुरस्कार देना इसलिए प्रासंगिक माना गया था, क्योंकि परमाणु शक्ति संपन्न देशों ने एक-दूसरे को धमकाते हुए दुनिया को परमाणु युद्ध की आशंका से तनावग्रस्त व भयभीत किया हुआ था। एक तरफ उत्तर कोरिया अमेरिका, जापान और दक्षिण कोरिया को नेस्तनाबूत करने की धमकी दे रहा है, तो वहीं जबावी कार्रवाई में अमेरिका समूचे उत्तर कोरिया का वजूद ही मिटा देने की हुंकार भरता रहा है। दूसरी तरफ चीन ने समुद्री निगरानी के बहाने परमाणु पनडुब्बियों को समुद्र में उतारने का फैसला ले लिया था।

आइसीएएन संगठन अंतरराष्ट्रीय संधि के माध्यम से दुनिया को परमाणु हथियार मुक्त बनाने के प्रयासों में जुटा है। संगठन के प्रयासों पर सहमति जताते हुए एक सौ बाईस देशों ने परमाणु हथियारों को प्रतिबंधित करने की संधि भी कर ली है। सन 1945 में जब संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई थी, तब उसका मुख्य उद्देश्य विश्व में परमाणु निरस्त्रीकरण ही था। लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि इस वैश्विक संस्था के अस्तित्व में आने के बाद से ही परमाणु हथियार रखने वाले देशों की संख्या तो बढ़ ही रही है, परमाणु और हाइड्रोजन बमों की संख्या भी बढ़ रही है।

जो देश परमाणु संपन्न हैं, वे अब तक परमाणु व अप्रसार संधि (एनपीटी) पर दस्तखत करने को तैयार भी नहीं हुए हैं। इन देशों में अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन, फ्रांस, भारत, पाकिस्तान, इजराइल और उत्तर कोरिया शामिल हैं। यदि आर्म्स कंट्रोल एसोशिएशन, वाशिंगटन की रिपोर्ट को मानें तो इस समय रूस के पास सात हजार, अमेरिका के पास छह हजार आठ सौ फ्रांस के पास तीन सौ, चीन के पास दो सौ साठ, ब्रिटेन के पास दो सौ पंद्रह, पाकिस्तान के पास एक सौ चालीस, भारत के पास एक सौ दस, इजराइल के पास अस्सी और उत्तर कोरिया के पास दस परमाणु हथियार मौजूद हैं। यदि ये देश इन हथियारों को चिंगारी दिखा दें तो पूरी धरती तहस-नहस हो जाएगी।

आइसीएएन का गठन 2007 में हुआ था। इस समय इसकी एक सौ एक देशों में शाखाएं फैली हुई हंै। इसी के प्रयास से एक सौ बाईस देशों ने संयुक्त राष्ट्र की परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर किए हैं। इस लिहाज से इस संस्था का परमाणु युद्ध संबंधी खतरा टालने में अहम भूमिका सामने आई है। हालांकि परमाणु संपन्न देशों द्वारा संधि पर दस्तखत नहीं करने के कारण यह संकट यथावत बना हुआ है और लगता है रूस कहीं यूक्रेन पर परमाणु हमला न कर दे। दरअसल दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका ने जापान के शहर हिरोशिमा पर छह अगस्त और नागासाकी पर नौ अगस्त 1945 को परमाणु बम गिराए थे। इन बमों से हुए विस्फोट से फूटने वाली रेडियोधर्मी विकिरण के कारण दो लाख लोग तो मरे ही, हजारों लोग अनेक वर्षों तक लाइलाज बीमारियों की गिरफ्त में रहे।

आज भी इस इलाके में विकलांग बच्चे पैदा होते हैं। अमेरिका ने जब 1945 में पहला परीक्षण किया था, तब आणविक हथियार निर्माण की पहली अवस्था में थे। किंतु तब से लेकर अब तक घातक से घातक परमाणु हथियार निर्माण की दिशा में बहुत प्रगति हो चुकी है। लिहाजा अब इन हथियारों का इस्तेमाल होता है तो बर्बादी की विभीषिका हिरोशिमा और नागासाकी से कहीं ज्यादा भयावह होगी। इसलिए कहा जा रहा है कि आज दुनिया के पास इतनी बड़ी मात्रा में परमाणु हथियार हैं कि समूची धरती को एक बार नहीं, अनेक बार नष्ट किया जा सकता है।

भारत तो ने संयुक्त राष्ट्र में आणविक अस्त्रों के समूल नाश का प्रस्ताव रख भी चुका है। लेकिन परमाणु महाशक्तियों ने इस प्रस्ताव में कोई रुचि नहीं दिखाई, क्योंकि परमाणु प्रभुत्व में ही उनकी वीटो-शक्ति अंतनिर्हित है। अब तो परमाणु शक्ति संपन्न देश कई देशों से असैन्य परमाणु समझौते करके यूरेनियम का व्यापार कर रहे हैं। परमाणु ऊर्जा और स्वास्थ्य सेवा की ओट में ही कई देश परमाणु-शक्ति से संपन्न देश बने हैं और हथियारों का जखीरा इकट्ठा करते चले जा रहे हैं। हालांकि भारत अभी भी परमाणु अस्त्र विहीन दुनिया का समर्थन कर रहा है। किंतु वह इस परिप्रेक्ष्य में पक्षपात के विरुद्ध हैं। यही कारण है कि भारत ने अब तक परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत नहीं किए हैं। अब लग रहा है ऐसा करके भारत ने ठीक ही किया है।


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