सम्पादकीय

देश की आंतरिक एवं सीमावर्ती सुरक्षा चुनौतियों को देखते हुए भारत में आज एक समावेशी सैन्य शिक्षा की आवश्यकता है

Gulabi
25 Feb 2022 6:37 AM GMT
देश की आंतरिक एवं सीमावर्ती सुरक्षा चुनौतियों को देखते हुए भारत में आज एक समावेशी सैन्य शिक्षा की आवश्यकता है
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पिछले बजट में केंद्र सरकार ने देश में सौ नए सैनिक स्कूल खोलने की घोषणा की थी
डा. अजय खेमरिया। पिछले बजट में केंद्र सरकार ने देश में सौ नए सैनिक स्कूल खोलने की घोषणा की थी। इसके लिए पीपीपी यानी निजी-सरकारी भागीदारी माडल के तहत सरकार ने इस साल 22 जनवरी तक राज्य सरकारों, ट्रस्टों एवं एनजीओ से आवेदन आमंत्रित किए थे। देश भर से मात्र 230 आवेदन इस प्रक्रिया के तहत प्राप्त हुए। ध्यान देने वाला पक्ष यह है कि 13 प्रांतों एवं केंद्र शासित प्रदेशों ने इसमें कोई रुचि प्रदर्शित नहीं की है। सवाल यह है कि नए सैनिक स्कूल खोलने की योजना पर देश में इतनी कमजोर प्रतिक्रिया क्यों दर्ज की गई है? केंद्र सरकार खुद अपने संसाधनों से देश के हर जिले में सैनिक स्कूल क्यों नहीं खोल सकती है? भले ही यह कार्य चरणबद्ध तरीके से ही किया जाए। पीपीपी मोड़ का विकल्प भी बेहतर है, लेकिन यह उतना व्यावहारिक नहीं है।
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि भारत को आंतरिक एवं बाहरी सुरक्षा के लिए खतरा अन्य राष्ट्रों की तुलना में अधिक है। देश की संपत्ति की सुरक्षा तक के लिए सरकारों को सार्वजनिक अपील करनी पड़ती है। जिस तरह से राष्ट्र दशकों से आतंकवाद के दंश को भोग रहा है वह हमारे नागरिकों की संलिप्तता के बिना संभव नहीं है। संविधान सभा के सदस्य डा. हृदयनाथ कुंजरू ने 1959 में सैनिक शिक्षा को देश में अनिवार्य करने की वकालत की थी ताकि भारतीय युवा न केवल स्वस्थ्य हों, बल्कि वे देशसेवा के लिए सदैव मानसिक रूप से तैयार रहें। दुर्भाग्य यह कि स्वतंत्रता के बाद नागरिकों में देशभक्ति और अनुशासन सिखाने के मामले में सरकारें भी पूरी तरह से उदासीन रहीं। असल में संवैधानिक रूप से ही नागरिक जीवन में देशभक्ति को अनिवार्यता के धरातल पर नहीं कसा गया। इसीलिए कहीं- कहीं तो सुरक्षाबलों और सेना पर लोग खुलेआम पथराव को अपना अधिकार मानने लगे हैं। मौजूदा राजनीतिक वातावरण में भी केवल नागरिक अधिकारों एवं तुष्टीकरण की ही बातें हो रही हैैं।
हमारे संविधान का अनुच्छेद 51-ए (डी) कहता है कि प्रत्येक भारतीय नागरिक का कर्तव्य है कि वह राष्ट्र सेवा और रक्षा के लिए तत्पर रहे। सवाल यह कि क्या हम राष्ट्र रक्षा के लिए सक्षम नागरिक निर्माण की पर्याप्त व्यवस्था पिछले 75 वर्षों में विकसित कर पाए हैं? दुनिया के करीब 80 देशों के स्कूली पाठयक्रमों में सैनिक शिक्षा के अलग-अलग प्रविधान हैैं। इजरायल जैसे देशों में तो अनिवार्य सैनिक शिक्षा की व्यवस्था है, जबकि 135 करोड़ की आबादी वाले भारत में महज पांच मिलिट्री स्कूल और 33 सैनिक स्कूल ही संचालित हैैं। इन स्कूलों में केवल तीन हजार बच्चों को प्रवेश मिलता है। केंद्र सरकार ने बीते वर्ष केवल 60.51 करोड़ रुपये की राशि ही इन स्कूलों के लिए आवंटित की थी। पांच मिलिट्री स्कूलों के लिए तो यह राशि महज 6.17 करोड़ रुपये ही थी। जबकि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को केंद्र सरकार से 1001 करोड़ रुपये और जेएनयू को करीब 380 करोड़ रुपये प्राप्त हुए थे। इन दोनों विश्वविद्यालयों में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर क्या कुछ होता रहता है, यह किसी से छिपा नहीं।
सैनिक और मिलिट्री स्कूलों से निकलने वाले छात्र न केवल सेना में सेवा को प्राथमिकता देते हैैं, बल्कि अन्य मोर्चों पर भी अपनी प्रभावोत्पादक एवं जवाबदेही की छाप छोड़ते हैं। सैनिक स्कूल से निकलने वाले अधिकतर छात्र सेना को अपने करियर के तौर पर प्राथमिकता देते हैं। सैनिक स्कूल को सेना का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है। सैनिक स्कूलों ने सशस्त्र सेनाओं में अब तक 7000 से अधिक अधिकारियों की भर्ती में अपना योगदान दिया है। एक यह तथ्य भी है कि आज सेना में काबिल अफसरों की बड़ी कमी है। सैनिक स्कूलों की संख्या बढऩे से इस समस्या का दीर्घ अवधि में निराकरण संभव है। एक महत्वपूर्ण बदलाव मोदी सरकार के आने के बाद यह भी हुआ है कि अब सैनिक स्कूलों में लड़कियां भी इस साल से प्रवेश पा सकेंगी। फिलहाल सैनिक स्कूलों का समग्र संचालन सैनिक स्कूल सोसायटी के पास सुरक्षित है। निजी क्षेत्र के स्कूलों के साथ आने के बाद इनकी गुणवत्ता को कायम रखना भी चुनौती होगी। फीस और दूसरे व्यावहारिक पक्षों को लेकर सरकार को गंभीरता से सोचने होगा। यदि पीपीपी मोड़ वाले नए स्कूल पब्लिक स्कूलों की तरह ही कमाई का जरिया बन जाते हैैं तो जिस उद्देश्य के साथ यह प्रयोग अमल में लाया जा रहा है वह नाकाम हो जाएगा।
कुल मिलाकर देश की आंतरिक एवं सीमावर्ती सुरक्षा हालतों के दृष्टिगत भारत में आज एक समावेशी सैन्य शिक्षा की आवश्यकता है। इसलिए केंद्र सरकार को इस दिशा में एक प्रभावी नीति तैयार करनी चाहिए, क्योंकि नई शिक्षा नीति में भी संस्कार के साथ देशभक्ति से सराबोर शिक्षा की आवश्यकता पर जोर दिया गया है। बेहतर होगा केंद्र सरकार एक जिला-एक सैनिक स्कूल की नीति लागू करे और राज्य सरकारें भी पीपीपी मोड़ पर इस पैटर्न को अपनाएं। जिन शहरों में एक से अधिक केंद्रीय विद्यालय हैैं, उनमें से किसी एक को सैनिक स्कूल में तब्दील किया जा सकता है। एक बार केंद्र सरकार ने जवाहर नवोदय विद्यालयों को इस दिशा में मोडऩे की कोशिश की थी, लेकिन कतिपय विरोध के बाद इसे वापस ले लिया। बेहतर होता कि सरकार अच्छी तैयारी के साथ इस मामले पर फिर आगे बढ़ती। इन स्कूलों की गुणवत्ता बनी रहे, इसके लिए सैनिक स्कूल सोसायटी को पूर्ण स्वायत्तता के साथ इनके संचालन की जवाबदेही सौंपी जानी चाहिए। इन स्कूलों का एकमेव नियंत्रण भी रक्षा मंत्रालय के पास ही होना चाहिए।
(लेखक लोकनीति विशेषज्ञ हैैं)
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