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सम्पादकीय
अंतराष्ट्रीय राजनीति में लगातार हो रहे बदलावों को देखते हुए भारत की नपू-तुली राजनीति पर सबकी नजर
Gulabi Jagat
23 March 2022 8:37 AM GMT
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ओपिनियन न्यूज
डॉ. वेदप्रताप वैदिक का कॉलम:
भारतीय विदेश नीति को जैसी चुनौतियों का सामना आज करना पड़ रहा है, वैसा पिछले सात साल में कभी नहीं करना पड़ा था। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि पिछले तीन दशक से चली आ रही अंतरराष्ट्रीय राजनीति में जैसे मूलभूत बदलाव आजकल दिखाई पड़ रहे हैं, पहले कभी दिखाई नहीं पड़े। शीतयुद्ध की समाप्ति और सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका और रूस के संबंधों में अप्रतिम सुधार हुआ था।
यूरोप के नाटो राष्ट्रों के साथ रूस के व्यापारिक संबंध भी घनिष्ठ हुए थे। भारत-चीन व्यापार भी तेज गति से आगे बढ़ रहा था। अफगानिस्तान में अमेरिकापरस्त सरकारें चली आ रही थीं। लेकिन 15 अगस्त को काबुल में तालिबान का कब्जा क्या हुआ, भारत सरकार असमंजस में पड़ गई। उसके बाद यूक्रेन की समस्या ने विदेश नीति के सामने बड़ी दुविधा खड़ी कर दी। गलवान घाटी में हुई मुठभेड़ के मुद्दों पर चीन के साथ विवाद पहले ही चल रहा था। पाकिस्तान के साथ चली खटपट के बंद होने के कोई आसार नहीं दिख रहे हैं।
काबुल में ज्यों ही तालिबान का कब्जा हुआ और राष्ट्रपति अशरफ गनी भाग खड़े हुए, भारत सरकार हतप्रभ रह गई। अशरफ गनी और हामिद करजई की सरकारें काबुल में ठीक से काम कर रही थीं। उन्हें अमेरिकी समर्थन भरपूर मात्रा में मिल रहा था और भारत का सहयोग भी! लेकिन काबुल में तालिबान के काबिज होते ही भारत सरकार को समझ में नहीं आया कि वह क्या करे। वह तालिबान सरकार को मान्यता दे या न दे? जब क़तर की राजधानी दोहा में अमेरिका तालिबान से खुलेआम सौदेबाजी कर रहा है तो उनके साथ हमें कूटनीतिक खिड़की खोलने में एतराज क्यों होना चाहिए? पर भारत ने अफगानिस्तान को अब भी अपने हाल पर छोड़ रखा है।
जैसे दुनिया के अन्य देश उसकी खास परवाह नहीं कर रहे हैं, वैसे ही भारत भी हाथ पर हाथ धरे बैठा है। यही स्थिति कुछ माह और चलती रही तो अफगानिस्तान खुद तो बर्बाद हो ही जाएगा, सारे दक्षिण एशिया के लिए वह आतंक और अराजकता का गढ़ बन सकता है। पाकिस्तान खुद आर्थिक संकट और अस्थिरता के भीषण दौर से गुजर रहा है। वहां के आतंकवादियों और भारत-विरोधी तत्वों का वह आश्रयस्थल न बने, इसके लिए जरूरी है कि नई दिल्ली और काबुल के बीच सीधा संवाद और संपर्क तुरंत कायम हो।
यह जरूरी नहीं है कि हम तालिबान सरकार को मान्यता दें, लेकिन इस वक्त अफगानिस्तान को किसी भी देश का मोहरा बनने से बचाना भारत का कर्तव्य है। रूस और अमेरिका तो इस समय यूक्रेन में उलझे हुए हैं लेकिन चीन की पूरी कोशिश है कि वह पाकिस्तान की तरह अफगानिस्तान को भी अपना बगलबच्चा बना ले।
जहां तक यूक्रेन का सवाल है, उसने अमेरिका और रूस के बीच वैसा ही तनाव पैदा कर दिया है, जैसे शीतयुद्ध-काल में था। अमेरिका और नाटो देशों ने अपनी पूर्व-घोषणाओं और वायदों को ताक पर रख दिया और यूक्रेन को नाटो में शामिल करने की पेशकश कर दी। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने कई हफ्तों तक कोशिश की कि यूक्रेन साफ-साफ कहे वह नाटो में शामिल नहीं होगा और रूस के पड़ोसी देशों में दूरमारक प्रक्षेपास्त्र तैनात नहीं होंगे।
लेकिन 24 फरवरी को रूस ने यूक्रेन पर हमला बोल ही दिया तो यूक्रेन अकेला पड़ गया। यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदीमीर जेलेंस्की और यूक्रेनी जनता निर्मम रूसी हमले का डटकर मुकाबला कर रहे हैं लेकिन भारत जैसे देशों के लिए यह समस्या पैदा हो गई है कि वे क्या करें?
भारत ने न तो रूस का समर्थन किया और न ही विरोध। उसकी सबसे बड़ी चिंता यह थी कि अपने 20-22 हजार छात्रों और नागरिकों को यूक्रेन से सुरक्षित बाहर कैसे निकाले? शुरू में लगा कि सरकार समुचित चिंता नहीं दिखा पा रही है लेकिन हमारे मंत्रियों ने खुद वहां पहुंचकर जिस मुस्तैदी से काम किया, वह अत्यंत सराहनीय रहा। यूक्रेन का मामला जब भी संयुक्त राष्ट्र के मंचों पर उठा, भारत तटस्थ रहा।
उसने रूस की भर्त्सना करने वाले किसी प्रस्ताव का समर्थन नहीं किया। इसका अर्थ यह नहीं कि उसने रूसी हमले का समर्थन किया। हर बार भारत के प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री और राजदूतों ने हमले को बंद करने की आवाज लगाई। पाक प्रधानमंत्री इमरान खान ने भी भारत की स्वतंत्र नीति की तारीफ की है।
इस समय दुनिया तीन खेमों में बंट गई है। एक, अमेरिका-समर्थक, दूसरा रूस समर्थक और तीसरा तटस्थ या जैसे पहले हुआ करता था- गुटनिरपेक्ष! यदि भारत रूस की भर्त्सना कर देता तो क्या उसकी वजह से रूस अपना हमला बंद कर देता? भारत के अमेरिका, रूस और यूक्रेन तीनों देशों से उत्तम संबंध हैं। यूक्रेन-संकट पर भारत की तटस्थता उसे विश्व राजनीति में महंगी पड़ सकती है। तटस्थता का अर्थ निष्क्रियता नहीं हाे सकता है।
क्या वजह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति यूक्रेन के सवाल पर चीनी राष्ट्रपति से तो बात कर रहे हैं, जबकि भारत की कोई गिनती ही नहीं है। यह ठीक है कि चौगुटे (क्वाड), आस्ट्रेलिया और जापान से बातचीत में भारत ने बड़ी सावधानी बरती है लेकिन इस तटस्थतापूर्ण सावधानी के साथ-साथ वह यूक्रेन पर रूसी हमले को रुकवाने का अब भी प्रयत्न करे तो विश्व राजनीति में उसका अनुपम स्थान बन सकता है।
अपने हितों की रक्षा या जबानी जमाखर्च?
भारत के अमेरिका से सामरिक और व्यापारिक संबंध हैं लेकिन 60% शस्त्रास्त्रों के लिए वह रूस पर निर्भर है। कश्मीर के सवाल पर रूस ने कई बार भारत के पक्ष में वीटो किया है और 1971 के युद्ध के समय भारत का साथ भी दिया था। आज भी रूस अपना तेल भारत को सस्ते में बेचने को तैयार है। भारत के सामने यही सवाल है कि वह अपने हितों की रक्षा करे या कोरा जबानी जमाखर्च करे?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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