सम्पादकीय

हिंदू धर्म को बचाने की कोशिश में हमें दूसरे महजबों की खराब प्रथाओं को नहीं अपनाना चाहिए

Gulabi Jagat
30 March 2022 9:03 AM GMT
हिंदू धर्म को बचाने की कोशिश में हमें दूसरे महजबों की खराब प्रथाओं को नहीं अपनाना चाहिए
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मैंने इस पोर्टल में केरल के एक मंदिर के बारे में एक रिपोर्ट पढ़ी
सुतानु गुरू।
मैंने इस पोर्टल में केरल (Kerala) के एक मंदिर के बारे में एक रिपोर्ट पढ़ी. जिसके मुताबिक एक गैर-हिंदू कलाकार वी.पी. मनसिया (V P Mansiya) को आगामी सालाना उत्सव के दौरान भरतनाट्यम करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया गया था. इस रिपोर्ट के साथ ही मेरे दिलो-दिमाग में एक ताजा और एक पुरानी याद कौंध गई. पुरानी याद साल 1984 की है. उस समय भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) को पुरी के जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया था क्योंकि उनकी शादी एक पारसी से हुई थी. इस घटना के बाद काफी हंगामा मचा था. लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या और उसके बाद दिल्ली में सिखों के नरसंहार जैसी दुखद घटनाओं के तले वह विवाद दब कर रह गया.
बहरहाल हाल की एक घटना से मैं काफी चिंतित था. कर्नाटक से खबरें आईं कि मंदिरों के आस पास मुस्लिम व्यापारियों को स्टॉल लगाने की अनुमति नहीं दी जाएगी. मुझे पता है कि "हिजाब" विवाद पर राज्य में बढ़ते ध्रुवीकरण के लिए पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया और बजरंग दल दोनों समान रूप से दोषी हैं. लेकिन हिन्दू मान्यताओं में विश्वास रखने वाले एक हिंन्दू होने की वजह से मैं काफी चिंचित हो जाता हूं जब मैं देखता हूं कि ज्यादातर हिन्दू कठोर धार्मिक रूख़ अपनाने लगे हैं.
आप किस तरह का हिंदू धर्म बनाने की कोशिश कर रहे हैं
सवाल ये है कि आखिर इन हिंदुओं को किसने ये लाइसेंस दी है कि वे हिन्दू धर्म की प्रकृति और प्रक्रिया को बदलना शुरू कर दें. हिन्दू धर्म तो उन दिनों भी उनमुक्त और समावेशी थी जब इब्राहिम धर्मों के उपदेशक काफिरों के लिए जहन्नुम और कठोर सजा का प्रचार किया करते थे. मैं उन लोगों के खिलाफ हिंदुओं के गुस्से को समझ सकता हूं जिन्होंने हिंदू धर्म की लगभग सभी धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं की आलोचना, मजाक और अपशब्द निकालने की आदत बना ली है.
आखिर हमारा कौन सा मकसद पूरा होता है अगर हम उनकी तरह मूर्खतापूर्ण और अहंकारी व्यवहार करने लगते हैं. आप किस तरह का हिंदू धर्म बनाने की कोशिश कर रहे हैं. मेरे लिए तो सनातन धर्म हमेशा से ही अन्य सभी प्रथाओं और विश्वासों का सम्मान करता रहा है, भले ही आप उनसे सहमत हों या न हों. यह एक क्रूर दुविधा जैसा लगता है जिसका सामना मेरे जैसे कई हिंदू करते रहते हैं. धर्मनिरपेक्ष भारतीय बुद्धिजीवियों के प्रति मेरी खुली आलोचना को लेकर मुझे अक्सर "संघी" कहा जाता है. लेकिन मैं इससे कभी भी परेशान नहीं हुआ क्योंकि मैं अपने विश्वास और मान्यताओं को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हूं. मिसाल के तौर पर मैं व्यक्तिगत रूप से क्रूर गोहत्या और गोमांस खाने के पक्ष में नहीं हूं. बावजूद इसके, मैं वास्तव में गोमांस खाने के इच्छुक किसी भी व्यक्ति के विश्वास और अधिकारों का सम्मान करता हूं. यह उसकी पसंद है और मेरे पास उसकी पसंद को लेकर शिकायत करने का कोई कारण भी नहीं बनता है. हमारा हिंदू धर्म इसी तरह का रहा है और मैं इसी में सहज भी हूं.
इसलिए मैं उन "हिंदुओं" से बहुत निराश हूं जो यह फैसला सुनाते हैं कि गोमांस खाना "पाप" है और जो खाए उसे दंडित किया जाना चाहिए. गोमांस को भूल जाएं. मैंने व्यक्तिगत रूप से देखा है कि कैसे हिन्दुओं की इस नई नस्ल ने नवरात्रि के दौरान गुड़गांव और नोएडा में मछली और मांस की दुकानों को जबरदस्ती बंद करवाया है. मेरा कहना है कि अगर आप चाहें तो नौ दिनों के लिए शुद्ध शाकाहारी बन जाएं. आप चाहें तो व्रत-उपवास भी रख लें. लेकिन ये किस किस्म का नया हिंदू धर्म है जो आपको ये सिखाता है कि किसी त्योहार के दौरान दूसरों को मांस बेचने या खाने की इजाजत न दें? क्या आप यह जानते हैं कि बंगाल में शक्ति या शाक्त परंपरा के "कट्टर" हिंदू अपने पूजा को मांसाहारी भोजन के साथ मनाते हैं?
70 फीसदी भारतीय किसी न किसी रूप में मछली और मांस खाते हैं
मैं दूसरों के संवैधानिक अधिकारों के बारे में भी बात नहीं कर रहा हूं कि वे जो चाहें सो कर सकते हैं अगर किसी मानव जीवन को वे खतरे में न डाल रहे हों. संविधान महज 72 साल पुराना है. मैं सनातन धर्म की उस गौरवशाली विरासत की बात कर रहा हूं जो 5,000 से भी अधिक वर्षों से वजूद में है. जातिवाद की क्रूर प्रथा को छोड़कर (मैं इस बात का विशेषज्ञ नहीं हूं कि यह कब और कैसे हिंदू समाज में इतनी गहराई से समा गई), हिंदू धर्म ने हमेशा "दूसरों" का स्वागत किया है. हिन्दू धर्म को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दूसरों के विश्वास और व्यवहार क्या हैं.
अद्भुत पारसी समुदाय आज वजूद में ही नहीं होता अगर भारत ने उन्हें घर और चूल्हा नहीं दिया होता. गौरतलब है कि पारसियों के खिलाफ फारस में काफी अत्याचार हुए और उन्हें वहाँ से भागना पड़ा था. असहिष्णु हिंदुओं की इस नई नस्ल में से कई मुझसे पूछते हैं , लेकिन दूसरे धर्मों के बारे में क्या? तालिबान के बारे में क्या? मक्का के बारे में क्या जहां गैर-मुसलमानों को अनुमति नहीं दी जाती है? रोमन कैथोलिकों द्वारा महिला पादरियों को अनुमति नहीं देने के बारे में क्या? इन लोगों के सवाल के एवज में मेरा एक ही जवाब होता है: उसके बारे में क्या? और अधिक अच्छे तरीके से समझाते हुए उनसे पूछता हूं — क्या आप "हिंदू धर्म को बचाने की कोशिश " में अन्य धर्मों की खराब प्रथाओं को आत्मसात करना चाहते हैं?
19वीं शताब्दी में जब मार्क ट्वेन ने वाराणसी का दौरा किया तो वे हिंदू धर्म के अनुयायियों की आध्यात्मिकता देख मंत्रमुग्ध हो गए थे. लेकिन मुझे नहीं लगता कि वे इस नए जमाने के हिंदू के प्रशंसक होते, जो मूल हिंदू धर्म की जादुई विविधता का जश्न मनाने के बजाय प्रतिबंध लगाने, रद्द करने और ध्वस्त करने के लिए ज्यादा उत्सुक है. इस तरह तो आप ए आर रहमान पर प्रतिबंध लगा देंगे क्योंकि वे एक हिंदू पैदा हुए थे और बाद में इस्लाम धर्म अपना लिया था. अपने पागलपन के पीछे आप भागते रहो. मैं तो आत्मा को झकझोर देने वाले फिल्म "बैजू बावरा" के उस भजन का आनंद उठाता रहूंगा जिसे मोहम्मद रफी ने गाया था और उसके शब्द नौशाद ने दिए थे. मैं अपने हिंदू धर्म से खुश हूं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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