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- शहीदों के गांव में :...
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सभी भाइयों के साथ उनकी एक तस्वीर मेरे झोले में रखी है, जो बसंत बाबू ने मुझे भेंट की थी। यह बड़ी धरोहर है मेरे लिए।
फतेहगढ़ की कुटरा कॉलोनी से पछांह की तरफ पैदल चलते आखिर हम केंद्रीय कारागार के परिसर में पहुंच ही गए, जहां 1985 में दुर्गा भाभी की कोशिशों से शहीद मणींद्र बनर्जी की प्रतिमा लगा दी गई थी। मणींद्र की शहादत 20 जून, 1934 को इसी जेल के भीतर अनशन से हुई, जिसका पूरा ब्योरा हमें मन्मथनाथ गुप्त की डायरी में मिलता है। मणींद्र बनारस के थे, जहां क्रांतिकारी दल से उनका जुड़ाव हो गया। काकोरी के मामले में जब 17 दिसंबर, 1927 को गोंडा जेल में राजेंद्रनाथ लाहिड़ी फांसी पर चढ़े, तब मणींद्र बहुत बेचैन हो उठे।
वह जानते थे कि लाहिड़ी को यह सजा दिलवाने में खुफिया विभाग के जितेंद्र बनर्जी का बड़ा हाथ था, जिसे बाद में 'रायबहादुरी' मिली। मणींद्र ने इसका बदला लेने का फैसला किया। 13 जनवरी, 1928 को जितेंद्र बनर्जी बनारस में जब कालीतल्ला काली मां के दर्शन कर पैदल ही गोदौलिया स्थित मारवाड़ी अस्पताल से आगे मठ की तरफ पहुंचे, तो मणींद्र ने यह कहकर उस पर गोली चला दी कि, 'राजेंद्र लाहिड़ी की फांसी का पुरस्कार यह लो।' मणींद्र भागे, पर फिर वह लौटकर आए और बोले, 'काकोरी का इनाम मिल गया तुम्हें?'
यह सुन घायल जितेंद्र चिल्लाए और मणींद्र पकड़ लिए गए। उन्हें दस साल की सजा मिली। वह फतेहगढ़ जेल लाए गए, जहां मन्मथनाथ गुप्त कैद थे। मणींद्र ने जेल में दीर्घ अनशन किया, जिसमें वह शहीद हो गए। साम्राज्यवादी हुकूमत के विरुद्ध जेल के भीतर उनकी यह लड़ाई उसी ढंग की थी, जैसा करते हुए यतींद्रनाथ दास लाहौर में अपना अप्रतिम बलिदान दे चुके थे। मणींद्र की शहादत का महत्व यह भी है कि काकोरी की फांसियों के बाद जब भगवतीचरण वोहरा रावी तट पर, चंद्रशेखर आजाद इलाहाबाद में सन्मुख युद्ध में तथा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव लाहौर में मृत्युदंड पाकर क्रांतिकारी संग्राम को जटिल स्थितियों में छोड़ गए, तब मणींद्र के आत्मोत्सर्ग ने वह शून्य भरने में महती भूमिका अदा की।
यह सुन घायल जितेंद्र चिल्लाए और मणींद्र पकड़ लिए गए। उन्हें दस साल की सजा मिली। वह फतेहगढ़ जेल लाए गए, जहां मन्मथनाथ गुप्त कैद थे। मणींद्र ने जेल में दीर्घ अनशन किया, जिसमें वह शहीद हो गए। साम्राज्यवादी हुकूमत के विरुद्ध जेल के भीतर उनकी यह लड़ाई उसी ढंग की थी, जैसा करते हुए यतींद्रनाथ दास लाहौर में अपना अप्रतिम बलिदान दे चुके थे। मणींद्र की शहादत का महत्व यह भी है कि काकोरी की फांसियों के बाद जब भगवतीचरण वोहरा रावी तट पर, चंद्रशेखर आजाद इलाहाबाद में सन्मुख युद्ध में तथा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव लाहौर में मृत्युदंड पाकर क्रांतिकारी संग्राम को जटिल स्थितियों में छोड़ गए, तब मणींद्र के आत्मोत्सर्ग ने वह शून्य भरने में महती भूमिका अदा की।
फतेहगढ़ जेल के भीतर उन्होंने अंतिम सांस मन्मथनाथ की गोद में ली और मरते समय कहा, 'ईश्वर कहीं नहीं है।' हम उस रोज फतेहगढ़ केंद्रीय जेल के दरवाजे पर थे, जब मणींद्र के भाई बसंत बनर्जी ने रुद्रपुर से, वीरभद्र शूटिंग केस के रमेश चंद्र गुप्त ने कानपुर से और कन्नौज से क्रांतिकारी अनंतराम श्रीवास्तव ने यहां आकर श्रद्धांजलि अर्पित की। उस रोज हमारी सबसे बड़ी चिंता थी कि बनारस में पांडेय घाट स्थित मणींद्र का घर अब उजाड़ होकर नशेड़ियों के अड्डे में तब्दील हो चुका है, जिसे बचाया जाना जरूरी है।
कभी क्रांतिकारियों का केंद्र रहा यह स्थल क्या मणींद्र के स्मारक के रूप में गौरवान्वित नहीं हो सकता? हम जेल के भीतर मणींद्र की बैरक की शिनाख्त करना चाहते थे, जो संभव नहीं हुआ। मन्मथनाथ होते, तो वह उसकी निशानदेही कर सकते थे। जेल में मणींद्र की कोई तस्वीर नहीं है। मुझे मणींद्र के भाई मोहित बाबू की याद आती है, जिनसे 1981 में आजाद की बलिदान अर्धशताब्दी पर इलाहाबाद में भेंट हुई थी। मणींद्र के पांचों भाई क्रांतिकारी थे। उनकी मां सुनयना भी विप्लवी संस्कारों में रची-पगी थीं।
मणींद्र जब जेल में बीमार पड़े, तब घर में खबर नहीं दी गई। मरने के बाद चुपचाप जेल से निकालकर गंगा तट पर उनकी देह को भस्म कर दिया गया। पता नहीं, मां सुनयना ने कहां बैठकर अपने बेटे के मृत्यु-पथ पर चले जाने का समाचार सुना होगा। मैं नहीं जानता कि इस शहीद की जननी को इतिहास किस तरह याद करेगा या वह उन्हें भी बिस्मिल, अशफाक और विजय कुमार सिन्हा की मांओं की तरह विस्मृत कर देगा, जिनके नाम के हरूफ भी अब मिट चुके हैं! शाम धुंधलाने लगी है और मैं फतेहगढ़ में गंगा की लहरों से मणींद्र का अता-पता पूछता हूं।
कभी जलधारा के एकदम निकट, तो कभी खामोश किनारों को दूर तक निहारती मेरी आंखों में मणींद्र की चिता का दृश्य कौंधता है। कौन जाने, तब से भागीरथी में कितना पानी बह चुका, और शहीद की अस्थियां भी दूर सागर में जाकर न जाने कहां विलीन हो गईं। मेरी बेचैनी का सबब यह भी है कि मणींद्र के मुकदमे के समय इस अजेय क्रांतिकारी की मां ने किसी से चंदा लेना स्वीकार नहीं किया। बोली थीं, 'मेरे पास साधन हैं, तो क्यों लूं?' वह अपनी निजी संपत्ति बेचकर केस की पैरवी करती रहीं।
ब्रिटिश सरकार के भय से मणींद्र के सभी भाई घर से हट गए थे। प्रभाष बाबू गांधी आश्रम, मेरठ में अन्य भाइयों के साथ रहने लग गए। वहीं 1932 में भूपेंद्रनाथ बनर्जी ने सत्याग्रह किया। बीमार हुए। छूटे। पर 1933 में उनका देहावसान हो गया। मां इस बेटे को भी नहीं देख पाईं। उन्हें क्या पता था कि एक वर्ष बाद मणींद्र भी शहीदों की टोली में जा मिलेंगे। मणी का चेहरा उन्होंने मन्मथ में देखा। 1937 में सजा काट मन्मथ जब जेल से बाहर आए, तब उन्होंने उन्हें आश्रय दिया था।
कितने उत्साह से वह अपने अन्य पुत्रों के साथ उन्हें देखती-पोसती रहीं और न जाने क्या-क्या सहेजते-झेलते 13 फरवरी, 1962 को हमसे विदा हो गईं। मणींद्र का पूरा परिवार क्रांतिकारी विचारों का था। पिता ताराचरण बाबू होम्योपैथिक चिकित्सक थे। मां सुनयना कलकत्ता की थीं, सो अपने साथ बंगाल के विद्रोही संस्कार लेकर आईं। आठ संतानों में मणींद्र तीसरे थे। फतेहगढ़ की जमीन पर आकर मेरे सामने मां सुनयना का चेहरा कुछ अधिक ही सामने आने लगता है। मणींद्र को छोड़ दूसरे सभी भाइयों के साथ उनकी एक तस्वीर मेरे झोले में रखी है, जो बसंत बाबू ने मुझे भेंट की थी। यह बड़ी धरोहर है मेरे लिए।
सोर्स: अमर उजाला
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