सम्पादकीय

भय और भूख के अभागे वक्त में

Rani Sahu
29 Aug 2022 5:16 PM GMT
भय और भूख के अभागे वक्त में
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रूस और यूक्रेन की दुर्भाग्यपूर्ण जंग सातवें महीने में प्रवेश कर गई है। इस दौरान यूक्रेनी नागरिकों को जिस कत्लोगारत और अपमान के दौर से गुजरना पड़ा, उसे 21वीं शताब्दी के स्थायी कलंक के तौर पर दर्ज किया जाएगा। इस युद्ध ने यह मुगालता भी तोड़ दिया है कि अमेरिका और उसके सरपरस्त देश मानवता, मानवीय मूल्यों और निर्धनता-उन्मूलन के लिए प्रतिबद्ध हैं। वे बौने और स्वार्थी साबित हुए हैं।
क्या आप जानते हैं कि अमेरिका ने जब इराक पर हमला बोला था, तब उसका लगभग 80 फीसदी खर्च पड़ोसी अरब मुल्कों के साथ जर्मनी और जापान ने चुकाया था। सिर्फ बीस प्रतिशत का खर्च और सौ फीसदी दादागीरी! महाशक्तियां इसी तरह चौतरफा फायदा उठाती आई हैं, पर ऐसे नुस्खे कभी-कभी खुद उनके लिए शर्मिंदगी का कारण बन जाते हैं। अफगानिस्तान में रूस और अमेरिका ने बारी-बारी लगभग तीन दशक तक जोर लगाया, पर दोनों हार गए। जिस तालिबान को रोकने के लिए इतना खून-खराबा मचाया गया, वे फिर काबुल की सत्ता पर काबिज हैं। अमेरिकी रणनीतिकार भले कहते रहें कि तालिबान बदल गए हैं, पर जिस तरह अल-जवाहिरी काबुल के पॉश इलाके में महीनों से रह रहा था, उसकी भनक तक तालिबान को न थी, ऐसा कैसे हो सकता है?
रूस और यूक्रेन युद्ध पर लौटते हैं।
इस जंग ने इंसानियत के सामने तीसरे विश्व युद्ध के खतरे के साथ कुछ नई आशंकाएं भी रोप दी हैं। चीन और रूस की युगलबंदी को अगर बड़ी लड़ाइयां लड़ने से रोक भी दिया जाए, तब भी नए साम्राज्यवाद का खतरा पैदा हो गया है। संसार का सर्वाधिक शक्तिशाली देश अमेरिका, लातिन अमेरिकी देशों के साथ हमेशा छल-बल-कपट करता आया है। उसके परम विरोधी स्टालिन ने भी पोलैंड, हंगरी और चेकोस्लोवाकिया में टैंक भेजे थे। आज साम्राज्यवादी चीन ताइवान के साथ वैसी ही हरकत कर रहा है। भारत की सीमाओं को उसने पहले से अशांत कर रखा है। कल ऐसे अतिक्रमण अन्यत्र नहीं होंगे, इसकी भला क्या गारंटी? कूटनीतिज्ञ मानते हैं, महाशक्तियां सबसे पहले अपने पड़ोस पर दबाव बनाती हैं। तय है, इन विकट हालात में महाशक्तियां अगर तीसरे विश्व युद्ध से खुद को बचा ले जाती हैं, तब भी शीत युद्ध 2.0 हमारे दरवाजे खटखटा रहा है।
ये अपशकुन यहीं समाप्त नहीं होते।
दुर्भाग्यवश, सन 2022 को भुखमरी के लिए भी इंसानी इतिहास के सर्वाधिक त्रासद वर्षों में जाना जाएगा। युद्ध शुरू होने से पहले ही समूचे संसार में करीब 83 करोड़ लोग हर रात बिना संपूर्ण आहार ग्रहण किए सोने के लिए अभिशप्त थे। लगभग 31 लाख बच्चे कुपोषण की वजह से हर साल दम तोड़ दिया करते थे। इन वजहों से जलावतनी, मानव तस्करी और आतंकवाद पनप रहे थे, लेकिन छह महीने पुरानी इस जंग ने भूख से लड़ाई को और दुरूह बना दिया है। वजह? यूक्रेन दुनिया को होने वाले कुल निर्यात का 10 फीसदी गेहूं उपजाता है। सूरजमुखी के तेल और उसके बीजों के मामले में भी उसकी हिस्सेदारी 46 प्रतिशत है। इसी तरह, रूस भी कृषि उत्पादों का बड़ा निर्यातक है। रूस के किसान गेहूं-आपूर्ति के मामले में संसार में करीब 19 फीसदी की हिस्सेदारी रखते हैं। ये आंकडे़ बदहाली की सिहरा देने वाली तस्वीर पेश करते हैं।
हालांकि, गुजरी 22 जुलाई को संयुक्त राष्ट्र की अगुवाई में एक समझौता हुआ। इसके तहत 4 अगस्त से खाद्यान्न निर्यात शुरू भी हो चुका है, पर इसे हस्ब-ए-मामूल होने में वक्त लगेगा। यहां एक और सवाल उठता है कि युद्ध और व्यापार भला एक साथ कैसे चल सकते हैं? रूस भला क्यों चाहेगा कि यूक्रेन को कहीं से कुछ भी धन हासिल हो, क्योंकि इस धनराशि का इस्तेमाल तो उसी के खिलाफ होना है? ऐसे में, कल्पना कीजिए, अगर चीन ताइवान पर आक्रमण कर दे और उसके ऊपर भी रूस जैसी बंदिशें थोप दी जाएं, तब क्या होगा?
अपनी विशाल आबादी का पेट भरने के बावजूद चीन 1.66 फीसदी खाद्यान्न दुनिया को निर्यात करता है। यह आशंका तब और विकराल हो जाती है, जब हम धरती के मौजूदा हालात पर नजर डालते हैं। श्रीलंका, यमन, मिस्र सहित तमाम अफ्रो-एशियाई मुल्कों में हालात पहले से बदतर हैं। यमन में डेढ़ करोड़ से अधिक लोग भुखमरी के कगार पर पहुंच गए हैं। इस विभीषिका को दूर करने का जिम्मा पश्चिम के उन देशों का था, जिन्होंने 1991 के बाद से अपनी महाकाय कंपनियों के जरिये गरीब-गुरबा देशों में पैर पसारे थे। उनका दावा था कि हमारा मॉडल गरीबी दूर करने के लिए सर्वोत्कृष्ट है। कोरोना और इस जंग ने उन्हें फुसफुसा साबित कर दिया है। आप भूले नहीं होंगे। जब संसार के गरीब और अपेक्षाकृत कम गरीब देशों के लोग महामारी के एक टीके से वंचित थे, इनमें से अधिकांश ने अपने हर नागरिक के लिए चार से छह टीकों तक की घातक जमाखोरी कर रखी थी।
अब भारत की बात।
कृषि उत्पादों के मामले में हम न केवल आत्मनिर्भर हैं, बल्कि संसार के खाद्य निर्यात में भारतीय कृषकों का लगभग दो फीसदी योगदान है। दुर्भाग्यवश, इस बार देश के सात राज्य भयानक सूखे की चपेट में हैं। प्रकृति ने कुछ ऐसा प्रकोप दिखाया है कि कुछ स्थानों पर इतना ज्यादा पानी बरसा कि फसलों के लिए हानिकारक साबित हो गया, वहीं बड़ा भू-भाग आसमानी बारिश के अभाव से ग्रस्त है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ हमारे देश की ऐसी दुर्गति है। यूरोप में पांच शताब्दियों का सबसे भयंकर सूखा पड़ा है। विश्व की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं- अमेरिका और चीन- में भी हालात कुछ जुदा नहीं हैं। अमेरिकी कृषि-विज्ञानियों का अनुमान है कि कपास की कुल फसल का 40 प्रतिशत हिस्सा सूखे के कारण बरबाद हो चला है। चीन के भी छह प्रांत भयंकर सूखे की चपेट में हैं। वहां बहने वाली दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी नदी यांग्जी सूख गई है। यूरोप की राइन और डेन्यूब में भी पर्याप्त पानी नहीं है। अमेरिका के तमाम प्राकृतिक जलाशयों से जल गायब है। ऐसा 'ला नीना' की वजह से हो रहा है। 'नेशनल सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक रिसर्च' के अनुसार, बेहद गरम वातावरण भूमि से अधिक नमी को सोख लेता है, जिससे सूखे का खतरा बढ़ जाता है। 'ला नीना' आम तौर पर नौ से 12 महीने तक रहता है, लेकिन इस बार यह एक साल बीतने के बावजूद अपना प्रकोप दिखा रहा है। ऐसे में, भुखमरी और बढ़ने की आशंकाओं से इनकार नहीं किया जा सकता।
इन कठोर हालात से निपटने के लिए दुनिया को सहयोग, साहचर्य और संपूर्ण एकजुटता की जरूरत है, जबकि हो इसका उल्टा रहा है। हर ओर उमड़ते युद्ध के काले बादल हमें सोचने पर बाध्य करते हैं कि विश्व बंधुत्व और 'ग्लोबल विलेज' क्या सिर्फ सियासी प्रपंच थे?
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