सम्पादकीय

आस्था के नाम पर

Subhi
14 Sep 2022 6:15 AM GMT
आस्था के नाम पर
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पूजा-पाठ देवी-देवताओं के प्रति आस्था का प्रगटीकरण है। पर जब यह प्रगटीकरण बेहद हल्के स्तर का बन जाए और उसमें भी प्रतिस्पर्धा होने लगे, तब फिर इसे आस्था का विकृतीकरण ही कहा जाना चाहिए।

दीपकुमार शुक्ल: पूजा-पाठ देवी-देवताओं के प्रति आस्था का प्रगटीकरण है। पर जब यह प्रगटीकरण बेहद हल्के स्तर का बन जाए और उसमें भी प्रतिस्पर्धा होने लगे, तब फिर इसे आस्था का विकृतीकरण ही कहा जाना चाहिए। भारतीय संस्कृति के धार्मिक ग्रंथों में पेड़-पौधों से लेकर नदी-तालाबों तक में देवत्व की परिकल्पना करके पर्यावरण संरक्षण का जो आस्थाजनित संदेश दिया गया है, उसका अनुपालन हजारों वर्षों तक होता रहा और समाज प्रकृति के मूल स्वरूप को संरक्षित करने में सफल रहा।

सृष्टि की उत्पत्ति, पोषण और संहार के कारण के रूप में ईश्वर की प्रतिष्ठा और फिर उससे जुड़ने के लिए आस्था को आधार बनाया गया। इसके लिए एकान्त में ध्यान, मनन या चिंतन पर बल दिया गया। शायद यही योगाभ्यास और तपस्या की निष्पत्ति का आधार बना। योग का अर्थ ही जोड़ना है। खुद को प्रकृति से जोड़ना योग है। शरीर की सजीवता का कारण आत्म तत्त्व को बताया जाता है। यह आत्म तत्त्व भी विकार रहित यानी निर्मल माना गया।

लेकिन मन में अगर प्रतिस्पर्धा का भाव आ जाए, प्रदर्शन या दिखावे का मोह आ जाए, कर्तापन का अहंकार आ जाए, प्रशंसा पाने का लोभ जागृत हो जाए, तब फिर मन को निर्मल कैसे कहा जा सकता है! कहा भी गया है कि परहित के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को पीड़ा देने से बड़ा कोई पाप नहीं है। तब फिर जिस अनुष्ठान से जन सामान्य को पीड़ा या परेशानी मिले, उसे धार्मिक क्रिया-कलाप की संज्ञा क्यों और कैसे दी जा सकती है।

हाल ही में कई त्योहार और महोत्सव सम्पन्न हुए, अनुष्ठान आयोजित किए गए। कुछ हफ्ते बाद कई अन्य त्योहार और पूजा के उत्सव आने वाले हैं। वर्ष भर किसी न किसी रूप में चलने वाले ऐसे अनेक आयोजन लगभग हर गली-मुहल्ले में होने लगे हैं। जगह-जगह रास्ता बंद करके लगाए गए पंडालों में कर्णभेदी स्वरों में बजने वाले लाउडस्पीकरों से सामान्य जन-जीवन पूरी तरह अस्त-व्यस्त दिखाई देने लगता है। रोगियों को समस्या, बच्चों को पढ़ाई में समस्या तथा फेरी लगाकर व्यापार करने वालों को समस्या।

आयोजन समाप्ति के बाद मूर्ति-विसर्जन के नाम पर बड़े-बड़े जुलूस निकालने की भी परंपरा बन गई है। इसके कारण लगने वाले जाम से आम आदमी की रोजमर्रा की जिंदगी प्रभावित होना स्वाभाविक है। कोई अस्पताल जा रहा है, किसी को ट्रेन पकड़नी है तो कोई अति आवश्यक काम से निकला है। लेकिन घंटों जाम में फंस कर सभी हलकान नजर आते हैं।

कहा जाता है कि धर्म समस्या का समाधान देता है। लेकिन यहां तो धार्मिक अनुष्ठान ही समस्या बन रहे हैं। इन अनुष्ठानों के दौरान कई बार भद्दे गीत बजाए जाते हैं और उन पर होने वाले नृत्य आदि के कार्यक्रम सांस्कृतिक ह्रास की भी पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं। मूर्ति विसर्जन से नदियों और सरोवरों का जल लगातार प्रदूषित हो रहा है, लाउडस्पीकरों का शोर ध्वनि प्रदूषण फैला रहा है। लेकिन कोई कुछ भी समझने के लिए तैयार नहीं है।

धार्मिक आस्था जब उन्माद का रूप ले लेती है, तब उस पर अंकुश लगा पाना असंभव तो नहीं, पर मुश्किल अवश्य होता है। ऐसा सिर्फ किसी एक धर्म को मानने वाले समाज में नहीं है। अन्य धर्म या मत में आस्था रखने वाले लोग भी सड़कों पर धार्मिक अनुष्ठान करने की होड़ में पीछे नहीं है। यह प्रतिस्पर्धा कई बार सांप्रदायिक संघर्ष का भी कारण बन जाती है, जिससे देश की एकता और अखंडता का प्रभावित होना स्वाभाविक है।

कई बार तो ऐसा लगता है जैसे देश में धार्मिक अनुष्ठानों की बाढ़-सी आ गई है। लेकिन विद्रूप यह भी है कि लगभग हर संप्रदाय या धर्म के अनुयायी अपने ही धर्म की शिक्षाओं का अतिक्रमण करते हुए दिखाई देते हैं। एक तरफ कहा जाता है कि देवी-देवता भाव के भूखे होते हैं और तभी प्रसन्न होते हैं जब मन से उनकी प्रार्थना की जाती है। मन से की गई उसी प्रार्थना को उत्तम या सर्वाधिक फलदायी बताया गया है, जिसमें व्यक्ति के मुंह से इतना धीमा स्वर निकले कि उसके अपने कान भी न सुन पाएं। लेकिन यहां तो लाउडस्पीकर से प्रार्थनाएं और गीत बजाए जाते हैं।

पूजा-पाठ हर व्यक्ति का व्यक्तिगत विषय है। पर यज्ञ-अनुष्ठान जैसे कार्यक्रम वातावरण की शुद्धता के कारक माने गए हैं, जिन्हें सार्वजनिक सहयोग से ही सम्पन्न किया जा सकता है। पर दूसरे को परेशानी में डालकर मनमाने ढंग से ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। बहुभाषी और बहु-संप्रदाय वाले देश भारत के संविधान ने हर व्यक्ति को अपने संप्रदाय के अनुसार पूजा-पाठ करने और जीवन जीने का अधिकार दिया है। पर इस अधिकार की आड़ में जन सामान्य के लिए परेशानियां खड़ी करना न तो संविधानसम्मत है और न ही कोई धर्म या संप्रदाय इसकी इजाजत देता है। इसलिए आवश्यक है कि धार्मिक अनुष्ठानों के आयोजन के लिए एक स्पष्ट नीति बने।


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