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यूक्रेन युद्ध के बाद तय है कि दुनिया एक बार फिर बहुध्रुवीय महाशक्तियों के लंबे शीतयुद्ध की ओर बढ़ रही
फैसल अनुराग .
यूक्रेन युद्ध के बाद तय है कि दुनिया एक बार फिर बहुध्रुवीय महाशक्तियों के लंबे शीतयुद्ध की ओर बढ़ रही है. व्लादीमिर ज़ेलेंस्की के निराशा भरे इस कथन का सार तो यही है कि आज यूक्रेन को अकेला छोड़ दिया गया है. दूसरे महायुद्ध के बाद के शीतयुद्ध की तुलना में यह ध्रुवीकरण बहुत अलग है. 1950 से लेकर 1990 तक समाजवाद बनाम पूंजीवादी देशों के बीच के संबंधों को शीतयुद्ध के बतौर याद किया जाता है. लेकिन इस समय जिस तरह की दुनिया उभर रही है, उसमें चीन को छोड़कर शेष सभी महाशक्तियों के आर्थिक संबंध और नीतियां एक जैसी हैं. चीन इस अर्थ में भिन्न है कि वहां एक कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता है, जो पूंजीवादी नीतियों को अपनाने के बाद भी उसे नियंत्रित करने के लिए राज्य का इस्तेमाल करती है.
चीन में किसी व्यक्ति या घरानों की पूंजीसत्ता स्वतंत्र नहीं है, बल्कि उसे चीनी लोकगणराज्य के नियंत्रण में कार्य करना होता है. बावजूद इसके चीन दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति के बतौर तेजी से उभर रहा है. अमेरिका सहित तमाम पश्चिमी देशों के लिए यह चिंता का सबब है. इस युद्ध के बाद रूस चीन के साथ जिस तरह के संबंध उभर रहे हैं, उससे दोनों के सहयोग के रिश्ते मजबूत होंगे. इसके साथ ही रूस और चीन इस समय तेजी से लैटिन अमेरिका के समाजवादी रूझान वाली पूंजीवाद विरोधी सरकारों का सहयोग हासिल कर सकती हैं. खासकर क्यूबा,बेनूजुएला और बोलेविया. भारत किसी पक्ष में नहीं जाएगा, क्योंकि उसके अमेरिका और रूस दोनों से संबंध बेहतर है. पाकिस्तान तो संकेत दे रहा है कि उसे चीन और रूस की नजदीकी की जरूरत है. ठीक युद्ध के समय दो देशों के प्रमुख क्रेमलिन गए, इसमें एक पाकिस्तान के हैं और मध्य एशिया के अजरबैजान के.
इसी तरह कुछ इस्लामी देशों सीरिया हो या फिर फिलस्तीन या फिर तुर्की, जो इस्मामी देश बनने की राह पर है, के रूख को लेकर भी अनुमान लगाए जा सकते हैं. 1950 के बाद दुनिया दो खेमों में जरूर बंटी थी, लेकिन गुटनिरपेक्ष देशों का स्वतंत्र गठबंधन भी था, जो अनेक मामलों में संतुलन बनाने में भूमिका निभाते थे. इसमें भारत,मिश्र,क्यूबा की बड़ी भूमिका थी. हालांकि ज्यादा तरह गुटनिरपेक्ष देशों का झुकाव समाजवाद की ओर था. लेकिन वे सोवियत खेमे में कभी नहीं गए. आज गुटनिरपेक्ष आंदोलन मरनासन्न है और अनेक अफ्रीकी देशों को कोई एक पक्ष में जाना बाध्यता होगी.
इन बातों को याद करने का मतलब सिर्फ यह है कि व्लादीमिर ज़ेलेंस्की पश्चिम की शह पाकर और रुसी अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत और दंगे फैलाकर ही सत्ता में आये हैं. नाटो की सदस्यता के लालच ने उन्हें पुतिन के खिलाफ खड़ा कर दिया. पुतिन ने गुरूवार को दिए भाषण में एक संकेत दिया, जब वे बोल्शेविक क्रांति के महान नेता लेनिन को आज की समस्या के लिए जिम्मेदार बता दिया. पुतिन ने कहा कि लेनिन ने ही सोवियत संविधान में राष्ट्रीयताओं को सोवियत संघ से अलग होने का अधिकार दिया था, जिसका इस्तेमाल का ही 1991 के रूस का बिखरा हुआ. इससे जाहिर होता है कि यह युद्ध आने वाले दिनों में केवल यूक्रेन तक ही नहीं रहेगा, बल्कि देश और मध्य एशिया के अनेक देशों को गिरफ्त में ले सकता है. इनमें कई देश अब भी रूस पर ही निर्भर हैं और रूस के साथ मध्य एशिया के देशों का एक रक्षा समझौता भी है.
एएफपी की खबरों पर भरोसा करें तो यूक्रेन का युद्ध आखिरी दौर में हैं, क्योंकि अब युद्ध कीव के आसपास ही हो रहा है. अकेला छोड़ दिए गए यूक्रेन के ज्यादा देर टिके रहने की संभावना नहीं है.
पश्चिम,चीन और रूस के विशेषज्ञों के जो संकेत हैं, उसका सारांश है :
यूक्रेन में सत्ता परिवर्तन होना तय है
2014 में पश्चिम समर्थित ' ऑरेंज रेवोल्यूशन' के द्वारा हटाए गए यूक्रेन के पूर्व राष्ट्रपति विक्टर येंकोविच की वापिस सत्ता वापसी हो सकती है. चुनाव में हार के बाद वह देश छोड़कर मास्को चले गए थे.
सत्ता परिवर्तन होने के बाद यूक्रेन NATO या EU में शामिल नहीं होगा. वर्तमान संकट की जड़ भी यही है क्योंकि पुतिन को यूक्रेन के नाटो में शामिल होने पर जबरदस्त ऐतराज है.
यूक्रेन से अलग हुए व रूस द्वारा मान्यता दिए गए दोनों नवोदित देश यूक्रेन और रूस के बीच बफर स्टेट का काम करेंगे या सम्भवतया कालांतर में रूस में उनका विलय हो जाएगा.
अमेरिका और नोटों देशों की रणनीति भी बेनकाब हो सकती है.
हालांकि पुतिन को अपने ही देश में विरोध का सामना करना पड़ सकता है.
मास्को की सड़कों पर शुक्रवार की सुबह जिस तरह जन सैलाब उमड़ कर आया और नारा लगाया उसकी गूंज रूस की राजनीति में देर तक सुनी जा सकेगी.
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