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आपने ‘दो बीघा जमीन’ फिल्म जरूर देखी होगी
प्रवीण कुमार
आपने 'दो बीघा जमीन' फिल्म जरूर देखी होगी. नहीं देखी तो देख डालिए. श्रीलंका (Sri Lanka) की कहानी को समझने में आसानी होगी. यह देश कुछ उसी रास्ते पर आगे बढ़ता दिख रहा है. कहने में कोई हिचक नहीं कि इस देश की आर्थिक स्थिति (Economic Condition) आज की तारीख में पाकिस्तान (Pakistan) से भी बदतर हो चुकी है. भीषण महंगाई और बेरोजगारी के बीच दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज श्रीलंका दुनिया की नजर में डिफॉल्टर तो हो ही चुका है, अगर हालात नहीं सुधरे और कोई देश उसकी मदद के लिए खुलकर आगे नहीं आया तो उसे दिवालिया होने से भी कोई नहीं बचा सकता है. हालांकि इस बदतर स्थिति के लिए अकेला चीन ही जिम्मेदार नहीं है.
इसमें कोरोना महामारी ने भी तड़का लगाया है, राजपक्षे की तिकड़ी सत्ता का खिलंदरपन भी है. लेकिन इस बुरे वक्त में चीन को श्रीलंका के उस ऐहसान का ख्याल तो करना ही चाहिए था, जब साल 1957 में 'पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना' को मान्यता देने वाला श्रीलंका अकेला देश था. लेकिन चीन ने खामोशी की चादर ओढ़ ली है. ऐसे में श्रीलंका के पास अब भारत की तरफ मदद के लिए हाथ फैलाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, लेकिन कूटनीतिक तौर पर भारत के हाथ भी बहुत खुले हुए नहीं हैं और उस रूप में भारत श्रीलंका की मदद करने की स्थिति में नहीं है जिस मदद की उसे दरकार है.
श्रीलंका की मौजूदा स्थिति क्या है?
'अगर ऐसा ही चलता रहा तो हमारा देश पूरी तरह से दिवालिया हो जाएगा' यह बयान किसी और के नहीं, श्रीलंका की संसद में विपक्ष के नेता और अर्थशास्त्री हर्षा डी. सिल्वा के हैं जो इसी साल जनवरी के महीने में संसद सत्र को संबोधित कर रहे थे. इस बयान की भयावहता का अंदाजा इन ताजा आंकड़ों से सहज ही लगाया जा सकता है जहां की मुद्रास्फीति एशियाई देशों में सबसे अधिक 17.5 फीसदी को छू गई है. श्रीलंकाई रुपये की कीमत डॉलर के मुकाबले 275 पर पहुंच चुकी है. नागरिकों को 400 ग्राम मिल्क पाउडर के लिए 790 श्रीलंकाई रुपये, एक किलो चावल के लिए 500 श्रीलंकाई रुपये, एक किलो चीनी के लिए 290 श्रीलंकाई रुपये, एक रसोई गैस सिलेंडर के लिए 1500 श्रीलंकाई रुपये चुकाने पड़ रहे हैं.
रसोई गैस खरीदने के लिए तेज धूप में खड़ी महिलाएं बेहोश हो जा रही हैं. पेट्रोल पंपों पर तेल खत्म हो रहे हैं. लिहाजा पेट्रोल पंपों पर लंबी-लंबी कतारें लग रही हैं. ऐसे में पेट्रोल और डीजल के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहे कई बुजुर्गों की मौत की भी खबर आ रही है. हालात इस कदर बिगड़ चुके हैं कि पेट्रोल पंपों को सेना के हवाले करना पड़ा है. इसकी पुष्टि कोई और नहीं, बल्कि शरणार्थी के तौर पर भारत की समुद्री सीमा में दाखिल हुए श्रीलंकाई नागरिक कर रहे हैं.
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, श्रीलंका में भोजन के गंभीर संकट की वजह से श्रीलंकाई नागरिक शरणार्थी बनकर भारत का रुख कर रहे हैं. 10 और 6 सदस्यों का दो दल भारतीय तट पर दस्तक दे चुका है जिसे भारतीय तटरक्षक बलों ने अपनी कस्टडी में लिया है. तमिलनाडु इंटेलिजेंस की मानें तो करीब 2000 श्रीलंकाई शरणार्थी किसी भी वक्त भारतीय सीमा में दाखिल हो सकते हैं. लोगों को इस बात का डर सता रहा है कि 1989 के गृह युद्ध के वक्त जिस तरह पलायन हुआ था, कहीं देश उसी संकट की तरफ तो नहीं बढ़ रहा है. श्रीलंका के पास विदेशी मुद्रा का भंडार सूख चुका है. जरूरी सामान को बाहर से लाने के लिए पैसे नहीं है. इस साल उसे 6 अरब डॉलर से अधिक का कर्ज किश्त के रूप में चुकाना है, लेकिन विदेशी मुद्रा भंडार बामुश्किल दो अरब डॉलर के आसपास ही है. ऐसे में जहां चीन ने हाथ खड़े कर दिए हैं. वहीं भारत ने बीते 17 मार्च को 1 अरब डॉलर का क्रेडिट फैसिलिटी देने का फैसला किया है.
कोरोना महामारी की मार और चीनी कर्ज
श्रीलंका आज कंगाली के जिस मुहाने पर खड़ा है, आर्थिक और मानवीय आपदा जिस तरह से गहराती जा रही है, खाने-पीने की वस्तुओं की कीमतें जिस तरह से आसमान छू रही हैं, ऐसे में स्वभाविक तौर पर सवाल उठता है कि आखिर श्रीलंका की यह हालत हुई कैसे? ये कोई एक दिन की कहानी तो है नहीं. दुनिया के नेता और विश्व स्वास्थ्य संगठन भले ही कह रहा हो कि कोरोना एक नई सामान्य परिस्थिति है और अब हमें हालात से समझौता कर इसी के हिसाब से जिन्दगी गुजर-बसर करनी होगी. लेकिन श्रीलंका जैसे मुल्कों के बारे में कोई सोचकर तो देखे कि जिसकी अर्थव्यवस्था का बैकबोन ही टूरिज्म था, पहले 2020 फिर 2021 और अब 2022 कोरोना महामारी की वजह से पूरी टूरिज्म इंडस्ट्री चौपट हो चुकी है, आखिर ऐसे देश का गुजर-बसर कैसे होगा?
करीब सवा दो करोड़ की आबादी वाला श्रीलंका दुनिया के उन गिने-चुने मुल्कों में है जहां की जीडीपी में टूरिज्म सेक्टर का योगदान 10 फीसदी से ज्यादा था, जो मौजूदा दौर में गिरकर 4 फीसदी पर आ गया है. सिर्फ टूरिज्म सेक्टर से दो लाख से अधिक लोगों की नौकरियां चली गईं और मोटे तौर पर इससे जुड़े 10 लाख से अधिक लोगों का रोजगार छिन गया. 5 लाख लोग गरीबी रेखा से नीचे आ गए हैं. चाय यानि टी सेक्टर की बात करें तो श्रीलंका की अर्थव्यवस्था में इसकी हिस्सेदारी करीब 2 प्रतिशत है. आंकड़े बताते हैं कि 2020 के मुक़ाबले 2021 में चाय से भी कमाई घट गई है.
2020 की जुलाई में चाय से कमाई 24.33 अरब रुपये थी. लेकिन 2021 की जुलाई में यह कमाई 1.31 अरब रुपये से घटकर 23.02 अरब रह गयी. कहने का मतलब यह है कि कोरोना ने श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर दिया. बाकी की कसर चीन के कर्जे ने पूरी कर दी. श्रीलंका को फांसने के लिए चीन ने बहुत ही शातिराना तरीका अपनाया. श्रीलंका पर चीन का कुल 5 अरब डालर से अधिक का कर्ज है. जब-जब पैसे चाहिए थे चीन ने श्रीलंका को पैसे दिए और बदले में वो नीतियां बनवाई जिसका सीधा फायदा श्रीलंका से चीन को मिल रहा है. श्रीलंका का हंबन टोटा पोर्ट इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. कर्ज के दबाव में ही श्रीलंका ने अपने हंबनटोटा बंदरगाह को 1.12 अरब डॉलर के बदले चीन की मर्चेंट पोर्ट होल्डिंग्स लिमिटेड कंपनी को 99 साल के लीज पर दे दिया है.
तो क्या वाकई दिवालिया हो जाएगा श्रीलंका?
अगले 10-11 महीनों में देश को घरेलू और विदेशी ऋण के भुगतान के लिए श्रीलंका को करीब 7.3 अरब डॉलर की जरूरत है, जबकि नवंबर 2021 के अंत तक देश में विदेशी मुद्रा का भंडार महज 1.6 अरब डॉलर था, जो 2019 के अंतर में 7.6 अरब डॉलर हुआ करता था. हालात इस कदर बेकाबू हो चुके हैं कि सरकार को घरेलू लोन और विदेशी बॉन्ड्स का भुगतान करने के लिए पैसा छापना पड़ रहा है और दूसरे देशों से कर्ज की गुहार लगानी पड़ रही है. श्रीलंका के वित्त मंत्री बासिल राजपक्षे ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि उनका देश विदेशी कर्ज में डूबा हुआ है. उसे लगभग 7 खरब अमेरिकी डॉलर का कर्ज चुकाना है. ये कर्ज सिर्फ चीन का नहीं बल्कि भारत और जापान का भी है. तो ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या श्रीलंका वाकई दिवालिया हो जाएगा? तो इसका जवाब है हो सकता है अगर सबकुछ यूं ही चलता रहा तो.
किसी देश के दिवालिया होने का मतलब यह होता है कि आपकी क्रेडिट रेटिंग लगातार खराब हो रही हो. जैसे मौजूदा वक्त में श्रीलंका के साथ हो रहा है. अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों का उस देश से भरोसा उठ जाता है और कर्जदाता कर्ज अदायगी की तारीख आगे बढ़ाने से इनकार कर देते हैं. अगर क्रेडिट रेटिंग खराब होगी तो कर्ज देने के लिए कोई देश या वैश्विक वित्तीय संस्थान तैयार नहीं होगा. इससे इतर डिफॉल्टर होने का मतलब है आपने पूर्व निर्धारित तारीख पर कर्ज अदायगी नहीं की. कहने का मतलब यह कि डिफॉल्टर होना दिवालिया होने की शुरुआत होती है. श्रीलंका की घरेलू अर्थव्यवस्था तब दिवालिया होगी जब सरकार दिवालिया हो जाएगी.
सरकार तब दिवालिया होती है, जब राजस्व मिलना बंद हो जाता है. लोग टैक्स देना बंद कर देते हैं और नए नोट छापने का कोई मतलब नहीं रह जाता है. श्रीलंका की सरकार अभी इस स्थिति का सामना नहीं कर रही है. अभी भी श्रीलंका का टैक्स से राजस्व उसकी जीडीपी का 9 फीसदी के करीब है. हालांकि, यह ऐतिहासिक रूप से निम्न स्तर पर है. लेकिन अपनी मुद्रा में लेन-देन लोगों ने अभी भी बंद नहीं किया है. ऐसे में यह कहा जा सकता है कि श्रीलंका की सरकार के पास अभी भी घरेलू अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए कम से कम 10 महीने का वक्त है. सरकार का दावा है कि वह हर महीने ओमान को 5 अरब अमेरिकी डालर तक की चाय पत्ती का निर्यात करेगा और इस तरह अपना कर्ज चुका देगा.
राजपक्षे की तिकड़ी मस्त श्रीलंका पस्त
श्रीलंका को भीषण आर्थिक संकट से निकालने का जिम्मा जिस सरकार के पास है उसकी अगुवाई राष्ट्रपति गोटाबया राजपक्षे और उनके भाई महिंदा राजपक्षे व बासिल राजपक्षे के पास है. महिंदा राजपक्षे दो बार देश के राष्ट्रपति रह चुके हैं और इस वक्त प्रधानमंत्री के ओहदे पर हैं. कहा जाता है कि महिंदा राजपक्षे के राष्ट्रपति पद पर रहते हुए चीन के श्रीलंका से रिश्ते काफी मजबूत हुए. वो मजबूत रिश्ते जिसकी पोल-पट्टी आज सबके सामने खुलकर आ गई है. बासिल राजपक्षे अमेरिकी नागरिक हैं और इस समय देश के वित्त मंत्रालय की कमान उनके हाथ में है. बासिल को वित्त मंत्री बनाने के लिए श्रीलंका की सरकार ने 20वां संविधान संशोधन विधेयक पारित किया था जिसमें विदेशी नागरिकों के लिए संसद सदस्य बनने का रास्ता खोला गया.
7 जुलाई, 2021 को उन्हें वित्त मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई, इस उम्मीद से कि वे देश की आर्थिक समस्याओं का कोई हल निकाल लेंगे. लेकिन वो ऐसा कुछ करने में पूरी तरह से विफल रहे. ऐसे में इस बात को समझना होगा कि श्रीलंका में सरकार की कमान जिस राजपक्षे परिवार के पास है, देश की जितनी भी शक्तियां हैं वो एक ही परिवार के पास सुरक्षित हैं तो इस परिवारवादी सत्ता ने भविष्य के संकट से निपटने के लिए क्या किया? सरकार ने आर्थिक आपातकाल की घोषणा जरूर की और सेना को जरूरी सामान की आपूर्ति सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी भी सौंपी, लेकिन इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि श्रीलंका में चीनी और चावल समेत तमाम खाद्य पदार्थों के लिए जो सरकारी कीमत तय की गई, उससे लोगों को राहत नहीं मिली. कहीं न कहीं राजपक्षे परिवार की सत्ता को यह भी लगा होगा कि श्रीलंका की हर मुश्किलों के लिए चीन है ना. आज जब चीन ने अपना असली रंग दिखा दिया तो राजपक्षे की तिकड़ी भारत समेत तमाम देशों से श्रीलंका को बचाने की गुहार लगाने लगे हैं. कहने का मतलब यह कि श्रीलंका की बदहाली के लिए राजपक्षे की तिकड़ी सत्ता भी कम जिम्मेदार नहीं है.
चलते-चलते जीवन के इस गणित को समझ लीजिए, बड़े काम की है अपने जीवन को दुरुस्त रखने और श्रीलंका की स्थिति को समझने के लिए. मान लीजिए आपकी मौजूदा आय 1 लाख रुपए है और खर्च डेढ़ लाख करना चाहते हैं. ऐसे में 50 हजार रुपए आप अपने बचत खाते से ले सकते हैं. लेकिन अगर बचत खाता खाली है तो आपको किसी से कर्ज लेना होगा. ऐसे में अगर कोई कर्ज देने वाला नहीं होगा या उसे यह भरोसा नहीं है कि आप उसका कर्ज लौटा देंगे तो फिर क्या होगा? यहीं से आपकी स्थिति बद से बदतर होनी शुरू हो जाती है और आज कमोवेश श्रीलंका इसी स्थिति से गुजर रहा है. चूंकि इस तरह की स्थिति के पैदा होने की एक प्रक्रिया होती है और इसमें वक्त भी लगता है. लिहाजा अगर देश की सत्ता सजग हो, जागरुक हो, अर्थव्यवस्था की बुनियादी समझ रखता हो तो इससे बाहर निकला जा सकता है. 1991 में भारत भी कुछ इसी तरह की परिस्थिति में फंसा था और तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहा राव और वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की समझदारी से देश को बाहर निकाला गया था.
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