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अगर मैं कहूं कि ये जो आपकी वॉर्डरोब तरह-तरह के डिजाइनर कपड़ों से भरी हुई है
मनीषा पांडेय अगर मैं कहूं कि ये जो आपकी वॉर्डरोब तरह-तरह के डिजाइनर कपड़ों से भरी हुई है, आप हर छह महीने पर जो नए अप्लायंसेज खरीदते हैं, पुरानी खराब हो गई चीजों को रिपेयर करने की बजाय उसे डंब करके नया सामान ले आते हैं, उसकी वजह से ग्लोबल वार्मिंग हो रही है, धरती पर हर साल 700 मिलियन टन कचरा जमा हो रहा है तो आपको कैसा लगेगा?
धरती पर कचरा फैलाने में अकेले फैशन इंडस्ट्री का योगदान 30 मिलियन टन का है और ये 30 मिलियन टन का आंकड़ा ग्लोबल नहीं, बल्कि अकेले अमेरिका का है. पूरी दुनिया का आंकड़ा निकाला जाए तो कचरे का इतना ऊंचा पहाड़ बनेगा कि जिसमें हिमालय पर्वत जैसे 100 हिमालय खड़े हो जाएंगे.
फैशन हर रोज बदल रहा है. दो महीने पहले खरीदी गई ड्रेस का स्टाइल अब पुराना हो गया है क्योंकि कोई नया डिजाइन, कोई नया स्टाइल चलन में आ गया है. पिछली बार किसी पार्टी, फंक्शन या शादी के लिए जो कई हजार का महंगा ड्रेस खरीरा था, अब वो किसी काम का नहीं क्योंकि सारे फंक्शन में एक ही कपड़ा पहनकर नहीं जा सकते. हर बार कुछ नया चाहिए. नया स्टाइल, नया डिजाइन, नया फैशन, नई शॉपिंग.
हर बार कुछ नए की ये जरूरत मनुष्य की आंतरिक जरूरत नहीं है. ये जरूरत बाजार की पैदा की हुई है. हर दो महीने में बदल रहा फैशन आपको आउटडेटेड साबित करने के लिए बेताब है और उसकी बेताबी के निरीह शिकार.
ज्यादा पुरानी बात नहीं है. आज से महज ढाई दशक पहले बाजार में नई-नई यूज एंड थ्रो पेन आनी शुरू हुई. यानि इस्तेमाल करो और फेंको. पहले कलम रुक जाए तो हम उसमें स्याही डालते थे या उसकी रिफिल बदलते थे. बॉडी वही रहती थी. चीज को फिर से इस्तेमाल के लायक बना लिया जाता था. उसे फेंका नहीं जाता था. लेकिन फिर बाजार में ऐसी कलम आई कि जिसमें रिफिल बदलने का विकल्प ही नहीं रहा. जब कलम की रिफिल खत्म हो जाती तो हम उसे कचरे के डिब्बे में फेंक देते थे.
ये एक मामूली सी कलम सी कलम भर नहीं थी, जो यूज एंड थ्रो कल्चर का गुणगान कर रही थी. इस्तेमाल करो और फेंकाे की संस्कृति धीरे-धीरे और भी चीजों तक फैलने लगी. पहले घर में आई एक मामूली सी कंघी भी 20-20 साल तक चलती थी. पता चला कि कई पीढि़यों ने उस घर में उसी एक कंघी से ताउम्र अपने बाल संवारे.
लेकिन आज हमारे घर का नक्शा इतनी तेजी के साथ बदल रहा है कि कोई भी चीज लंबे समय तक घर में दिखाई नहीं देती. घर के इंटीरियर से लेकर रसोई के डिब्बे, बर्तन तक हर थोड़े दिन पर बदल दिए जाते हैं. इसलिए नहीं कि वो इस्तेमाल के लायक नहीं बचे, बल्कि इसलिए कि वो पुराने हो गए हैं.
आपको पता है कि वो तमाम पुरानी चीजें जिन्हें हम यूज एंड थ्रो की संस्कृति के चलते फेंक रहे हैं, वो आखिर जा कहां रही हैं. मोबाइल, लैपटॉप, टीवी, फ्रिज, कार और एसी से लेकर मामूली रबर, कटर और कंघर तक का सिर्फ 30 फीसदी हिस्सा रीसाइकिल हो रहा है. बाकी का 70 फीसदी कचरा बनकर इसी धरती के किसी कोने में जमा हो रहा है.
हम अपने घरों से कचरा निकालकर फेंक रहे हैं, लेकिन कचरा खत्म नहीं हो रहा. वो यहीं इसी जमीन के किसी और कोने में जमा हो रहा है, धरती का तापमान बदल रहा है, प्रदूषण बढ़ा रहा है, ग्लोबल वार्मिंग में इजाफा कर रहा है.
एनसीबीआई में छपी एक रिपोर्ट कहती है कि पूरी दुनिया में पिछले 40 सालों में इंसान के द्वारा पैदा किए गए कचरे में 80 फीसदी का इजाफा हुआ है. कल्पना करके देखिए 80 फीसदी का इजाफा.
इंसान ने इंसानों को बेहतर जिंदगी देने में, बेहतर स्वास्थ्य देने में, बेहतर शिक्षा देने में, बेहतर विकास देने में 80 गुना प्रगति नहीं की. हिंसा, आतंकवाद, ड्रग्स, बीमारी, गरीबी किसी भी समस्या से निजात पाने में ऐसा चमत्कारिक आंकड़ा नहीं दिखता. 80 फीसदी बढ़त हुई है, लेकिन कचरा पैदा करने में. क्या अब भी हमारे लिए गर्व करने को कुछ बचा है.
हम आर्थिक विकास की बात करते हैं. तो चलिए अर्थ की ही भाषा में इंसान के पैदा किए कचरे की कीमत को समझने की कोशिश करते हैं. वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन ने तीन साल पहले एक रिपोर्ट छापी थी, जो कह रही थी कि पूअर वेस्ट मैनेजमेंट का आर्थिक भार देशों की अर्थव्यवस्थाओं को उठाना पड़ रहा है. दुनिया की 50 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की जीडीपी का 9 फीसदी हिस्सा उस कचरे को संभालने में खर्च हो रहा है, जो इंसान अपने लालच के चलते पैदा कर रहा है.
ये रिपोर्ट इस ओर भी इशारा करती है कि पूअर वेस्ट मैनेजमेंट का पर्यावरण और इंसानों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर का आर्थिक आंकलन किया जाए तो ये आर्थिक नुकसान 23 फीसदी से ज्यादा बैठेगा.
कचरा आर्थिक विकास के नाम पर ही पैदा हो रहा है. ज्यादा से ज्यादा इंडस्ट्री, ज्यादा से ज्यादा उत्पादन, ज्यादा से ज्यादा खपत, ज्यादा से ज्यादा बिक्री और ज्यादा से ज्यादा खरीद. यही इकोनॉमिक्स काम कर रही होती है इस बेलगाम प्रोडक्शन और बेलगाम कचरा उत्पादन के पीछे.
लेकिन एक सीमित समूह और समुदाय के लिए हो रहा आर्थिक विकास समाज के बड़े समूह के लिए आर्थिक नुकसान की वजह भी बन रहा है. इस सच की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता. या शायद हम लालच में इतने अंधे हो गए हैं कि मुनाफे के आगे हमें और कुछ दिखाई नहीं देता. बिजनेस और मुनाफा ही इस समय का सबसे बड़ा सच है. चाहे उसकी कीमत अपनी धरती और पर्यावरण की बर्बादी के रूप में ही क्यों न चुकानी पड़े.
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