सम्पादकीय

मुद्दों के अखाड़े में

Rani Sahu
3 March 2022 6:58 PM GMT
मुद्दों के अखाड़े में
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‘अपनी ख्याति पर दुपट्टा ओढे़ इंतजार किसका करें, यह पौ बारह का समाधान है

'अपनी ख्याति पर दुपट्टा ओढे़ इंतजार किसका करें, यह पौ बारह का समाधान है मलाल किसका करें।' यह जिक्र उस उदारता का है जो हर बार हिमाचल की सरकार को श्रेष्ठ मानने की शर्त सरीखा है। यानी एक हाथ से दो और दूसरे से श्रेष्ठ होने की पावती हासिल करो। अभी बुधवार को ही हिमाचल सरकार ने देव संस्कृति के अनुष्ठान में अपने फैसलों की परिक्रमा की थी, लेकिन गुरुवार के परिदृश्य में सारी बाजी पलट दी गई। यानी हिमाचल में ईश्वर को पूजना आसान है, लेकिन कर्मचारी वर्ग के प्रति सरकार की आस्था को महसूस करना अति कठिन हो चुका है। कर्मचारी जो मांग रहे हैं, वह उनकी जरूरत को अभिव्यक्त करता है, लेकिन सरकार के पास अब तजुर्बेकार फैसलों के बजाय फैसलों की फांस बढ़ रही है। बहरहाल, यह तो मानना पड़ेगा कि सरकार मानने के मनोयोग में हर तरह की मांग की आपूर्ति में खुद को और सरकारी खजाने को बलिदान कर रही है। इसीलिए शिमला पहुंचे धरना प्रदर्शन की भी कीमत अदा होगी, भले ही इससे पहले सरकार ने धरना-प्रदर्शन रोकने का शंखनाद करते हुए एहतियाती कदम उठा लिए थे, लेकिन यहां तो आर-पार की स्थिति में सारा राज्य फंस रहा है।

क्या ऐसी स्थिति में प्रदेश को अचंभित होना चाहिए या सब कुछ भूल कर संन्यास ले लेना चाहिए ताकि जिस वर्ग में जोर है वह विधानसभा सत्र को अंदर और बाहर से कुरुक्षेत्र बना दे। शीतकालीन सत्र के दौरान भी स्वर्ण आयोग के गठन को लेकर जो परिस्थितियां बनी थी, वही कमोबेश लौट कर अब ओपीएस मसले पर बजट सत्र को भयभीत कर रही हैं। हिमाचल के कर्मचारी इतिहास और संवैधानिक परंपरा के आमने-सामने गुरुवार का दिन इसलिए स्मरण रहेगा, क्योंकि इससे प्रेरित होकर हक मांगने के तरीके अब नित नए अखाड़े ही पैदा करेंगे। कल अगर प्रदेश के चौदह लाख बेरोजगारों के दस फीसदी भी शिमला पहुंच कर नाफरमानी जाहिर कर दें, तो हमारी व्यवस्था को सारे इंतजाम बदलने पड़ेंगे। ऐसे में विधानसभा के तमाम सत्र प्रतीकात्मक संघर्ष और विरोध से आगे बढ़ कर कहां पहुंच जाएं, कोई अनुमान लगाना असंभव हो सकता है। इसमें दो राय नहीं कि ओपीएस जैसा मुद्दा अब राष्ट्रीय विवेचन का प्रश्न है और इसकी व्यापकता में राजनीति भी खूब हो रही है। हिमाचल के परिप्रेक्ष्य में ही देखें तो ओपीएस मसले की छांव में कई नेता वर्जिश कर रहे हैं। ऐसे समीकरण भी तराशे जा रहे हैं ताकि ओपीएस अधिकार को लेकर तीसरा फ्रंट खड़ा हो जाए।
ऐसे में राजधानी शिमला ने कर्मचारी बनाम राज्य का मुकाबला होते भी देखा है, जहां निरीह प्रदेश की स्थिति में हारना तय है। यह उस प्रदेश के अधिकारों का आबंटन है, जो हर बार भीख का कटोरा लेकर कभी केंद्र के पास जाता है, तो कभी बैंकों से ऋण उठाने के लिए चक्कर काटता है। विडंबना यह भी है कि जिस समय कर्मचारी अपनी शक्ति से सरकार को झुकाने की कोशिश को सफल कर रहे थे, सदन के भीतर प्रदेश की आर्थिक कमर पूरी तरह झुक रही थी। प्रदेश का आर्थिक सर्वेक्षण बताता है कि (2011-12) के आधार पर राज्य का सकल घरेलू उत्पाद 2019-20 के 121168 करोड़ के मुकाबले 2020-21 में 114814 करोड़ अनुमानित रहा, जबकि वर्तमान मूल्य दर पर भी 2019-20 के 159162 करोड़ के मुकाबले 2020-21 में 156675 करोड़ ही रहेगा। यानी विकास दर की धज्जियां उड़ रही हैं, लेकिन प्रति व्यक्ति आय में हिमाचल राष्ट्रीय औसत से 51528 रुपए की बढ़त लेकर 201854 तक पहंुच जाएगी। हिमाचल के गैर-सरकारी प्रयास यानी कृषि क्षेत्र 8.7 प्रतिशत जीडीपी दे रहा है, जहां किसान को तो कोई पेंशन नहीं मिलती, जबकि दूसरे सबसे बड़े जीडीपी के आधार पर्यटन एवं परिवहन अभी भी गहन सदमे में हैं। ऐसे में हिमाचल की विकास दर में योगदान कर रहे निजी क्षेत्र की मूलभूत जरूरतों को नजरअंदाज करके भी राज्य अपनी उदारता में जिन्हें पाल पोस रहा है, उनके अधिकारों की असीमित भाषा का मुकाबला करना अब अर्थ शास्त्र तो नहीं कर सकता, लेकिन यहां राजनीति अवश्य ही इन्हें पुरस्कृत करेगी।

क्रेडिट बाय दिव्याहिमाचल

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