सम्पादकीय

आत्मिक अवनति की दिशा में

Subhi
22 July 2022 5:46 AM GMT
आत्मिक अवनति की दिशा में
x
पहले जब बुजुर्ग लोग किसी को आशीर्वाद देते, तो वे उसकी शारीरिक, मानसिक और भौतिक उन्नति के साथ-साथ उसकी आत्मिक उन्नति की भी कामना करते थे। पर, पिछले कुछ समय से युवकों की आत्मिक उन्नति की यह अवधारणा हमारे समाज की आम चेतना का आवश्यक अंग नहीं रह गई है।

सदाशिव श्रोत्रिय: पहले जब बुजुर्ग लोग किसी को आशीर्वाद देते, तो वे उसकी शारीरिक, मानसिक और भौतिक उन्नति के साथ-साथ उसकी आत्मिक उन्नति की भी कामना करते थे। पर, पिछले कुछ समय से युवकों की आत्मिक उन्नति की यह अवधारणा हमारे समाज की आम चेतना का आवश्यक अंग नहीं रह गई है। भौतिक सफलता की होड़ आज के समय में कुछ इतनी तीव्र हो गई है कि बच्चों के लिए माता-पिता भी निरंतर उनके अधिक धनवान या अधिक सामर्थ्यवान होने की कामना तो करते हैं, पर उनकी आत्मिक उन्नति के बारे में बहुत चिंता नहीं करते।

पहले के माता-पिता इस बात में भी खुशी महसूस करते थे कि उनके बच्चे में किसी दूसरे के काम आने या दूसरे की मदद करने का गुण है। वे स्वयं आगे रह कर बच्चे को ऐसा करने की शिक्षा देते थे। पर आज के माता-पिता सामान्यतया यही चाहते हैं कि उनका बच्चा किसी दूसरे के काम आने के बजाय अपनी स्वयं की भौतिक सफलता के लिए श्रम करे। इसी तरह जो माता-पिता पहले इस बात में गर्व महसूस करते थे कि उनका बच्चा कभी झूठ नहीं बोलता या वह चालाक नहीं है, वे अब इस बात को महत्त्व नहीं देते कि जरूरत पड़ने पर उनका बच्चा झूठ बोल कर या कोई चालाकी करके भी अपना काम निकाल लेता है। क्या यह स्थिति मोटेतौर पर हमारे समाज की आत्मिक अवनति को स्वीकार कर लिए जाने को प्रमाणित नहीं करती?

आत्मिक उन्नति को हम कैसे परिभाषित करेंगे? हमारे शास्त्रों और धर्मग्रंथों ने यह काम बहुत अच्छी तरह किया है। गीता जब काम, क्रोध और लोभ को नर्क का द्वार कहती है, तब वह स्पष्ट रूप से उसे आत्मिक उन्नति में बाधक मानती है। जो व्यक्ति अपनी भौतिक कामनाओं और प्रलोभनों पर नियंत्रण रखता है , जो अपने सुख के लिए अन्य लोगों का सुख छीन लेने को अनैतिक मानता है, जो क्रूर, असंवेदनशील, बेईमान और धोखेबाज नहीं है, जो श्रम से जी नहीं चुराता, जो अपने फायदे के लिए दूसरों को नुकसान पहुंचाना ठीक नहीं समझता, जो अहसान फरामोश नहीं है, उसे हम आत्मिक रूप से उन्नत मानते हैं। अपने फायदे के लिए वादे से मुकर जाने वाले, अपने आराम के लिए दूसरों को तकलीफ में डाल देने वाले और दूसरों के दिल को चोट पहुंचाने में संकोच न करने वाले व्यक्ति को हम आत्मिक रूप से उन्नत नहीं कह सकते। अनुदारता के बजाय उदारता बरतने वाले लोगों को हम आत्मिक रूप से उन्नत कहेंगे।

दरअसल, दूसरों के लिए कुछ करके, उनके लिए कष्ट उठा कर व्यक्ति जिस तरह की खुशी और संतोष अनुभव करता है, वैसा संतोष स्वार्थीपन और आत्मकेंद्रीयता से प्राप्त नहीं किया जा सकता। आत्मिक रूप से उन्नत व्यक्ति को उसकी अंतरात्मा जैसी कोई चीज बराबर गलत काम करने से रोकती रहती है। पर आत्मिक रूप से अवनत व्यक्ति को गलत काम से रोकने वाली अंतरात्मा की ऐसी कोई आवाज सुनाई नहीं देती। गलत काम करते-करते उसकी अंतरात्मा जैसे मर-सी जाती है। ऐसा व्यक्ति बड़े-बड़े भ्रष्टाचारों में लिप्त होने पर भी कोई लज्जा अनुभव नहीं करता।

आत्मिक अवनति के फलस्वरूप व्यक्ति की कर्तव्यनिष्ठता समाप्त हो जाती है। अपने वेतन या मजदूरी के एवज में उसे जितना श्रम करना चाहिए उससे वह यथासंभव बचने की कोशिश करता है। आत्मिक अवनति के फलस्वरूप एक पूरा का पूरा समाज एक अनैतिक समाज में तब्दील होने लगता है। उसके जनतांत्रिक चुनावों में तरह-तरह की बेईमानियां होने लगती हैं और जनतंत्र की मूल भावना का ह्रास होने लगता है। ऐसी दशा में किसी देश की समूची सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था पर खतरा मंडराने लगता है।

आत्मिक उन्नति का एक मोटा अर्थ मानवीय दृष्टि से उन प्रशंसनीय गुणों का विकास है, जिनका लक्ष्य केवल अपने आप को लाभ पहुंचाने की तुलना में सार्वजनिक कल्याण के लिए प्रयत्न करना हो। कोई व्यक्ति यह तभी कर सकता है, जब वह क्रूर, कृपण और असंवेदनशील न हो और जब वह अपनी स्वार्थपूर्ण पाशविक सहजात वृत्तियों पर नियंत्रण रख सके।

यह विडंबनापूर्ण है कि जो हमारा देश कभी आत्मिक उन्नति को ही जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि समझने के लिए जाना जाता था, वही आज इतना भौतिकवादी होता जा रहा है कि उसे अपने आत्मिक पतन का जैसे कोई भान ही नहीं रह गया है। अधिकाधिक सत्ता और संपत्ति ही आज जैसे आज अधिकांश भारतीयों का एकमात्र लक्ष्य बन गई है, चाहे उसके लिए कितने ही झूठ और धोखे का आश्रय लिया जाए।

हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या हमारी दुनिया तब भी सुंदर और जीने लायक रह जाएगी, जब इसमें कोई किसी का हमदर्द या सहायता करने वाला नहीं होगा। अगर इंसान को एक उन्नत किस्म की खुशी और संतोष की प्राप्ति के स्रोत सदा के लिए सूख जाएं तो क्या यह मानवीय विकास में बाधा पड़ने जैसा नहीं होगा?


Next Story