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सम्पादकीय
राजनीति में सत्तापक्ष और विरोधी दल दोनों को ही करना पड़ता है काम
Manish Sahu
26 Aug 2023 10:58 AM GMT
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सम्पादकीय: बीते दिनों 26 विपक्षी दलों ने इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस यानी आइएनडीआइए गठबंधन बनाया, जिसका संक्षिप्तीकरण कर ये दल उसे ‘इंडिया’ नाम दे रहे हैं। इन दलों ने सोचा कि चुनावों को ‘इंडिया’ बनाम भाजपा बनाने से उन्हें लाभ मिलेगा, लेकिन यह नहीं सोचा कि जनता क्या कहेगी? क्या देश का नाम राजनीतिक लाभ के लिए प्रयोग करना उचित है? गांधीजी ने तो इंडियन नेशनल कांग्रेस का नाम भी चुनावी स्पर्धा के लिए वर्जित किया था। अपनी हत्या से ठीक पहले उन्होंने इंडियन नेशनल कांग्रेस का विघटन कर उसे ‘लोक सेवक संघ’ में बदलने का संविधान बना दिया था। उसे गांधीजी की अंतिम इच्छा कहा गया, लेकिन नेहरू ने वह इच्छा नहीं मानी। उलटे आज तो कांग्रेस और विपक्षी दलों ने देश का नाम ही चुनावी दांव पर लगा दिया है।
संविधान का प्रथम अनुच्छेद ‘इंडिया दैट इज भारत’ वाक्यांश का प्रयोग करता है। अर्थात ‘इंडिया’ की पहचान भारत है, जो हजारों वर्ष पुराना है, जिसकी सभ्यता-संस्कृति की प्रशंसा संपूर्ण विश्व करता है, जो हमारे गौरवशाली अतीत का प्रतीक है। उसके विपरीत यह कौन सा ‘छद्म इंडिया’ है जो हाल में बेंगलुरु में जन्मा, जिसके पांच टुकड़े हैं, जिसका वास्तविक नाम इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस है। हमने नकली उत्पादों के बारे में तो सुना था, लेकिन सत्ता हथियाने के लिए विपक्ष ‘नकली इंडिया’ को ही गढ़ लेगा, यह कल्पना से परे है। क्या कांग्रेस बताएगी कि वह कौन सा ‘इंडिया’ है, जिसे जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी आफ इंडिया’ में खोजा था? वह कौन सा ‘इंडिया’ है, जिसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने ‘यंग इंडिया’ का नाम दिया था? वह कौन सा ‘इंडिया’ है, जिसके तिरंगे की शान में लाखों भारतीय जन और जवान बलिदान हो गए?
विपक्षी दलों द्वारा ‘इंडिया’ को अपने गठबंधन के संक्षिप्त नाम (एब्रीविएशन) के रूप में प्रयोग करना ‘संप्रतीक और नाम (अनुचित प्रयोग निवारण) अधिनियम, 1950 का उल्लंघन है। इस कानून की धारा-3 के अनुसार किसी भी व्यक्ति द्वारा भारत सरकार के नाम का प्रयोग किसी भी कार्य या व्यवसाय में वर्जित है। धारा-2(3) के अनुसार किसी नाम का संक्षिप्तीकरण भी नाम ही माना जाएगा। विपक्ष के पास ‘यूपीए’ या संप्रग अच्छा-खासा नाम था। उसे नए नाम की जरूरत क्यों पड़ी? क्या विपक्ष ‘नाम’ के आधार पर चुनाव लड़ेगा? उसके पास जनता को बताने के लिए कोई काम या उपलब्धि नहीं? क्या उसका सिर्फ यही काम है कि मोदी सरकार की निराधार निंदा करे, प्रधानमंत्री मोदी को अपशब्द कहे?
राजनीति में सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों को काम करना पड़ता है। क्या विपक्ष बताएगा कि मोदी सरकार के विकल्प के रूप में उसके पास ऐसी कौन सी विचारधारा, नीतियां, लक्ष्य और कार्यक्रम हैं, जो उससे बेहतर हैं? देश का नेतृत्व कौन करेगा? मोदी ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की जो छवि बनाई है, क्या वैसी क्षमता किसी विपक्षी नेता में है? देश में जो स्थिरता आई है, विकास और लोक-कल्याण के जो प्रतिमान गढ़े गए हैं, भ्रष्टाचार पर जैसा अंकुश लगा है, समावेशी समाज की ओर जो कदम बढ़े हैं, जिस समर्पण के साथ मोदी सरकार काम कर रही है, क्या विपक्ष से उसके शतांश की भी उम्मीद की जा सकती है?
यह तो संभव नहीं कि किसी सरकार की नीतियों, कार्यक्रमों और निर्णयों में कोई खामी न हो। मोदी सरकार सहित सभी पूर्ववर्ती सरकारों पर यह बात लागू होती है, लेकिन सवाल है कि क्या राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन सरकारों का कोई माडल है, जो जनता को भरोसा दिला सके कि यदि विपक्षी गठबंधन सत्ता में आया तो वह मोदी सरकार से बेहतर काम करेगा? 1977 से 1980 तक चार दलों की जनता पार्टी सरकार या 1998 से 2004 तक अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार को स्थिर और मजबूत सरकार के रूप में नहीं जाना गया। 2004 से 2014 तक मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संप्रग सरकार ने तो कुशासन और भ्रष्टाचार के नए-नए कीर्तिमान ही बना दिए। ऐसे में, 2024 के लोकसभा चुनावों को लेकर विपक्षी गठबंधन का क्या एजेंडा है?
विपक्ष सरकार की आलोचना अवश्य करे, लेकिन उसे जनता को भरोसा दिलाना होगा कि उसकी आलोचनाओं में दम है। उसे मोदी विरोध की नकारात्मकता से आगे निकल कर अपने सकारात्मक एजेंडे पर ध्यान देना होगा। इन दलों को समझना होगा कि जनता जिस मोदी को चाहती है, उसके प्रति अपशब्द या अनर्गल आलोचना उन्हें कितनी महंगी पड़ सकती है। विपक्षी गठबंधन को जनता को यह भी समझाना होगा कि जिन दलों के साथ राज्यों में उनकी चुनावी स्पर्धा है, पारस्परिक कटुता है, जिनके नेताओं पर उन्होंने भ्रष्टाचार एवं अपराध के गंभीर आरोप लगाए हैं, उन्हें साथ लेकर मोदी को हटाने की मुहिम चलाने की असली वजह क्या है?
बंगाल में पिछले उपचुनाव में कांग्रेस द्वारा तृणमूल से सागरदिघी सीट छीनने, कांग्रेस द्वारा तृणमूल पर गोवा और मेघालय में ‘भाजपाई गेम’ खेलने का आरोप लगाने और त्रिपुरा में कांग्रेस द्वारा वामपंथी दलों की उपेक्षा से गठबंधन के अनेक दल कांग्रेस से आहत हैं। जिन राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं, उनके नेता कांग्रेस या अन्य पार्टियों को सीट देना नहीं चाहेंगे, जैसे बंगाल में ममता, बिहार में नीतीश और लालू तथा दिल्ली और पंजाब में अरविंद केजरीवाल। हालांकि, जहां उनकी सरकार नहीं है, जैसे यूपी में अखिलेश यादव, महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे आदि वहां कांग्रेस या अन्य दलों के प्रति नरमी हो सकती है। इसके बावजूद कोई संदेह नहीं कि टिकट बंटवारे की बात आते-आते विपक्ष में कई दरारें पड़ेंगी।
ऐसे में, संभव है कि कांग्रेस को अधिकतर राज्यों में वांछित ‘स्पेस’ न मिले और उसे निर्णय लेना पड़े कि राहुल की भारत जोड़ो यात्रा और प्रियंका के वाराणसी से चुनाव लड़ने की संभावना से उपजे दलीय उत्साह के कारण पार्टी सभी लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़े। यदि ऐसा न हुआ तो भी विभाजित, विचारधारा-विहीन, नीति-विहीन, कार्यक्रम-विहीन और ‘मोदी-विरोध’ की आधारशिला पर वोट मांगने वाले ‘इंडिया’ गठबंधन के नाम और मोदी सरकार के काम के आधार पर ही आगामी लोकसभा चुनाव होगा।
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Manish Sahu
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