सम्पादकीय

लोकतंत्र के सामने

Subhi
7 Oct 2022 5:34 AM GMT
लोकतंत्र के सामने
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एक तरफ जहां नए दल उभर रहे हैं, वही कुछ राष्ट्रीय दलों के बीच सत्ता के लिए खींचतान का माहौल बना हुआ है। इसके चलते वोट बैंक, अध्यक्षता जैसे चुनावी मुद्दे ही उठाए जा रहे हैं और इन्हीं वजहों से जन मुद्दों पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा हैं। क्या एक लोकतांत्रिक देश में ऐसा होना चाहिए?

Written by जनसत्ता: एक तरफ जहां नए दल उभर रहे हैं, वही कुछ राष्ट्रीय दलों के बीच सत्ता के लिए खींचतान का माहौल बना हुआ है। इसके चलते वोट बैंक, अध्यक्षता जैसे चुनावी मुद्दे ही उठाए जा रहे हैं और इन्हीं वजहों से जन मुद्दों पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा हैं। क्या एक लोकतांत्रिक देश में ऐसा होना चाहिए?

लोकतंत्र जनहित के मुद्दों पर बात करता है, गांधीवादी सोच रखता है और इन आयामों को नजरंदाज करना बिल्कुल गलत है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी एक ऐसे भारत का सपना देखा करते थे, जहां जात-पात, अधर्म, आक्रोश न हो और सिर्फ जन मुद्दों को तव्वजो दी जाए। इस सपने को साकार करने के लिए वे खुद भी अपने स्तर पर प्रयास करते रहे।

मोहनदास करमचंद से महात्मा गांधी बनने तक उन्होंने देश के हित के बारे में सोचा और लोक हित के विषय को राष्ट्रीय विकास का आधार बताकर राजनीति में इस मानसिकता की आवश्यकता भी जताई। गांधी मानो जानते थे कि अगर राजनीति में सही विचारधाराओं का विस्तार नहीं हुआ तो लोकतंत्र का मुख्य आयाम जो लोक सेवा है, वह नकारा जा सकता है।

आज ऐसा ही हाल हम देख रहे, जहां जन मुद्दों पर न के बराबर ध्यान दिया जा रहा है। आज राजनीति बस राजनीति के लिए हो रही है, लोकतंत्र के लिए नहीं। आज राजनेताओं को यह बात समझने की जरूरत है कि वे किसलिए और किसके लिए सत्ता पर विराजमान हैं। लोगों की परेशानियों और उनसे जुड़े हर एक मुद्दों पर ध्यान देकर उस पर काम करना राजनीति का पहला कर्तव्य है। गांधीजी के विचारों को राजनेताओं को समझना होगा, तभी भारत में लोकतंत्र बना रहेगा। वरना हम अंजाम से भली-भांति परिचित हैं।

इटली में मुसोलिनी के बाद पहली बार दक्षिणपंथ से, वह भी महिला प्रधानमंत्री बनीं। वे खुलेआम कहती हैं कि वे शरणार्थी, गर्भपात से लेकर समलैंगिकता के खिलाफ हैं। अपनी पार्टी के प्रचार में उन्होंने अश्वेत लोगों के लिए भी अपना मत साफ कर दिया था। इससे वहां के अफ्रीकी मूल के अश्वेत डरे हुए हैं। जार्जिया मेलोनी और उनकी पार्टी ब्रदर आफ इटली चुनाव जीतने के बाद सुर्खियों में है। उनका मानना है कि इटली में शरणार्थी साफ तौर पर गरीबी और अपराध के मूलभूत कारण हैं।

दिलचस्प बात यह है कि इटली की ज्यादातर जनता उन्हे पसंद नहीं करती, पर साथ ही मेलोनी के सत्ता में आने को वक्त की दरकार समझती है, इसलिए उसका समर्थन भी करती है। उनको इटली के अड़सठ फीसद युवाओं का समर्थन है। जार्जिया को देखकर बहुत से राजनीतिक पंडित मुसोलिनी की याद कर रहे हैं। यों देखा जाय तो मुसोलिनी की पोती, रचेल मुसोलिनी ब्रदर्स आफ इटली की सदस्य भी हैं।

जार्जिया का आना इतना तो तय ही कर रहा है कि अब इटली के नए दोस्त उदार जर्मनी, फ्रांस, आस्ट्रिया जैसे मुल्क नहीं, पर कंजर्वेटिव देश जैसे पोलैंड और हंगरी होंगे। इटली यूरोपीय संघ का संस्थापक सदस्य था और तीसरे पायदान पर था। अब देखते हैं कि नया क्या बदलाव आने वाला है! यह यूरोप समेत एशिया के विभिन्न राष्ट्रों को यह संकेत भी है कि निकट भविष्य में अगर विभिन्न देशों में कट्टरपंथी सरकारों का आगाज देखने को मिलता है तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए।


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