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महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न और उसकी प्रकृति पर सुप्रीम कोर्ट का गुरुवार को जो रुख सामने आया है, उसके दूरगामी असर होंगे। एक नाबालिग बच्ची के यौन उत्पीड़न से जुड़े मामले में बांबे हाई कोर्ट ने इसी साल जनवरी में एक विचित्र फैसला दिया था।
महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न और उसकी प्रकृति पर सुप्रीम कोर्ट का गुरुवार को जो रुख सामने आया है, उसके दूरगामी असर होंगे। एक नाबालिग बच्ची के यौन उत्पीड़न से जुड़े मामले में बांबे हाई कोर्ट ने इसी साल जनवरी में एक विचित्र फैसला दिया था। अच्छा यह है कि वह मामला सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और वहां तीन न्यायाधीशों की पीठ ने न केवल नाबालिग बच्ची के यौन उत्पीड़न के मुकदमे को बेहद संवेदनशील तरीके से देखा-परखा, अपराध की प्रकृति की उचित व्याख्या की, बल्कि हाई कोर्ट के फैसले को खारिज करके उससे जुड़े आग्रहों पर भी सवाल उठाया।
बांबे हाई कोर्ट में न्यायाधीश ने इस आधार पर निचली अदालत में मिली दोषी की सजा को कम करके एक साल कर दिया था कि यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण करने संबंधी अधिनियम यानी 'पाक्सो' के तहत दी गई तीन साल की सजा को खत्म कर दिया था। फैसले में न्यायाधीश ने एक विचित्र तर्क रखा था कि चूंकि आरोपी पीड़ित बच्ची की त्वचा से त्वचा के संपर्क में नहीं आया और उसने कपड़ों के ऊपर से ही अवांछित हरकत की, इसलिए वह भारतीय दंड संहिता के तहत सिर्फ छेड़छाड़ का दोषी है।
निश्चित तौर पर यह ऐसी दलील थी, जो पाक्सो के मकसद को बाधित करती थी। लेकिन हमारे देश में शायद ऐसे ही असहज करने वाले हालात से बचने और अंतिम न्याय तक पहुंचने के लिए न्यायपालिका में बहुस्तरीय व्यवस्था की गई है, ताकि पीड़ित के हक में इंसाफ सुनिश्चित किया जा सके। इसी क्रम में सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को रद्द करते हुए साफ लहजे में कहा कि अधिनियम में दर्ज शब्दावली की ऐसी व्याख्या संकीर्ण और रूढ़िवादी है।
शीर्ष अदालत ने कहा यौन हमले को केवल 'त्वचा से त्वचा' के संपर्क में सीमित करके देखने से पाक्सो कानून का वह मकसद ही नाकाम हो जाएगा, जिसे हमने बच्चों को यौन उत्पीड़न से बचाने के लिए किया था। किसी भी यौन उत्पीड़न में सबसे अहम मंशा है।
जाहिर है, सुप्रीम कोर्ट ने इसके साथ ही एक तरह से समाज में महिलाओं के खिलाफ एक रूढ़िवादी, संकीर्ण और अमानवीय धारणा पर भी चोट की। यह किसी से छिपा नहीं है कि एक मर्दवादी मनोविज्ञान में जीते समाज में महिलाओं को लेकर अन्यायपूर्ण पूर्वाग्रह मौजूद रहे हैं और इसी का नतीजा है कि यौन कुंठा से पीड़ित पुरुष मौका पाते ही आपराधिक हरकत कर बैठता है। न्याय और समानता में विश्वास करने वाले समाज के साथ-साथ एक संवेदनशील व्यवस्था ऐसी कुंठाओं और अपराधों को कतई स्वीकार नहीं कर सकती।
दरअसल, महिलाओं और बच्चियों के खिलाफ यौन हिंसा के मामलों पर न केवल समाज का रवैया कई तरह के पुरुषवादी दुराग्रहों से भरा होता है, बल्कि अक्सर इससे संबंधित कानूनी प्रक्रिया में भी इसी तरह के पूर्वाग्रहों से संचालित विचित्र व्याख्याएं की जाती हैं। इस मसले पर पुलिस महकमे के निचले से लेकर कई बार उच्च स्तर के अधिकारियों का भी अपरिपक्व रवैया सामने आता रहा है, मगर आमतौर पर अदालतों से यह उम्मीद होती है कि वहां यौन हमले या उत्पीड़न से गुजरने वाली पीड़ित के खिलाफ हुए अपराध और उससे उपजे दुख पर संवेदनशील तरीके से विचार किया जाएगा।
अफसोस कि न सिर्फ कुछ वकील यौन हिंसा के मामले पर बहस करते हुए बेहद संवेदनहीन तरीके से मनमानी दलीलें पेश करते हैं, बल्कि कुछ न्यायाधीश भी ऐसे मुकदमों पर फैसला देते हुए अपराध की प्रकृति की विचित्र व्याख्या करने लगते हैं। यह रवैया न केवल पीड़ित को निराश करता है, बल्कि खुद न्यायपालिका के विवेक को कठघरे में खड़ा करता है। लेकिन बाम्बे हाई कोर्ट के संबंधित फैसले पर सुप्रीम कोर्ट का ताजा रुख इंसाफ की उम्मीद को कायम रखता है।
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