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संकट में पड़े लोगों को सहायता पहुंचाना सरकारों की जिम्मेदारी होती है। इस क्रम में यह देखना जरूरी नहीं होता कि किसी प्रभावित व्यक्ति ने मदद की मांग की है या नहीं।
संकट में पड़े लोगों को सहायता पहुंचाना सरकारों की जिम्मेदारी होती है। इस क्रम में यह देखना जरूरी नहीं होता कि किसी प्रभावित व्यक्ति ने मदद की मांग की है या नहीं। लेकिन कई बार संकट का दायरा बड़ा होता है और लोगों के सामने सरकार से मदद मिलने का इंतजार करने के बजाय उससे अपने स्तर पर निपटना प्राथमिक चुनौती होती है। कभी ऐसा भी हो सकता है कि सरकारी व्यवस्था में लापरवाही, कोताही या फिर कमी की वजह से संकट गहरा जाता है।
ऐसी स्थिति में एक सभ्य समाज में अपने आप मानवीय आधार पर एक दूसरे की मदद का एक असंगठित तंत्र काम करना शुरू कर देता है और हर संवेदनशील व्यक्ति अपनी सीमा में किसी जरूरतमंद की मदद करता है या जरूरी सूचनाएं पहुंचाता है। किसी भी समाज में इस तरह मदद की भावना को लोगों के संवेदनशील और मानवीय मूल्यों के प्रति जागरूक होने के तौर पर देखा जाना चाहिए। विडंबना यह है कि कई बार सरकारें इस तरह की गतिविधियों को खुद को कठघरे में खड़ा करने के तौर पर देखने लगती हैं। सवाल है कि जो काम करना सरकार की जिम्मेदारी है, उसमें नाकाम होने पर शर्मिंदगी महसूस करने के बजाय वह उल्टे एक दूसरे की मदद करने वाली जनता पर शिकंजा कसना क्यों शुरू कर देती है!
शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने इसी रवैए पर तीखा सवाल उठाया कि कोई भी राज्य कोविड-19 के बारे में सूचनाओं के प्रसार पर शिकंजा नहीं कस सकता है और इंटरनेट पर मदद की गुहार लगा रहे नागरिकों को यह सोच कर चुप नहीं कराया जा सकता कि वे गलत शिकायत कर रहे हैं। अदालत ने यहां तक कहा कि सोशल मीडिया पर लोगों से मदद के आह्वान सहित सूचना के स्वतंत्र प्रवाह को रोकने के किसी भी प्रयास को न्यायालय की अवमानना माना जाएगा।
शीर्ष अदालत का यह फैसला हाल ही में उत्तर प्रदेश प्रशासन के उस फैसले के संदर्भ में आया है, जिसमें कहा गया कि सोशल मीडिया पर महामारी के संबंध में कोई झूठी खबर फैलाने के आरोप में राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत मुकदमा चलाया जाएगा। एक खबर के मुताबिक उत्तर प्रदेश में एक व्यक्ति ने अपने अठासी वर्षीय बीमार दादा को ऑक्सीजन मुहैया कराने के लिए सोशल मीडिया पर मदद मांगी थी और पुलिस ने डर फैलाने का आरोप लगा कर उसके खिलाफ महामारी अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज कर लिया।
उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मदन बी लोकुर ने एक व्याख्यान में इस पर ठीक ही सवाल उठाया कि इस तरह मदद मांगने वाला व्यक्ति क्या कोई अपराध कर रहा है! उन्होंने कहा कि दरअसल ये तरीके और साधन हैं, जिनके जरिए बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में कटौती की जा रही है। दरअसल, पिछले कुछ दिनों से कोरोना संक्रमितों के इलाज के लिए अस्पतालों में बिस्तरों और ऑक्सीजन की कमी एक बड़ी समस्या बनी हुई है।
जाहिर है, यह स्थिति सरकार और समूचे स्वास्थ्य तंत्र के चरमरा जाने की वजह से आई है। ऐसे में लोग सोशल मीडिया के जरिए बीमारी की वजह से संकट में पड़े लोगों के लिए ऑक्सीजन या बिस्तर मुहैया कराने के लिए मदद की गुहार लगा रहे हैं और सूचना सार्वजनिक होने पर उन्हें सहायता मिल भी रही है। लेकिन इससे यह भी जाहिर हो रहा था कि सरकार की व्यवस्था में कमी है। और शायद उत्तर प्रदेश सरकार को यही बात खल गई। अफसोस की बात यह है कि आम लोगों की जिस पहलकदमी से सरकार को स्वास्थ्य सेवाओं में कमियों में सुधार की कोशिशें शुरू करनी चाहिए थी, नागरिकों की जागरूकता और संवेदनशीलता की तारीफ करनी चाहिए थी, उसने ऐसी सूचनाएं जारी करने वालों पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया।
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