सम्पादकीय

भाईचारे के हक में

Rani Sahu
26 April 2022 6:20 PM GMT
भाईचारे के हक में
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सर्वोच्च न्यायालय ने कल दो अलग-अलग मामलों में यह बिल्कुल साफ कर दिया कि देश के सांप्रदायिक भाईचारे से खिलवाड़ करने की छूट किसी को नहीं दी जाएगी और इसके लिए शीर्ष अधिकारी अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते

सर्वोच्च न्यायालय ने कल दो अलग-अलग मामलों में यह बिल्कुल साफ कर दिया कि देश के सांप्रदायिक भाईचारे से खिलवाड़ करने की छूट किसी को नहीं दी जाएगी और इसके लिए शीर्ष अधिकारी अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते। आला अदालत ने जहां रामनवमी के दिन विभिन्न राज्यों में हुई सांप्रदायिक हिंसा की वारदातों की न्यायिक जांच की मांग करने वाली याचिका को 'अगंभीर' मानते हुए खारिज कर दिया, तो वहीं एक अन्य मामले में रुड़की धर्म-संसद के संदर्भ में 'हेट स्पीच' को लेकर उत्तराखंड सरकार को आगाह करते हुए मुख्य सचिव की जवाबदेही तय करने की हिदायत भी दे डाली। यही नहीं, हिमाचल प्रदेश के ऊना जिले में हुई धर्म-संसद में वैधानिक दिशा-निर्देशों के कथित उल्लंघन को लेकर उसने राज्य सरकार से जवाब-तलब भी किया है। आरोप है कि ऊना जिले के मुबारकपुर गांव में हाल में आयोजित धर्म-संसद में उन्हीं लोगों ने फिर से सांप्रदायिक विष-वमन किया, जो हरिद्वार धर्म-संसद में आपत्तिजनक बयानबाजी के लिए गिरफ्तार हुए थे और फिलहाल जमानत पर हैं

रामनवमी से अब तक देश में सांप्रदायिक हिंसा की कई घटनाएं हो चुकी हैं और इन वारदातों का दायरा लगभग एक दर्जन राज्यों में फैल चुका है। ऐसे में, सुप्रीम कोर्ट की ताजा टिप्पणियां काफी महत्वपूर्ण हैं। यदि शीर्ष अधिकारियों की जिम्मेदारी तय होने लगे, तो प्रशासनिक लापरवाही की गुंजाइश ही नहीं रह बचेगी। यह जानते हुए कि सांप्रदायिक हिंसा से न सिर्फ पूरा सामाजिक ताना-बाना प्रभावित होता है, जान-माल की क्षति होती है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि धूमिल होती है, हमारा प्रशासनिक अमला प्राय: बेहतर नजीर नहीं पेश कर पाता। समाज के अगुवा लोग भी अब बहुत सक्रिय नहीं दिखते। आखिर शहरों की शांति समितियां कहां होती हैं? सद्भाव बनाए रखने का दायित्व सरकार के साथ-साथ समाज का भी है। आखिर जो लोग नुकसान हो जाने के बाद तिरंगा यात्रा निकालते हैं, वे उस वक्त कहां होते हैं, जब उनकी रहनुमाई की सबसे अधिक जरूरत होती है? कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है और देश गवाह है कि प्रशासनिक इच्छाशक्ति की बदौलत कई राज्य सरकारों ने किसी भी संप्रदाय के असामाजिक तत्वों को सिर नहीं उठाने दिया।
यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि सामाजिक उथल-पुथल देश की आर्थिक तरक्की को प्रभावित करती है। इससे निवेशक बिदकते हैं और राज्य की जो ऊर्जा तरक्की में लगनी चाहिए, वह सामाजिक सौहार्द की बहाली में खर्च करनी पड़़ती है। उत्तर भारतीय राज्यों के पिछड़ेपन का एक बड़ा कारण सांप्रदायिक तनाव रहा है। इसलिए सरकारों को ऐसे मामलों को गंभीरता से लेना चाहिए। यह देखना सुखद है कि उत्तर प्रदेश सरकार के सख्त और संतुलित रुख के कारण मंदिरों और मस्जिदों ने अपने तईं कदम उठाने शुरू कर दिए हैं। किसी भी धर्म में धर्मगुरुओं व पंथ-प्रधानों का काम गुमराह लोगों को सही रास्ता दिखाना होता है, इसकी एक सुदीर्घ परंपरा भारत में रही है, मगर धर्म की आड़ में राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की खेती अब इसे नुकसान पहुंचाने लगी है। व्यक्तिगत, सामुदायिक व राष्ट्रीय उत्कर्ष में सहायक धार्मिक आयोजनों से भला किसी को क्यों गुरेज होगा, पर उन्हें सामाजिक भाईचारे और देश के विकास में बाधक बनने से रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट से पहले तो समाज को ही खड़ा होना चाहिए।

क्रेडिट बाय हिन्दुस्तान

Rani Sahu

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