सम्पादकीय

वास्तव में विरोध जेएनयू की नई कुलपति के रूप में प्रोफेसर शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित का नहीं किया जा रहा है, बल्कि उस विचारधारा का किया जा रहा है, जिससे वह जुड़ी हुई हैं

Gulabi
28 Feb 2022 2:59 PM GMT
वास्तव में विरोध जेएनयू की नई कुलपति के रूप में प्रोफेसर शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित का नहीं किया जा रहा है, बल्कि उस विचारधारा का किया जा रहा है, जिससे वह जुड़ी हुई हैं
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वास्तव में विरोध जेएनयू की नई कुलपति के रूप में प्रोफेसर शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित का नहीं
प्रो. रसाल सिंह। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय यानी जेएनयू की नई कुलपति के रूप में प्रोफेसर शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित की नियुक्ति के विरोध में उठ रही आवाजें शांत होने का नाम नहीं ले रही हैैं। शांतिश्री देश के इस प्रतिष्ठित उच्च शिक्षा संस्थान की कुलपति के रूप में नियुक्त होने वाली पहली महिला शिक्षाविद् हैं। वह इसी विश्वविद्यालय की पूर्व छात्रा भी हैं। इसलिए भी यह उपलब्धि विशेष रूप से स्वागतयोग्य है, परंतु उनकी नियुक्ति अधिसंख्य लेफ्ट-लिबरल बुद्धिजीवियों, कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं और अभिजात्यवादी नेताओं को रास नहीं आ रही है। प्रोफेसर शांतिश्री ने कुलपति नामित किए जाने के बाद अपनी कार्यशैली, प्राथमिकताओं और भावी योजनाओं के बारे में मीडिया में एक बयान जारी किया। मंत्री न बनाए जाने के बाद से मोदी सरकार से खफा चल रहे वरुण गांधी ने इसमें व्याकरण की अशुद्धियों को रेखांकित करते हुए उनके अंग्रेजी भाषा ज्ञान पर सवाल खड़े किए और उसे 'निरक्षरता का प्रदर्शन' करार दिया। इसी तरह कथित किसान नेता योगेंद्र यादव ने उनके ऊपर कटाक्ष किए।
कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने भी जेएनयू की नई कुलपति शांतिश्री को अंग्रेजी ट्यूशन की जरूरत होने की बात कहते हुए उनका मखौल उड़ाया। यह मंडली उनके बयान का पोस्टमार्टम करते समय अंग्रेजी भाषा और व्याकरण की जगह उनके भावों, विचारों और दृष्टिकोण पर ध्यान देती तो उनका विरोध अधिक तर्कसंगत और औचित्यपूर्ण होता। संभवत: विरोध की झोंक में वे यह भूल गए कि भाषा माध्यम मात्र है, मूल नहीं। माध्यम मंतव्य का स्थानापन्न नहीं हो सकता। भाव से अधिक भाषा पर बलाघात श्रेष्ठता ग्रंथि का परिमाण है। सेंट पीटर्सबर्ग में जन्मीं शांतिश्री ने जेएनयू के अलावा प्रेसीडेंसी कालेज, चेन्नई और कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी से अपनी उच्च शिक्षा प्राप्त की है। उन्हें हिंदी, संस्कृत, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मराठी और कोंकड़ी आदि आधा दर्जन से अधिक भारतीय भाषाओं का ज्ञान है। इस नियुक्ति से पहले वह पुणे स्थित सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय की कुलपति भी रही हैं। विचारणीय बात यह है कि इतनी पढ़ी-लिखी और प्रबुद्ध प्रोफेसर शांतिश्री का विरोध क्यों किया जा रहा है और वह भी तब जब वह इस विश्वविद्यालय की पहली महिला कुलपति हैैं? वास्तव में विरोध प्रोफेसर शांतिश्री का नहीं किया जा रहा है, बल्कि उस विचारधारा का किया जा रहा है, जिससे वह जुड़ी हुई हैं। उनके विचारों से यह स्पष्ट है कि वह सनातन संस्कृति और राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रति आस्थावान हैं। जेएनयू अपने स्थापना-काल से ही वामपंथी विचारधारा का गढ़ रहा है।
यह उल्लेखनीय है कि जेएनयू के पूर्व कुलपति प्रोफेसर एम. जगदीश कुमार ने अभूतपूर्व वैचारिक संघर्ष वाले अपने छह वर्ष के कार्यकाल में इस वामपंथी वर्चस्व को संतुलित करने की कोशिश की है। अब वहां राष्ट्रवादी छात्रों, शिक्षकों और विचारों के लिए भी कुछ गुंजाइश बनी है। शांतिश्री द्वारा भी इसे आगे बढ़ाए जाने की संभावना है। इसीलिए उनका विरोध हो रहा है। लगता है उनके विरोधियों उन्हें जेएनयू के अकादमिक स्तर के गिरने की नहीं, बल्कि 'लाल किले' यानी वामपंथी गढ़ के ढहने की आशंका सता रही है। देश में जेएनयू की तरह अन्य कई ऐसे विश्वविद्यालय हैैं, जहां विचारधारा विशेष का वर्चस्व है। विश्वविद्यालय विचारधारा विशेष की किलेबंदी के स्थान नहीं हो सकते और न ही उन्हें होना चाहिए। एक समय यह स्थिति थी कि जेएनयू में वामपंथी विचार वाले ही नियुक्त हो सकते थे। जेएनयू भारत में ही है और भारतवासियों की खून-पसीने की कमाई से संचालित होता है। फिर इसके परिसर में भारत और भारत की संस्कृति की बात करना अमान्य कैसे हो सकता है? भारत के टुकड़े करने और कश्मीर की आजादी के नारे लगाने वालों के बरक्स भारत माता की जय और वंदे मातरम् के नारे लगाने वालों का प्रवेश निषेध क्यों? यदि जेएनयू में माक्र्स, माओ और चे ग्वेरा के साथ-साथ स्वामी विवेकानंद और पंडित दीनदयाल उपाध्याय का भी नाम सुनाई पडऩे लगा है तो परेशानी क्यों? क्या विश्वविद्यालयों में हर तरह की विचारधारा को स्थान नहीं मिलना चाहिए? दरअसल विरोध शांतिश्री का नहीं, बल्कि भारत माता की जय और वंदे मातरम् के नारों का है। सनातन संस्कृति और भारतीय जीवन-मूल्यों और दर्शन का है।
प्रोफेसर शांतिश्री के विरोध की दूसरी वजह दलितों-पिछड़ों और महिलाओं की भागीदारी को सीमित करने वाली सामंतवादी-अभिजात्यवादी सोच है। यही सोच महिलाओं के समुचित प्रतिनिधित्व की राह का भी रोड़ा है। महिला सशक्तीकरण का ढोल बजाने वालों की महिला विरोधी मानसिकता ऐसे प्रकरणों से गाहे-बगाहे उजागर हो जाती है। यह औपनिवेशिक और अभिजात्यवादी
मानसिकता ही है, जो अंग्रेजी भाषा के ज्ञान को ही योग्यता का चरम मानदंड मानती है। इसी तथाकथित योग्यता की आड़ में वंचित वर्गों का तिरस्कार, बहिष्कार और शिकार करती है। यह पश्चिमप्रेरित कुलीनता ही बाबा साहब डा. भीमराव आंबेडकर द्वारा प्रतिपादित सामाजिक न्याय, समता, समरसता और समान अवसरों की संकल्पना को सिरे नहीं चढऩे देती। भारत की शिक्षा-व्यवस्था आजादी के 75 साल बीत जाने के बाद भी अंग्रेजी चश्मा चढ़ाए ऐसे मैकाले-पुत्रों की गिरफ्त में है। शांतिश्री ने अपने बयान में राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 को लागू करते हुए भारत-केंद्रित चिंतन और पाठ को स्थापित करने का संकल्प व्यक्त किया है। शांतिश्री के कार्यकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि यही होगी कि वे ऐसी आधारहीन आलोचना की परवाह न करते हुए शिक्षा को मैकाले-पुत्रों के शिकंजे से मुक्त करते हुए उसका भारतीयकरण करें।

(लेखक जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)
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