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जस्टिस छागला की आत्मकथा का नाम है ‘रोजेज इन दिसंबर’
जयप्रकाश चौकसे । जस्टिस छागला की आत्मकथा का नाम है 'रोजेज इन दिसंबर'। लोकप्रिय अवधारणा है कि गुलाब के फूल दिसंबर माह में अपनी बहार पर होते हैं। लेकिन आजकल तो सभी फल और फूल बारहमासी हो गए हैं। खेती-बाड़ी के विज्ञान ने निरंतर शोध जारी रखा है। गौरतलब है कि जस्टिस छागला अपने युवा दिनों में मर्चेंट के रूप में जाने जाते थे परंतु उनका विश्वास रहा कि न्याय दिलाना कोई व्यवसाय नहीं है।
गणतंत्र व्यवस्था जिन चार स्तंभों पर खड़ी है, उनमें न्याय सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। अपने लंबे कॅरिअर में उन्होंने कई महत्वपूर्ण पदों पर निष्ठा के साथ काम किया है। जब वे अमेरिका में भारतीय राजदूत नियुक्त हुए तब उनसे किसी ने पूछा कि वे हिंदू हैं या मुसलमान? तो उन्होंने अपने जवाब में ही पूछने वाले से कड़वा सत्य जानना चाहा, उन्होंने उससे पूछा कि आप क्या हैं कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट हैं या यहूदी हैं?
बाद में छागला ने उसे समझाया कि वे भारतीय हैं और इससे अधिक कुछ जान लेने की कोई जरूरत नहीं है। उन्हें भारतीय होने पर गर्व रहा है। वह महज नारेबाजी वाला गर्व नहीं था। अदालत और न्याय से प्रेरित अनेक फिल्में बनाई गई हैं। अगाथा क्रिस्टी की 'विटनेस फॉर प्रॉसीक्यूशन' एक क्लासिक रचना मानी जाता है।
सुभाष कपूर की फिल्म 'जॉली एल.एल.बी' के पहले भाग में एक मंत्री पुत्र ने दोहरे नशे के कारण फुटपाथ पर सोए हुए सात लोगों को अपनी कार से कुचल दिया। उसे एक नशा तो अपने पिता के मंत्री होने का था और दूसरा नशा शराब का था। अमिताभ बच्चन और तापसी पन्नू अभिनीत 'पिंक' में भी अदालत का प्रकरण था। उसमें भी मंत्री पुत्र का अहंकार और हिंसा कयामत बरपाती है।
जस्टिस छागला ने बार-बार यह कहा है कि धर्मनिरपेक्षता समाज की रीढ़ की हड्डी की तरह है। बलदेव राज चोपड़ा ने 'कानून' नामक फिल्म बनाई थी। फिल्म के अंत में अपराधी, वकील का हमशक्ल जुड़वां भाई निकलता है। लेकिन वह गहरा रहस्य बनाकर पतली गली से निकल जाते हैं। हर क्षेत्र में पतली गलियां होती हैं। दलाली से अछूता कोई क्षेत्र नहीं है। पावर ब्रोकर भी होते हैं
कई क्षेत्रों में दलाली दी जाती है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा की आमिर खान अभिनीत 'रंग दे बसंती' में हथियार खरीदने वाले दलाल का पुत्र ही अपने पिता को दंडित करता है। अदालत परिसर में झूठी गवाही का व्यवसाय करने वाले दो पात्रों की झूठी गवाही के कारण एक निर्दोष व्यक्ति दंडित हो जाता है। अमिताभ बच्चन, संजीव कुमार और शशि कपूर अभिनीत फिल्म 'ईमान-धरम' को सराहा नहीं गया।
सलीम-जावेद ने बाद में स्वीकार किया कि उनकी पटकथा में ही गंभीर त्रुटियां हो गई थीं। एक कथा है कि पावर ब्रोकर के घर पर प्राय: दावत दी जाती हैं। इन्हीं दावतों में बड़े-बड़े सौदे भी किए जाते हैं। पावर ब्रोकर का किशोर वय का पुत्र चोरी छुपे इन दावतों में ताकाझांकी करता है। वह अपने पिता के शयन कक्ष में कई अनैतिक स्तर की पत्रिकाएं देखता है, जिनकी सामग्री देखकर वह भी अनैतिक राह पर निकल पड़ता है।
एक युवा दलाल उससे कहता है कि ऐश करने के लिए वह एक पांच सितारा होटल में एक कमरा ले वहां वह उसकी इच्छा पूरी करने का मौका देगा। युवा दलाल, कन्या से कहता है कि दोपहर में थोड़ा समय अमीरजादे के साथ बिताने के एवज में उसे पैसा मिलेगा। एक किशोर लड़के-लड़की की मनोदशा को बड़े साहसिक अंदाज में इस रचना में प्रस्तुत किया गया है।
बहरहाल, रचनाओं पर अश्लीलता के आरोप पर कोई रचना अभी तक प्रतिबंधित नहीं हुई है। जेम्स जॉयस के उपन्यास यूलिसिस पर मुकदमा दायर हुआ। जस्टिस वूल्जे का ऐतिहासिक फैसला यह है कि रचनाकार की मंशा क्या है? क्या उसने सनसनी बेची है? हर रचना में रचनाकार की नीयत महत्वपूर्ण सिद्ध होती है। कुल मिलाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी को रोक नहीं सकती।
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