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- चंबा चौगान के बचाव
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By: divyahimachal
एक प्रतिष्ठित नागरिक एवं पद्मश्री पुरस्कार विजेता विजय शर्मा के पत्र का संज्ञान लेते हुए माननीय उच्च न्यायालय ने चंबा चौगान के किनारे निर्माण को हटाने का आदेश दिया है। सार्वजनिक मैदान और चंबा नगर विकास योजना का उल्लंघन करते हुए नगर परिषद चौगान के चारों तरफ दुकानें बनवा रही थी, जिसे तुरंत प्रभाव से अब हटाना होगा। यह निर्णय एक साथ कई संदेश और नव निर्माण के चरित्र पर टिप्पणी कर रहा है। एक ओर टीसीपी कानून के सीधे उल्लंघन पर अदालत सख्त हो रही है, जबकि दूसरी ओर वह नागरिक समाज की चिंताओं को अधिमान भी दे रही है। आश्चर्य यह कि नगर परिषद शहर के व्यवस्थित विकास की योजना की पहरेदार बनने के बजाय, उसे ही लूट रही थी। कमोबेश इसी तरह हर शहर की योजना में संस्थागत अतिक्रमण जारी है। खास तौर पर सरकारी इमारतों ने शहरों में ऐसे जंगल बसा दिए हैं, जिन्हें हटाने की दरकार है। आज तक यह ऑडिट नहीं हुआ है कि नगर निकायों की संपत्तियों के कौन मालिक बने बैठे हैं। इतना ही नहीं दुकानों के नाम पर हर शहर में सरकारी धन का बेहूदा इस्तेमाल करके आबंटन की मिलीभगत में सियासी स्वार्थ पूरे किए जा रहे हैं। यहां मसला उस सीना जोरी का भी है जो शहर की सूरत संवारने के बजाय बिगाड़ रहा है। इतना ही नहीं कातिल निगाहें पारंपरिक मैदानों, सार्वजनिक स्थानों, धार्मिक व पर्यटक स्थलों को निगल रही हैं। कभी सुजानपुर का मैदान अपने आकार में एक राज्यस्तरीय धरोहर था, लेकिन इमारतों के बढ़ते दायरे ने इसका भी दम घोंट दिया।
पहले ही चंबा के चौगानों में व्यापार के मंसूबे खोद दिए गए हैं और अब रही सही कसर मुख्य मैदान को नोंच कर पूरी की जा रही है। कुछ वर्ष पूर्व इसी तरह धर्मशाला के नेता जी सुभाष स्टेडियम के एक छोर पर जनता के भारी विरोध के बावजूद पुलिस ने अपने भवन की छाती ठोंक दी। यह सरकारी कार्यालयों, परियोजनाओं और स्थानीय निकायों का अतिक्रमण है, जो गांव से शहर तक के सुकून को छीन रहा है। अगर प्रसिद्ध चित्रकार विजय शर्मा इस मामले को हाई कोर्ट न ले जाते, तो चंबा चौगान की छाती पर दुकानें उग कर आबंटित भी हो जातीं। धर्मशाला और शिमला की स्मार्ट सिटी परियोजनाओं के तहत भी जमीन घेरने के कई परिकल्प चल रहे हैं। धर्मशाला के गांधी पार्क की सीमित जमीन पर स्मार्ट सिटी का पैसा यूं ही करीब तीन दर्जन दुकानों के निर्माण को तरजीह दे रहा है। यह स्थान प्रकृति और पार्क के महत्त्व को कम करके कल खानपान की मार्केट में तबदील हो जाएगा। नव निर्माण की सूलियों पर एक तो सरकारी धन जाया हो रहा है, दूसरे ऐसे विकास की कोई परिभाषा विकसित नहीं हो रही। बेशक रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए आधुनिक बाजारों का निर्माण करना होगा, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि सार्वजनिक उपयोग की जमीन या सामुदायिक मैदानों में निर्माण के तंबू गाड़ दिए जाएं। चंबा में दुकानों का निर्माण तो कहीं भी हो सकता है, मगर फिर से ऐसा चौगान शायद ही विकसित होगा।
होना तो यह चाहिए कि हर शहर की चारों दिशाओं में सामुदायिक मैदान विकसित किए जाएं ताकि लोग किसी को सैरगाह, मनोरंजन, खेल या व्यापारिक उद्देश्य से सार्वजनिक रूप से इस्तेमाल कर सकें। हाई कोर्ट के आदेश में शहरी विकास योजनाओं का महत्त्व भी समझाया जा रहा है। विडंबना यह है कि किसी भी शहर का विकास योजनाओं के तहत नहीं हो रहा है। पिछले तीन दशकों में हिमाचल के प्राकृतिक सौंदर्य को नवनिर्माण का इस हद तक ग्रहण लगा है कि मनाली, मकलोडगंज, डलहौजी, शिमला व कसौली जैसे हिल स्टेशन अब न रूह से और न ही भौगोलिक शर्तों से खुद को अलहदा कर पा रहे हैं। हर धार्मिक स्थल भी अपनी पवित्रता को निर्माण गतिविधियों से चोट पहुंचा रहा है। कहना न होगा कि सरकारी धन से निर्माण की गतिविधियों को अनुशासित व भविष्योन्मुखी करने के बजाय सार्वजनिक भूमि के इस्तेमाल को बिगाडऩे में लगाया जा रहा है। चंबा में दुकानों के निर्माण को रोक कर अदालत ने जो रास्ता दिखाया है, उसके आलोक में एक केंद्रीय एजेंसी के मार्फत से ऐसी तमाम परियोजनाओं व शहरी विकास योजनाओं की पड़ताल जरूरी हो जाती है।
Rani Sahu
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