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- दुराग्रहों की दुनिया...
सरस्वती रमेश: इंसान कभी कंदराओं में रहता था। कंदमूल और मांस खाता था। नदियों का पानी पीता था। तब आग की खोज बड़ी उपलब्धि साबित हुई। सभ्यता विकास के क्रम में उसने धरती के गर्भ में दबे बहुमूल्य संसाधनों की खोज की। इस खोज के साथ ही उसके अंदर सुख की चाहत उपजी। उसकी आवश्यकताएं बढ़ीं। इन आवश्यकताओं के बारे में अर्थशास्त्री मार्शल ने कहा- 'मानवीय आवश्यकताएं असीमित हैं। जबकि इनकी पूर्ति के साधन सीमित।' और फिर संसाधनों के सीमित रहने के कारण शोषण की प्रवृत्ति बढ़ी।
इस शोषण की सबसे बड़ी वजह है अनंत आवश्यकताओं की पूर्ति की चाहत और विलासिता की हमारी भूख। इसी चाहत और भूख के कारण आलीशान घर एक से बढ़ कर एक बेहतरीन और आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित होने लगे। आंखों को सुख पहुंचाने वाली सुंदर चीजें हर ओर सजाई जाने लगीं। इनकी देखरेख, झाड़-पोंछ के लिए कई-कई नौकर लगाए गए।
कपड़ों की बढ़िया से इस्त्री करने के लिए प्रेस वाला। पौधों की उचित देखभाल के लिए माली। आने-जाने वालों पर नजर रखने के लिए चौकीदार। घर की देख-रेख के लिए नौकर। खाना पकाने के लिए कुक और सुबह-शाम किसी भी वक्त बाजार, हाट, दफ्तर, घर पहुंचाने के लिए ड्राइवर। पाषाण युग से आया इंसान विलासिता का इतना आदि हो जाएगा, कुछ शताब्दी पहले तक कोई सोच भी नहीं सकता था।
आज साधन संपन्न लोगों का सब कुछ व्यवस्थित है। उनके हुक्म की तामील समय पर हो रही है। वे अपने सुख-सुविधा से भरे घर में आते हैं और नरम गद्दों पर आराम फरमाते हैं। नौकर उन्हें पानी देता है। खाना देता है। जूठी प्लेट उठाता है। बिस्तर की सलवटें ठीक करता है। उनका बैग ठीक जगह रखता है। उनके जूते रैक में लगाता है। मैले कपड़े हटाता है और उन्हें हर इच्छित सेवा उपलब्ध करवाता है। फिर भी कइयों को नित नए सुख की तलाश रहती है। वे बाजार से और सुख खरीद लाते हैं और नवीनतम संपन्नता अपने घर में सजाते हैं। नौकर, ड्राइवर, चौकीदार, माली, रसोइयां नेपथ्य में चले जाते हैं। अपने साधनों की ढेर में वे उन्हें भी एक साधन मानने लगते हैं। उनके सुखों को अक्षुण्ण रखने वाले साधन।
मुट्ठी भर इन लोगों को लगता है छोटे काम करने वाले लोगों के दिल नहीं होते, अहसास नहीं होते और प्राथमिकताएं तो बिल्कुल नहीं होती। उनकी प्राथमिकताएं इन लोगों की आवश्यकताओं के आगे कुछ भी नहीं। छोटे लोगों का जीवन अमीरों के दिए चंद नोटों का गुलाम है। उनकी इच्छाएं दुस्साहस है। उनके सपने आपकी जिंदगी के क्षुद्र कोनों के समान उपेक्षित हैं।
इन छोटों से घुलने में आपका अहम आड़े आता है। वे जरा-सा भी अपना हाथ पैर नहीं हिलाना चाहते। घर के काम करने में शर्म आ चुकी है। वाट्सऐप और फेसबुक का स्टेटस आ चुका है और उन कागज के नोटों का अभिमान आ चुका है जो उनकी तिजोरियों में पड़े है। ऊंची तन्ख्वाह लेने वाले हमारे युवाओं को झोला लेकर रेहड़ी का आसरा देखना पड़ रहा है। पटरी के गरीबों से साग-सब्जी लाने में शर्म आती है। सुविधाएं इकट्ठी कर वे स्वयं को किसी उच्च कोटि का मानव समझने लगे हैं।
हमारी संवेदनाएं सुख सुविधाओं की गिरफ्त में हैं। हमारी बाहरी दुनिया असंवेदनशील मशीनों, सामानों से लैस है। जिसकी परछाई हमारी भीतरी दुनिया की दीवारों पर पड़ रही है। सुविधाओं और सुख के मकड़जाल में भीतर की नम दीवारें लगातर छीज रही हैं। जो मूल्य और नैतिकता कभी हमारे भीतर ठोस रूप में मौजूद थे, वह जीवन में विलासिता के आगमन से भुरभुरा कर गिरने लगे हैं। संपन्नता और वैभव की आपाधापी में हमारी संवेदना किसी खाई में गिर रही है। कितने ही घर हैं, जहां नौकरों से काम लेते वक्त अनैतिकता और अमानवीयता की सारी सीमाओं को लांघ दिया जाता है।
लोग दौलत और इज्जत कमाने में इतने मशगूल हैं कि वे भूल जाते हैं कि उनकी एड़ियों तले मनुष्य होने के लिए जरूरी न्यूनतम संवेदनाएं कुचली जा रही हैं। सड़क पर चलते हुए मैंने कितने सुविधा संपन्न लोगों को गरीब रिक्शेवाले और ठेले वालों पर उनकी जरा सी गलती के लिए चीखते-चिल्लाते देखा है। कितने ही अमीरजादे महंगी गाड़ियों से बैठ कर किसी भी गरीब पर अपना हाथ उठाने को अपना अधिकार समझ लेते हैं। शोषण की जो धारणा सदियों से चली आ रही है उसे बाहर आते देर नहीं लगती। अपने से नीचे के तबके के लोगों को दबाने का चलन-सा है। फिर हमें रोजमर्रा की सेवाएं मुहैया करवाने वाले तो सबसे नीचे तबके से ताल्लुक रखते हैं। भला वे शोषण से कैसे बच सकते हैं।
लोगों की सोच है कि 'जो हूं, मैं हूं। मेरा काम है। मेरी शानो-शौकत है। ये मेरे टुकड़े पर पालने वाले लोग हैं।' लेकिन क्या कभी आपने सोचा कि इन 'छोटों' के बिना आपके चार चांद लगी दुनिया का क्या हश्र होगा? अगर नहीं सोचा तो सोचिए कि आपकी बड़ी दुनिया में इन छोटे लोगों की क्या अहमियत है! दरअसल, जिन्हें 'छोटा' कहा जाता है, वे एक सुचिंतित सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में वंचित हैं।