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- उम्मीदों के चक्रव्यूह...
Written by जनसत्ता: पांच या दस पैसे दो, एक पर्ची उखाड़ लो। उसको खोलने पर अगर उसमें दर्ज नंबर लाटरी के पोस्टर पर छपे नंबरों से मेल खा जाता, तो उस नंबर के संग छपे नोट का इनाम निकल आता। वरना टांय-टांय फिस्स। पिछले दिनों केरल के एक व्यक्ति की पच्चीस करोड़ रुपए की लाटरी निकलने की खबर आई थी। उस व्यक्ति के बारे में बताया गया कि उसकी माली हालत इतनी खस्ता थी कि उसने अपने बेटे की गुल्लक से पचास रुपए निकाल कर टिकट खरीदने के लिए पांच सौ रुपए पूरे किए थे।
लाटरी से करोड़पति बनने वालों की तो इक्का-दुक्का खबरें ही आती हैं, लेकिन करोड़ों लोग हर रोज अपना मेहनत से कमाया रुपया-पैसा यों ही लुटा बैठते हैं। उनके टूटे अरमानों का क्या? जबकि इस मामले में साढ़े छियासठ लाख टिकटें बेच कर करोड़ों रुपए के मुनाफे के साथ असली और ज्यादा फायदा तो लाटरी विक्रेता का रहा। दरअसल, लाटरी की एक टिकट खरीदते ही हसीन सपनों का कारवां आंखों के सामने तैरने लगता है। यह बेशक सपनों का टिकट होता है। हरेक टिकट के खरीदार का सपना होता है, उम्मीद भी और विश्वास भी कि पहला इनाम उसी के नाम होगा।
यही सोच उसे टिकट खरीदने के लिए हतोत्साहित नहीं करती। जहिर है कि लाटरी फटाफट खजाने के ऐसे द्वार खोलती है, जो महज किस्मत पर निर्भर करता है। आज पंजाब, केरल, गोवा, पश्चिम बंगाल, असम, महाराष्ट्र वगैरह देश के कुल तेरह राज्यों में करोड़ों रुपए इनाम की लाटरियां प्रलोभन और प्रचार का ऐसा जाल बुना जाता है कि कई बार आम आदमी सम्मोहित होने से बच नहीं पाता।
देश में लाटरी बेचने का खयाल पहले पहल केरल सरकार को 1966 में आया और अगले साल 1967 में वहां लाटरी शुरू हो गई। शुरू करने के पीछे दलील थी कि लाटरी की टिकट बेचना जनता पर कर का भार डाले और वसूले बगैर राज्य की आय बढ़ाने का बेहतरीन जरिया है।
साथ ही, इससे गरीबों को अमीर बनने का सुनहरा मौका तो मिलता ही है। देखा-देखी तब केरल के पीछे-पीछे जम्मू और कश्मीर को छोड़ कर देश के सभी राज्य अपनी-अपनी लाटरी निकालने लगे। शुरुआती दौर में लाटरी के टिकट के खरीदार का नाम और पता दर्ज करने का कायदा था।परिणाम निकलने पर लाटरी के खरीदार को लाटरी विक्रेता या एजेंट सूचित कर देते थे। मगर अब जीतने वाले लाटरी धारक को खुद अखबार में अपना नंबर देखना पड़ता है।
आमतौर पर तीस दिन के भीतर इनाम न लेने पर राज्य सरकार इनाम राशि रख लेती है। विभिन्न राज्य सरकार अब तक करोड़ों रुपए ऐसे ही हजम कर चुकी हैं, क्योंकि टिकट गुम होने या परिणाम न देखने की भूल की सूरत में रकम का कोई दावेदार नहीं होता।
कुछ साल पहले एक सर्वे से यह सामने आया कि लाटरी की टिकटों की बिक्री की कुल आमदनी की अस्सी से पचासी फीसद रकम आम जनता में ही बंटती है। सबसे ज्यादा चालीस से पैंतालीस फीसद रुपए विजेताओं को बतौर इनाम, करीब दस फीसद प्रचार-प्रसार और पांच फीसद टिकटों की छपाई और एजेंट के हिस्से में बीस फीसद आता है।
शेष पंद्रह से बीस फीसद मुनाफा राज्य सरकारों द्वारा जन-कल्याण योजनाओं में लगाया जाता है। देश में लाटरी का सालाना कारोबार पचास हजार करोड़ रुपए का है। नए लोगों को और फंसाने के लिए राज्य हर साल नव वर्ष, होली, पूजा, दिवाली जैसे त्योहारों से जुड़े कई बंपर ड्रा आयोजित करते हैं। लेकिन राज्यों को साल में ज्यादा से ज्यादा छह बंपर ही निकालने की इजाजत है।
हालांकि देश की राज्य सरकारें ही लाटरियों का संचालन करती हैं। कोई उद्यमी या कारोबारी कानूनन लाटरी का धंधा नहीं कर सकता। लाटरी को चक्रव्यूह ही समझा जा सकता है। हारने वाला हार की भरपाई करने के लिए जीत की उम्मीद में खेलता जाता है, तो जीतने वाला और जीतने के लिए।
जुआ रोकने के लिए सरकारें कानून बनाती हैं, जुआरियों-सट्टेबाजों की धर-पकड़ करती हैं। जबकि लाटरी की टिकटों के जरिए सरकार खुद करोड़ों मासूमों को कथित 'सरकारी जुआ' खेलने का न्योता देती है। लाटरी की बिक्री से एकत्रित धन से जन कल्याण सुविधाएं मुहैया करने के उद्देश्यों को सामने रख कर जनता को खुलेआम 'सरकारी जुआ' खेलने में लगा कर लूटना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। गौरतलब है कि 1990 के दशक में लंबी लड़ाई लड़ कर दिल्ली समेत कई राज्यों से लाटरी का सफाया कर दिया गया था।