सम्पादकीय

550 ईसा पूर्व में मीठी ब्रेड के नाम पर पड़ा था पैंक्रियाज का नाम, जबकि डायबिटीज का तब नामोनिशान नहीं था

Rani Sahu
12 Oct 2021 9:19 AM GMT
550 ईसा पूर्व में मीठी ब्रेड के नाम पर पड़ा था पैंक्रियाज का नाम, जबकि डायबिटीज का तब नामोनिशान नहीं था
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जबकि डायबिटीज का तब नामोनिशान नहीं था

मनीषा पांडेय हमारे शरीर के बाएं हिस्‍से में आंतों के पीछे की ओर एक ऑर्गन होता है, जिसका नाम है पैंक्रियाज. इस पैंक्रियाज का काम है एक हॉर्मोन का निर्माण करना, जो हॉर्मोन हमारे भोजन में मौजूद कार्बोहाइड्रेट, शुगर और फैट यानि वसा को ऊर्जा में तब्‍दील करने का काम करता है. इस हॉर्मोन का नाम है इंसुलिन. इंसुलिन क्‍या है और कैसे काम करता है, ये तो मेडिकल साइंस का विषय है, लेकिन इस इंसुलिन की खोज कैसे हुई, ये अपने आप में बहुत रोचक कहानी है.

जाहिर है, लंबे समय तक मानव शरीर का अध्‍ययन करने वाले चिकित्‍सकों और वैज्ञानिकों को पैंक्रियाज का पता भी नहीं था. जब पैंक्रियाज का पता चला, तब भी ये नहीं पता था कि इसका काम क्‍या है. एक अनुमान के मुताबिक 335 ईसा पूर्व में एक ग्रीक अनाटॉमिस्‍ट और सर्जन हेराफिलस को पहली बार शरीर में पैंक्रियाज नाम के इस अंग के बारे में पता चला. उसके भी कई सौ साल बाद एक दूसरे ग्रीक अनाटॉमिस्‍ट रुफुस ऑफ इफिसस ने इस अंग को पैंक्रियाज नाम दिया.
मीठी ब्रेड के नाम पर पड़ा पैंक्रियाज का नाम
लातिन भाषा में पैंक्रियाज शब्‍द का अर्थ होता है स्‍वीटब्रेड. ये कमाल की बात है कि तब तक मेडिकल साइंस को ये पता नहीं था कि इंसुलिन का डायबिटीज या मधुमेह नाम की बीमारी से कोई सीधा कनेक्‍शन है या कि ये कि इंसुलिन की कमी या अधिकता से ही हमारे खून में शुगर का स्‍तर बढ़ने या घटने लगता है, लेकिन फिर भी इस अंग का नाम मीठी ब्रेड के नाम पर पड़ गया. क्‍या ये महज एक संयोग था.
इंसुलिन की खोज कैसे हुई ?
ये 1869 की बात है. बर्लिन में मेडिसिन का एक छात्र पॉल लैंगरहैंस माइक्रोस्‍कोप से पैंक्रियाज का अध्‍ययन कर रहा था. इस बार माइक्रोस्‍कोप में पॉल को पैंक्रियाज में एक खास तरह की कोशिकाओं का समूह दिखा, जो पूरे पैंक्रियाज में बिखरी हुई थी. इसके पहले कभी वैज्ञानिकों ने इन कोशिकाओं पर गौर नहीं किया था.
पैंक्रियाज की रहस्‍यमय कोशिकाएं
बाद में फ्रांस के एक पैथोलॉजिस्‍ट और हिस्‍टोलॉजिस्‍ट (जीव विज्ञान की एक शाखा, जिसमें माइक्रोस्‍कोप से किसी चीज की एनाटॉमी का अध्‍ययन किया जाता है) ने कहा कि संभवत: इन्‍हीं कोशिकाओं से वह स्राव निकलता है, जो भोजन के पाचन में मदद करता है. उसके बाद काफी समय तक दुनिया के विभिन्‍न हिस्‍सों में वैज्ञानिक पैंक्रियाज की उन रहस्‍यमय कोशिकाओं का अध्‍ययन करने की कोशिश करते रहे, लेकिन कोई बड़ी सफलता हाथ नहीं लगी.
पैंक्रियाज निकाला तो यूरिन में बढ़ गई शुगर की मात्रा
पॉल लैंगरहैंस की खोज के तकरीबन 20 साल बाद 1889 में एक जर्मन फिजिशियन और फिजियोलॉजिस्‍ट ऑस्‍कर मिन्‍कोव्‍स्‍की ने एक और जर्मन फिजिशियन जोसेफ वॉन मेरिंग के साथ मिलकर एक प्रयोग किया. शरीर में पैंक्रियाज की भूमिका को समझने के लिए उन्‍होंने एक कुत्‍ते के शरीर से पैंक्रियाज निकाल दिया. वो ये देखना चाहते थे कि पैंक्रियाज के न होने से उसकी पाचन प्रक्रिया पर क्‍या प्रभाव पड़ता है. जब उन्‍होंने एक कुत्‍ते के यूरिन की जांच की तो पाया कि उस यूरिन में शुगर की मात्रा बहुत ज्‍यादा थी. जब तक उसके शरीर में पैंक्रियाज था और वो अपना काम कर रहा था, तब तक यूरिन में शुगर नहीं था.
पॉल लैंगरहैंस ने पैंक्रियाज में उन कोशिकाओं की खोज की, जो इंसुलिन नामक हॉर्मोन का निर्माण करती थीं. लैंगरहैंस के नाम पर ही इंसुलिन को लंबे समय तक 'इसेट्स ऑफ लैंगरहैंस' कहा जाता रहा था.
डायबिटीज का सीधा रिश्‍ता पैंक्रियाज से था
यह पहली बार था, जब वैज्ञानिकों को पता चला कि पैंक्रियाज का शुगर के साथ कोई रिश्‍ता है. साथ ही यह भी साफ हो गया कि इंसान के शरीर में होने वाली बीमारी डायबिटीज का भी सीधा संबंध पैंक्रियाज के साथ है. लेकिन अभी तक यह स्‍पष्‍ट नहीं हुआ था कि यह सीधा संबंध दरअसल है क्‍या.
जब विश्‍व युद्धों ने रोक दी वैज्ञानिक रिसर्च
लगभग दो दशकों तक वैज्ञानिक पैंक्रियाज से निकलने वाले स्राव को उससे अलग करने का प्रयास करते रहे. इसी तरह वह इंसान के शरीर में उस स्राव की भूमिका का पता लगा सकते थे. 1906 में यहूदी मूल के जर्मन डॉक्‍टर जॉर्ज लुडविग जुल्‍जर पैंक्रियाज से निकलने वाले स्राव से कुत्‍तों का इलाज करने में सफल रहे, लेकिन किन्‍हीं कारणों से उन्‍हें अपना शोध बीच में ही रोकना पड़ा. 1911-12 में शिकागो यूनिवर्सिटी में ई. एल. स्‍कॉट ने पैंक्रियाज से उसके स्राव को अलग करने की कोशिश की और उन्‍होंने पाया कि ऐसा करने से शरीर में ग्‍लूकोज का स्‍तर गिर गया. यह एक महत्‍वपूर्ण खोज थी, लेकिन स्‍कॉट भी अपना शोध जारी नहीं रख पाए क्‍योंकि उनके डायरेक्‍टर इस खोज की विश्‍वसनीयता से सहमत नहीं हुए. 1915 में रॉकफेलर यूनिवर्सिटी में अमेरिकन बायोकेमिस्‍ट इसराइल सिमोन क्लिनर भी तकरीबन इसी नतीजे पर पहुंचे, लेकिन तभी दुनिया में पहला विश्‍व युद्ध छिड़ गया और वह शोध बीच में ही अटक गया.
रोमानिया का वो डॉक्‍टर और डायबिटीज का इलाज
1916 में रोमानिया के एक फिजियोलॉजिस्‍ट और मेडिसिन के प्रोफेसर निकोल पॉल्‍स्‍क्‍यू ने पैंक्रियाज से निकलने वाले स्राव को एक जगह इकट्ठा करके उसे प्रिजर्व किया, जिसे विज्ञान की भाषा में उसका एक्‍स्‍ट्रैक्‍ट तैयार करना कहते हैं. उन्‍होंने यह एक्‍स्‍ट्रैक्‍ट एक डायबिटिक कुत्‍ते के शरीर में इंजेक्‍ट किया और उसके नतीजे चौंकाने वाले थे. उसके खून में शुगर का स्‍तर इस एक्‍स्‍ट्रैक्‍ट को डालने से सामान्‍य हो गया था. उन्‍हें भी पहले विश्‍व युद्ध के चलते अपने शोध का काम बीच में ही रोकना पड़ा.
युद्ध खत्‍म होने के बाद 1921 में उन्‍होंने अपने शोध पर चार पेपर्स लिखे और फिर एक किताब लिखी- "रिसर्च ऑन द रोल ऑफ पैंक्रियाज इन द फूड एसिमिलेशन."
पैंक्रियाज से निकलने वाला यह स्राव, जिसे लंबे समय तक वैज्ञानिकों के बीच इसेट्स ऑफ लैंगरहैंस कहा जाता रहा था (क्‍योंकि सबसे पहले उन्‍होंने ही उन कोशिकाओं की खोज की थी), को इंसुलिन नाम दिया अंग्रेज फिजियोलॉजिस्‍ट एडवर्ड अल्‍बर्ट ने 1916 में.


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