सम्पादकीय

इमरान की बढ़ती मुश्किलें

Subhi
16 March 2022 4:10 AM GMT
इमरान की बढ़ती मुश्किलें
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इमरान खान की कट्टरपंथी ताकतों को समर्थन देने की नीतियां भी आम जनमानस की परेशानी बढ़ा रही हैं। पाकिस्तान को आतंकवादियों के हिमायती देशों की सूची से बाहर निकालने की चुनौती बरकरार है।

ब्रह्मदीप अलूने: इमरान खान की कट्टरपंथी ताकतों को समर्थन देने की नीतियां भी आम जनमानस की परेशानी बढ़ा रही हैं। पाकिस्तान को आतंकवादियों के हिमायती देशों की सूची से बाहर निकालने की चुनौती बरकरार है। वित्तीय कार्रवाई कार्य बल (एफएटीएफ) की निगरानी सूची में बने रहने से देश की अर्थव्यवस्था चरमरा रही है।

अतिवाद, सत्ता की अधिनायकवादी प्रवृति, धार्मिक कट्टरता और सैन्य हस्तक्षेप के साथ लोकतंत्र का संचालन संभव नहीं हो सकता। यही कारण है कि पाकिस्तान में एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता का संकट गहरा गया है। इस मुल्क में अगले साल आम चुनाव होने वाले हैं। उसके पहले कई विपक्षी दल लामबंद होकर इमरान खान की सरकार को हटाने के लिए मोर्चे पर आ डटे हैं। बढ़ती महंगाई, बेतहाशा कर्ज, कट्टरवादी ताकतों की मोर्चाबंदी, महिलाओं पर अत्याचार, मुल्क के कई हिस्सों में पृथकतावादी आंदोलन और अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के बाद पाकिस्तान आने वाले शरणार्थी संकट ने इमरान सरकार की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं।

गौरतलब है कि पाकिस्तान के जन्म से अब तक लगभग आधे वक्त तक सेना ने सीधे तौर पर शासन किया है। यह भी माना जाता है कि इस देश में लोकतांत्रिक सरकार में भी सुरक्षा और विदेशी मामलों में सेना का पूरा दखल रहता है। यदि कोई राजनीतिक दल सेना के हितों को प्रभावित करने की कोशिश करता है, तो फिर उसके लिए सत्ता में बने रह पाना मुश्किल हो जाता है। पाकिस्तान में कोई भी राजनीतिक दल इतना मजबूत न हो कि वह सेना को चुनौती दे सके, इसे लेकर पाकिस्तान का सैन्य तंत्र हमेशा चौकस रहता है।

इस बार भी सेना की भूमिका संदिग्ध है। पाकिस्तान में इस समय कोई भी नेता सर्वमान्य नहीं है और ऐसा लगता है कि सेना इमरान खान को भी सीमित रखना चाहती है। अब तक सेना पाकिस्तान मुसलिम लीग और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को एक-दूसरे खिलाफ अक्सर खड़ा करती रही है, उनकी राजनीतिक कमजोरियों को उजागर करके और दबाव बढ़ा कर यह सुनिश्चित किया जाता है कि कोई भी सरकार अपना कार्यकाल पूरा न कर सके।

इमरान खान को नेशनल असेंबली में व्यापक समर्थन हासिल नहीं है। ऐसे में उनकी सरकार के बने रहने को लेकर असमंजस के बादल हमेशा से छाए रहे हैं। इस बार जिस तरह से तमाम राजनीतिक दल इमरान खान का विरोध कर रहे हैं, उसके बाद सत्ता में बने रहना इमरान खान के लिए आसान नहीं होगा। अविश्वास प्रस्ताव पेश करने का फैसला विपक्षी पार्टियों के साझा सम्मेलन में किया गया है। विपक्षी गठबंधन की पार्टियों का दावा है कि उनके पास अविश्वास प्रस्ताव को लेकर नेशनल असेंबली के दो सौ सदस्यों का समर्थन हासिल है।

अविश्वास प्रस्ताव की कामयाबी के लिए एक सौ बहत्तर वोटों की जरूरत है। अभी तक सत्तारूढ़ पार्टी पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ (पीटीआइ) को सहयोगी दलों के साथ एक सौ अठहत्तर सदस्यों का समर्थन हासिल है। यह भी बेहद दिलचस्प है कि राजनीतिक रूप से धुर विरोधी मानी जाने वाली आसिफ अली जरदारी, मौलाना फजलुर्रहमान और शाहबाज शरीफ इमरान खान की सरकार को हटाने के लिए साझा प्रयास कर रहे हैं।

इन सबके बीच इमरान खान का अभी तक का कार्यकाल पाकिस्तान की जनता के लिए मुश्किलें बढ़ाने वाला ही रहा है, खासतौर से महंगाई और आर्थिक मोर्चे पर। एक रिपोर्ट के मुताबिक पाकिस्तान पर इस समय करीब इक्यावन लाख करोड़ (पाकिस्तानी) रुपए का कर्ज और देनदारियां हैं। इसमें से करीब इक्कीस लाख करोड़ रुपए का कर्ज सिर्फ वर्तमान सरकार के शासन में बढ़ा है।

देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और कर्ज के बीच के अनुपात की बात की जाए तो यह लगभग तीस फीसदी है। इमरान खान विदेशी कर्जों की रिकार्ड अदायगी का दावा तो करते हैं, लेकिन हकीकत में उनके कार्यकाल के दौरान देश का कुल विदेशी कर्ज अब तक के उच्चतम स्तर पर पहुंच चुका है। पाकिस्तान में महंगाई भी बेतहाशा बढ़ी है। रोजमर्रा का सामान खरीदना लोगों के लिए दूभर हो गया है। विश्व बाजार में वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि, पाकिस्तानी रुपए की कीमत में कमी और सरकार की तरफ से लागू की गई कर नीतियों ने आम जनता के जीवन को और बड़े जोखिम में धकेल दिया है।

नए पाकिस्तान का ख्वाब दिखा कर सत्ता में आए इमरान खान की कट्टरपंथी ताकतों को समर्थन देने की नीतियां भी आम जनमानस की परेशानी बढ़ा रही हैं। पाकिस्तान को आतंकवादियों के हिमायती देशों की सूची से बाहर निकालने की चुनौती बरकरार है। फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) की निगरानी सूची में बने रहने से देश की अर्थव्यवस्था चरमरा रही है।

इससे पाकिस्तान को हर साल करीब दस अरब डालर का नुकसान हो रहा है। इमरान खान, बेनजीर भुट्टो की हत्या के लिए जिम्मेदार माने जाने वाले आतंकी संगठन तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के प्रति उदार रुख के लिए भी आलोचना झेलते रहे हैं। यह आतंकी संगठन पाकिस्तान में शरिया पर आधारित एक कट्टरपंथी इस्लामी शासन कायम करना चाहता है।

पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा पर मौजूद इलाकों में टीटीपी का खासा प्रभाव है। तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान पर पाकिस्तान में चरमपंथ की कई घटनाओं को अंजाम देने का आरोप है। अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता वापसी के बाद अफगानिस्तान-पाकिस्तान सरहदी इलाकों में टीटीपी का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। इमरान खान ने टीटीपी से सख्ती से निपटने की अपेक्षा यह अपील की कि टीटीपी से जुड़े लोग अगर हथियार डाल देते हैं तो उन्हें माफ कर दिया जाएगा और वे आम लोगों की तरह जीवन बिता सकेंगे।

इमरान खान की पार्टी तहरीक ए इंसाफ का जनाधार ज्यादातर पठानों में हैं और उनके मतदाताओं की बड़ी तादाद खैबर-पख्तूनख्वाह में है। यह इलाका अफगानिस्तान से लगता हुआ है। इमरान खान के समर्थन से अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता में वापसी तो हो गई है, लेकिन इससे पाकिस्तान को ही जूझना पड़ रहा है। लाखों अफगान शरणार्थी पाकिस्तान के विभिन्न इलाकों में रह रहे हैं। देश में बेरोजगारी पहले ही चरम पर है और शरणार्थियों के आने से यह संकट और गहरा गया है। डूरंड रेखा को लेकर अफगानिस्तान और पाकिस्तान में पहले ही तनातनी रहती है। तालिबान के आने से सीमा पर झड़पें बढ़ गई हैं। इमरान खान की नीतियों के उलटा पड़ने से पाकिस्तान का आम नागरिक तो गुस्से में है ही, सेना में भी असंतोष बढ़ा है।

गौरतलब है कि 2018 के आम चुनाव में इमरान खान की पार्टी को समर्थन देकर सेना ने पाकिस्तान की लोकतांत्रिक संस्था पर पूरी तरह से कब्जा कर लेना की योजना को बखूबी अंजाम दिया था। पाकिस्तान चुनाव आयोग ने सेना के इशारे पर अभूतपूर्व कदम उठाते हुए पहली बार पोलिंग बूथ के अंदर भी सेना को तैनात करने का फैसला किया,इसके अलावा मतपत्रों की छपाई करने वाले सरकारी छापेखानों को भी सेना के हवाले किया गया है। मतपत्रों और चुनाव से संबंधित अन्य सामग्रियों की हिफाजत करने के लिए भी सेना की सेवाएं ली ली गई थीं। बूथ के अंदर सेना ने कर्मचारियों और मतदाताओं पर कड़ी नजर रखते हुए इमरान खान की विजय सुनिश्चित कर दी थी।

पाकिस्तान में लोकतांत्रिक बहाली के प्रयासों में अपनी जान गंवाने वाली बेनजीर भुट्टो सेना, आइएसआइ और आतंकी गठजोड़ से लड़ती रहीं थीं। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा भी था कि फौजी हुकूमत छल-कपट और सजिश के खतरनाक खेल खेलती है। जबकि लोकतांत्रिक सत्ता को इस बात का डर हमेशा रहता है कि कहीं सत्ता हाथ से न निकल जाए।

इसलिए वह हमेशा दुविधा भरी घबराहट में रहते हुए, आधुनिक फौजी ताकतों से अपने बचाव का इंतजाम करती रहती है। जाहिर है, पाकिस्तान में सेना एक बार फिर लोकतंत्र का गला घोंटने की ओर अग्रसर है। अब सेना के निशाने पर इमरान खान हैं। हो सकता है सेना इमरान खान को दबाव में लाकर उनकी सत्ता तो बचा ले, लेकिन इसके नतीजे कट्टरपंथ, आतंकवाद को बढ़ाने वाले और लोकतंत्र के लिए आत्मघाती ही होंगे।


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