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जनता से रिश्ता वेबडेस्क। पिछले कुछ दशकों में अर्थव्यवस्था और समाज में भारतीय राज्य की भूमिका के बारे में सार्वजनिक विमर्श एक गलत परिपाटी पर चला गया है। नेहरूवादी राज्य और समाजवादी नीतियों की विफलता ने सरकार और विशेष रूप से सरकारी कर्मचारियों के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया को उत्पन्न किया। लाइसेंस-कोटा परमिट राज, अक्षम नौकरशाही और बेलगाम भ्रष्टाचार ने सरकारी व्यवस्था के विरुद्ध माहौल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके चलते सरकार को समस्या के समाधान नहीं, बल्कि समस्या के जनक के रूप में देखा जाने लगा।
इसका एक नतीजा यह भी हुआ कि 1990 के दशक के बाद से सरकार के आकार को कम करने का तर्क व्यापक समर्थन पाने लगा। खासतौर पर शहरी मध्य वर्ग और नीति निर्माताओं द्वारा सरकार में सुधार करने की वकालत की जाने लगी। महत्वपूर्ण मुद्दा यह बना कि सरकारी विभागों और सार्वजनिक क्षेत्रों में अधिकारियों और कर्मचारियों की संख्या को कम करना है। इसके पीछे यह धारणा काम कर रही थी कि सरकारी क्षेत्र में जरूरत से ज्यादा नौकरियां हैं, जिन्हेंं कम करके सरकारी घाटे को कम किया जा सकता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि भारत में सार्वजनिक क्षेत्र का रोजगार -अनुपात दुनिया में सबसे कम है।