सम्पादकीय

पाठ्यक्रम बदलाव की राजनीति के निहितार्थ

Rani Sahu
25 April 2022 12:03 PM GMT
पाठ्यक्रम बदलाव की राजनीति के निहितार्थ
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भारत में शैक्षणिक पाठ्यक्रम एक ऐसा सवाल बन कर रह गया है

Faisal Anurag

भारत में शैक्षणिक पाठ्यक्रम एक ऐसा सवाल बन कर रह गया है, जो हर समय सत्ता के निशाने पर रहता है. एक बार फिर सीबीएससी के पाठ्यक्रम में बदलाव कर दिए गए हैं. इस बार संकेत बहुत साफ हैं क्योंकि निशाने पर केवल इतिहास की स्वायत्तता ही नहीं बल्कि लोकतंत्र और बहुलतावादी भारत का विचार भी है. पाठ्यक्रम में बदलाव की एक प्रक्रिया होती है. लेकिन जब शिक्षा पर किसी विचारधारा के नजरिए को पूरी तरह थोपने की प्रवृति हावी हो तो एक प्रक्रिया को नजरअंदाज कर दिया जाता है, जो बच्चों को प्रश्नाकुल माहौल देता है. भारत एक संवैधानिक लोकतंत्र है और संविधान की प्रस्तावना के कुछ मूलभूत सार्वभौमिक स्थापनाएं हैं.
इसमें भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक विविधता महत्वूपर्ण है. 1998 के बाद से ही शैक्षणिक पाठ्यक्रम को पूरी तरह बदल देने के कई उपक्रम किए जाते रहे हैं. बिड़ला-अंबानी के नेतृत्व में शिक्षा के पूरे ढांचे के पूंजीवादीकरण के लिए कमेटी भी बनी थी. 2014 के बाद भारत के इतिहास के मध्यकाल को पूरी तरह बदलने की प्रवृति जोर शोर पर है. लेकिन इस बार जिन अध्यायों को पाठ्यक्रम से हटाने का एलान किया गया है, उसके निहितार्थ बताते हैं कि शिक्षा को विचारधारात्मक स्वतंत्रता से दूर कर एकतरफा बनाने की दिशा तय कर दी गयी है.
पाठ्यक्रम से केवल मध्यकालीन इतिहास के कुछ महत्वपूर्ण अध्याय को ही नहीं हटाया गया है, बल्कि आजादी के बाद भारत के लिए गौरव के विषय रहे सच्चाइयों को भी हटा दिया गया है. इसमें एक है गुटनिरपेक्ष आंदोलन. यह वही गुटनिरपेक्ष आंदोलन है, जिसने शीतकालीन युद्ध के दौर में दुनिया के अनेक नव स्वतंत्र देशों को साम्रज्यवादी खेमे से बाहर रखा और एक तरह से दुनिया को एक बड़े युद्ध से भी बचा लिया. यहां ध्यान देने की बात यह है कि पिछले आठ सालों में देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू सत्ता के निशाने पर रहे हैं. पहले नेहरू मेमोरियल स्मारक का नाम बदला गया और अब गुटनिरपेक्ष आंदोलन को पाठ्यक्रम से ही हटा दिया गया.
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