- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- अपरिपक्व बोल
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। जम्मू-कश्मीर में पिछले साल जब अनुच्छेद तीन सौ सत्तर की समाप्ति हुई, तो उसका एक संदर्भ यह भी था कि इससे भारत की संप्रभुता को अक्षुण्ण बनाए रखने में मदद मिलेगी। लेकिन तब स्थानीय राजनीति में उथल-पुथल की आशंका के मद्देनजर वहां के कुछ नेताओं को नजरबंदी जैसी स्थिति में रखा गया। हाल ही में इस मसले पर सरकार ने पहलकदमी करते हुए कई नेताओं को नजरबंदी से छुटकारा दिया है, ताकि वहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत करने की ओर कदम बढ़ाए जा सकें।
इसके बाद जब जम्मू-कश्मीर के छह दलों ने मिल कर राज्य का विशेष दर्जा वापस दिलाने के लिए एक नया मोर्चा बनाने की घोषणा की, तब ऐसा लगा भी कि अब भारतीय संविधान के तहत वहां नए सिरे से राजनीतिक गतिविधियों की शुरुआत होगी। लेकिन अब पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी यानी पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती ने जिस तरह की अपरिपक्वता दर्शायी है, उससे यही लगता है कि या तो उन्हें स्थानीय तकाजों का खयाल नहीं है या फिर वे महज अपनी राजनीतिक उपस्थिति दर्ज कराने के मकसद से कोई नया विवाद खड़ा करना चाहती हैं।
फिलहाल महबूबा मुफ्ती भारत के एक राज्य जम्मू-कश्मीर में मुख्यधारा के राजनीतिकों में शुमार हैं और वहां के एक बड़े दल यानी पीडीपी की अध्यक्ष हैं। इसका मतलब यह होता है कि उनकी पार्टी भारत की संप्रभुता, लोकतांत्रिक प्रणाली और संवैधानिक व्यवस्था के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताती है। इसके तहत राजनीतिक मतांतर या असहमति और यहां तक कि लोकतांत्रिक परंपरा के तहत प्रतिद्वंद्विता का भी उन्हें अधिकार है।
लेकिन एक सबसे अहम राष्ट्रीय प्रतीक राष्ट्रीय झंडे को लेकर उन्होंने जो राय जाहिर की है, वह न केवल भारत की संप्रभुता की भावना को चोट पहुंचाने की कोशिश है, बल्कि खुद उन्हें एक अगंभीर नेता के रूप में सामने रखती है। गौरतलब है कि पिछले हफ्ते एक संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने कहा था कि जब तक हम लोगों को अपना झंडा वापस नहीं मिल जाता, हमलोग भारतीय झंडे को भी नहीं उठाएंगे। उनके इस बयान का आधार यह हो सकता है कि अनुच्छेद तीन सौ सत्तर के तहत जम्मू-कश्मीर को जो विशेष दर्जा प्राप्त था, उसमें राज्य को अलग झंडा रखने का अधिकार भी शामिल था। लेकिन चूंकि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा रहा है तो इससे यह बात कैसे निकल सकती है कि राष्ट्रीय झंडे को खारिज किया जाए! निश्चित तौर पर यह भारत की संप्रभुता की भावना को चोट पहुंचाने की तरह है।
यह अलग से बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि एक प्रतीक रूप में राष्ट्रीय झंडा समूचे देश को एक सूत्र में बांध कर रखता है और उसका सम्मान करना देश के सभी नागरिकों का कर्तव्य है। आमतौर पर इसे सभी लोग समझते हैं। यह बेवजह नहीं है कि खुद पीडीपी के तीन सदस्यों ने अपनी पार्टी के अध्यक्ष के बयान के बाद पार्टी से इस्तीफा देना ही उचित समझा। इसके अलावा, सहयोगी दल नेशनल कॉन्फ्रेंस की ओर से भी महबूबा मुफ्ती के बयान से किनारा करते हुए कहा गया कि राष्ट्र की एकता और संप्रभुता सर्वोपरि है।
जाहिर है, महबूबा मुफ्ती ने ऐसे संवेदनशील बयान के जरिए जिस समर्थन की उम्मीद की थी, वह पूरी नहीं हो सकी। बल्कि राज्य के विशेष दर्जे की बहाली के मकसद से आंदोलन करने के लिए हाल ही में बने गठबंधन के भीतर भी उन्हें प्रमुख सहयोगी दल समर्थन नहीं मिल सका। सवाल है कि अगर वे भारत के एक राज्य में मुख्यधारा की राजनीति करती हैं और वहां के अलगाववादी तत्त्वों का समर्थन नहीं करती हैं तो उन्हें देश के राष्ट्रीय झंडे से क्यों दिक्कत होनी चाहिए!