सम्पादकीय

चुनावों में जीत-हार तय करती हैं समाज और जनता के बीच राजनीतिक नेताओं की बनी छवियां

Gulabi
18 Jan 2022 5:07 AM GMT
चुनावों में जीत-हार तय करती हैं समाज और जनता के बीच राजनीतिक नेताओं की बनी छवियां
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समाज और जनता के बीच राजनीतिक नेताओं की बनी छवियां
बद्री नारायण। कई बार लगता है कि हमारे समाज में यथार्थ से अधिक छवियां प्रभावी होती हैं। राजनीतिक नेताओं के संदर्भ में तो लगता है कि उनका प्रभाव उनकी छवियों के माध्यम से ही सृजित होता है। उनकी छवियां ही जनता से उन्हें जोड़ती हैं। छवियां कभी भी एकदम सच जैसा नहीं होतीं, उनमें कुछ जुड़ता-घटता भी रहता है। कई बार यह प्रक्रिया जन संवादों में सहज ही चलती रहती है, किंतु आज की बाजार शासित दुनिया में छवि प्रबंधन एक विधा की तरह राजनीति में महत्वपूर्ण हो गई है। अनेक कंपनियां छवियों के निर्माण के उद्योग में शामिल हो गई हैं। चुनावी विश्लेषणों में नेताओं एवं राजनीतिक दलों के प्रभाव की व्याख्या के क्रम में हम प्राय: यह सुनते हैं कि किस नेता ने कितनी रैलियां कीं? किस दल के प्रचार में कितने नेता आए? हम यह नहीं सोचते कि रैलियों के बाद जब नेता भाषण देकर चले जाते हैं तब क्या होता है? नेता जब रैलियां करके चले जाते हैं तब उनकी छवियां रैली स्थल से निकलकर गांवों, गलियों, चौपालों में लोगों के मन एवं संवादों में टहलती रहती हैं। कौन नेता क्या बोला? नेता कैसा है? इत्यादि बातें कई दिनों तक लोगों के बीच चर्चा में आती रहती हैं। नेताओं की छवियां उनमें ऊहापोह भी पैदा करती हैं। इन्हीं टकरावों के बीच जनता अपने मन-मस्तिष्क में समन्वय बिठाकर अपना राजनीतिक पक्ष तय करती है।
उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। किसी भी नेता की रैली रोज-रोज तो नहीं हो सकती, किंतु रोज-रोज उसकी छवि जनता के बीच उसके लिए संवाद करती रहती है। लोग दैनंदिन जीवन में जिस नेता को देखेंगे और सुनेंगे, उसकी छवि को अपने-अपने ढंग से अपने बीच गढ़ेंगे। हाल में कानपुर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रैली के बाद हम लोग एक गांव में लोगों से बात कर रहे थे। एक दलित समूह के वृद्ध उनकी तारीफ कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा आप जानते हैं कि मोदी जी कौन हैं? उन्होंने कहा, देश के बड़का नेता हैं। कई जगह लोग बड़े नेताओं को प्राय: महात्मा गांधी से जोड़ देते हैं। अगर उपेक्षित सामाजिक समूह किसी नेता का संबंध अपने मन में महात्मा गांधी से जोड़ता है तो इसका तात्पर्य यह है कि वह उस नेता को अपने मन में महात्मा गांधी का उत्तराधिकारी मानता है। उसके लिए महात्मा गांधी का अर्थ है-नेतृत्व की कसौटी का उच्चतम पायदान।
हाशिये पर अवस्थित समुदाय अपने जीवन मूल्यों के आलोक में ही अपने नेतृत्व की छवियों को रचता है।
ईमानदारी और त्याग जैसे जीवन मूल्यों से वह अपने नेताओं की छवियों को रंगता है, फिर उसे औरों के आगे भी प्रस्तुत करता है। कई जनजातीय आबादी वाले गांवों-बस्तियों में रहने वाली जनता से जब किसी नेता की तारीफ हम सुनते हैं तो उसमें यह नहीं आता कि वह क्या पहनता है? कैसा दिखता है? किसी नेता के तारीफ में बार-बार यही आता है कि वह कितना ईमानदार है? कितना त्यागी है? उसके मूल्यांकन का दूसरा आधार होता है कि वह नेता काम कैसा कर रहा है? उसकी योजनाएं कैसे जनता तक पहुंच रही हैं? उनके मूल्यांकन का तीसरा आधार होता है कि उसके शासन में उन्हें क्या मिला, क्या नहीं मिला? हाशिये पर बसा समाज इन्हीं आधारों पर नेतृत्व की छवियों को विस्तार देता है।
स्पष्ट है नेताओं की छवियां दैनंदिन लोगों के मन-मस्तिष्क पर उनका प्रभाव रचती हैं। इसी प्रक्रिया में मौखिक संवादों में आती-जाती ये छवियां अपने प्रभावों में वृद्धि करती जाती हैं। एक ही समय में एक नेता की कई छवियां भी एक ही समाज में बन रही होती हैं। एक ही नेता की कई विरोधी छवियों में समन्वय कर जनता उनसे अपना संबंध स्थापित करती है। किसी नेता की छवियों में सकारात्मक एवं नकारात्मक, दोनों ही प्रकार के अंत:तत्व होते हैं। गांवों एवं दूरस्थ इलाकों में रहने वाले लोगों में नकारात्मक तत्वों पर कम ध्यान जाता है। जनतांत्रिक विमर्श में एक ही समय में एक ही गांव-बस्ती या समाज में प्रतिद्वंद्वी नेताओं की छवियां आपस में टकराती भी हैं। जैसे उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की छवि से अखिलेश यादव की छवि का टकराव काफी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। समर्थक इनकी छवि अपने संवाद के जरिये प्रस्तुत करते हैं। वहीं विरोधी उनकी छवि की नकारात्मकता उजागर करते हैं। यह भी देखा जा सकता है कि सीमांत पर बसे समूह भले ही वोट किसी और को देने जा रहे हों, पर तारीफ एक साथ कई नेताओं की करते हुए पाए जाते हैं। जब राजनीति एक-दूसरे के विरुद्ध लगातार आक्रामक होती जा रही है, तब सीमांत पर बसे सामाजिक समूहों में नेताओं की छवियों के प्रति ऐसी सदाशयता भारतीय समाज के समाहार की मूल प्रवृत्ति का उदाहरण पेश करती है।
अनेक बार छवियां सच से अधिक प्रभावी होती हैं। सच तो एक तथ्य की तरह अपना प्रत्यक्ष असर छोड़ता है, परंतु छवियां अप्रत्यक्ष रहकर सच के प्रभाव को विस्तारित करते हुए प्रभावी बनाती हैं। इसीलिए कहा जाता है कि सच से ज्यादा प्रभावी होती है, सच की छाया। इसे आजकल हम लोग चुनावी व्याख्याओं में नैरेटिव सेट करना या धारणा बनाना कहते हैं। शायद इसीलिए चुनावों में आज जीत-हार छवियों के प्रभाव से तय होती जा रही है। जैसे उत्तर प्रदेश में नरेन्द्र मोदी, योगी आदित्यनाथ, अखिलेश यादव, मायावती और प्रियंका गांधी की अनेक छवियां लोगों के मन में बन-बिगड़ रही हैं, वैसे ही दूसरे राज्यों में भी। देखना है किसकी छवि कितना प्रभावी होकर उसके पक्ष में चुनाव की गति को मोड़ देती है।
(लेखक जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, प्रयागराज के निदेशक हैं)
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