सम्पादकीय

बाथरूम में हूं…

Rani Sahu
29 Jun 2023 7:03 PM GMT
बाथरूम में हूं…
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आजकल लगभग मैं बाथरूम में ही पाया जाता हूं। मैंने बाथरूम से बाहर रूम में रहकर देख लिया, सिवाय परेशानियों के और कुछ नहीं है। बाथरूम के बड़े फायदे हैं। पत्नी का यह तकिया कलाम स्थायी हो गया है कि मैं बाथरूम में हूं। मेरे कई भय हैं जिनके कारण मुझे इसमें जाना पड़ा है। खासतौर से जब से फोन लगा है, तब से मैं इसमें समाहित-सा हो गया हूं। सुबह-सुबह मेरे एक प्रकाशक मित्र का फोन आता है, जिनसे सिवाय वाहियात वार्तालाप के अलावा कुछ हासिल नहीं हो पाता। रायल्टी का हिसाब-किताब करीब-करीब क्लीयर-सा है, ऐसी स्थिति में मेरा बाथरूम में चले जाना ही श्रेष्ठ है, सो मुझसे मिलते हैं तो यही शिकायत प्रमुखता से करते हैं कि मैं बाथरूम में क्यों चला गया हूं। उनसे तो असलियत क्या बताऊं, यही कह पाता हूं कि डॉक्टर ने साफ-सफाई के प्रति जागरूक रहने को कहा है, सो ज्यादा समय वहीं रहना पड़ता है। वे रहस्यमयी मुस्कान के साथ कहते हैं-‘थोड़ा लिखना-पढऩा रेगुलर करो। इस तरह कैसे चलेगा। इस तरह तो आपका लेखक मर जाएगा।’ मैं मन में सोचता हूं कि उनकी बकवास से मरने की एवज बिना लिखे-पढ़े मर जाना ज्यादा बेहतर है। उधार मांगने वालों से पूरी तरह सुरक्षित हूं। वे फोन पर ही झल्लाते हैं-‘उन्हें निकालिए बाथरूम से। पूरा एक साल गुजर गया-कब देंगे हमारी उधारी?’ पत्नी घाघ हो गई है, कहती है-‘उन्हें पहले बाथरूम से बाहर आने दो, पता करती हूं कि उन्होंने आप जैसे अव्यावहारिक आदमी से उधार क्यों ली? उधार ली है तो मर थोड़े ही रहे हैं हम। एक-एक पाई चुका देंगे, लेकिन बातचीत ढंग से किया करो। थोड़ी तमीज सीखो।’ उधार उगाहने वाले दुर्जन ठंडे पड़ जाते हैं-‘वह क्या था? जब भी फोन करता हूं, तब वे बाथरूम में होते हैं। कभी बाहर भी तो मिलें।’ पत्नी कह देती है-‘अब आप फोन ही तब करते हैं, जब वे बाथरूम में होते हैं।’ वे कहते हैं-‘अच्छा थोड़ी देर बाद में फोन कर लूंगा।’ वे पुन: फोन करते हैं, तब तक मैं ऑफिस चला जाता हूं। कुछ लोग मुझे मेरे दफ्तर के काम से फोन करते हैं। उन्हें भी मैं बाथरूम में मिलता हूं।
उनकी मांग होती है कि उन्हें जरूरी काम था। पत्नी कहती है कि जरूर होगा आपको जरूरी काम, अन्यथा आप टेलिफोन करते ही क्यों। वे कहते हैं-‘कब तक बाहर आएंगे वे।’ पत्नी कहती है कि बाहर आ गए तो बीमार हो जाएंगे तथा ऑफिस नहीं जाएंगे, क्योंकि बाथरूम में ज्यादा समय रहने से उन्हें जुकाम हो गया है। वे कहते हैं-‘उनके दफ्तर का ही काम था, कल तो जाएंगे?’ पत्नी कहती है-‘यदि वे बाथरूम में नहीं गए तो जरूर जाएंगे दफ्तर।’ इस तरह की पहेलीबाजी से मैं इनसे बचा रहता हूं? यही क्यों, और भी शुभचिंतक हैं, जो मुझसे कुछ लिखवाना चाहते हैं, मांगना चाहते हैं, सलाह-मश्विरा करना चाहते हैं अथवा यों ही गप्प मारकर समय जाया करना चाहते हैं। उन सबके लिए मैं बाथरूम मैं हूं। मेरी जेनुइन समस्या तो कोई समझता-सुनता नहीं और मुझे पलक झपकते ही देखना चाहते हैं। मेरे अदृश्य होने का सुरक्षित स्थल है बाथरूम, जहां पूरी शांति के साथ मैं गुनगुनाता हूं। पानी से खेलता हूं या साबुन का झाग फुलाकर आइने में शक्ल देखता हूं। मुझे दूसरों की एवज अपनी शक्ल देखना ज्यादा प्रिय लगने लगा है। इसीलिए मैंने बाथरूम में बड़ा शीशा लगाया है। वैसे कुछ शुभचिंतक यह भी कहने लगे हैं कि मैंने बाथरूम को बहाना बना लिया है। मेरा उनको खुला जवाब है कि यदि वे अपनी आदतों से बाज आएं तो मुझे बाथरूम से बाहर आने में कोई कठिनाई नहीं है। हो सकता है बाथरूम मेरा बहाना भी हो। जो लोग व्यक्तिश: मिलने आते हैं, वे घंटे भर तक बैठक में बैठने के बाद बोर हो जाते हैं और अंत में यह कहकर उठ खड़े होते हैं कि फिर आएंगे। अभी तो उन्हें समय लगता दिखाई है। पत्नी यहां भी चतुराई से काम लेती है कि बाथरूम से सीधे ही पूजाघर में जाएंगे और पूजा करेंगे। जबकि मैंने आज तक एक अगरबत्ती भी नहीं जलाई है पूजाघर में जाकर। अब मैं एक योजना पर भी विचार कर रहा हूं कि बाथरूम का विस्तार किया जाए ताकि शयनकक्ष की सुविधाएं भी वहीं जुटाई जा सकें। मैं एक छोटा दीवान वहां लगाना चाहता हूं तथा रजाई-गद्दे की व्यवस्था भी वहीं देखना चाहता हूं ताकि नहाने के तुरंत बाद में शयनकक्ष के तमाम लाभ ले सकूं।
पूरन सरमा
स्वतंत्र लेखक

By: divyahimachal

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