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मंदिरों पर सरकारों के अवैध कब्जे: केंद्र सरकार को समावेशी मंदिर प्रबंधन कानून बना कर सभी मंदिरों को उनके संप्रदायों को कर देना चाहिए वापस
[ विकास सारस्वत ]: हाल में विश्व हिंदू परिषद ने सरकार से हिंदू मठ और मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर हिंदू समाज को वापस करने की मांग की। विहिप के कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार ने पूछा कि 'सरकार क्यों तय करे कि मंदिर का पुजारी कौन होगा और वहां पूजा कैसे होनी चाहिए?' यह भारतीय व्यवस्था में उत्पन्न विकृति का ही प्रमाण है कि शासन न तो सही मायने में पंथनिरपेक्ष है और न ही पंथसापेक्ष। अन्यथा ऐसा संभव नहीं था कि सरकारें अन्य मतों को छोड़ केवल हिंदू धार्मिकप्रतिष्ठानों को अपने कब्जे में लेने का साहस करतीं। 15 राज्यों में करीब चार लाख मंदिरों पर प्रत्यक्ष या परोक्ष सरकारी नियंत्रण, संविधान के अनुच्छेद 26 द्वारा प्रदत्त उस मौलिक अधिकार का सीधा हनन है, जिसके तहत प्रत्येक समुदाय को अपनी धार्मिक संस्थाओं की स्थापना, प्रबंध और प्रशासन की स्वतंत्रता है। बाकी मतों को छोड़कर केवल हिंदू मंदिरों पर नियंत्रण अनुच्छेद 14 एवं 15 में दिए समानता के मूल अधिकार का भी अतिक्रमण है।
विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा मंदिर नियंत्रण हेतु प्रवर्तित कानून सामाजिक न्याय एवं कुप्रबंधन को बहाना बनाकर लाए गए, परंतु सरकारी नियंत्रण में मंदिरों की जमीनों पर अंधाधुंध कब्जे, बड़े पैमाने पर हुई मूर्ति एवं शिल्पों की चोरी और दान में आए चढ़ावे का दुरुपयोग दर्शाता है कि सरकारी नियंत्रण में कुप्रबंधन और भ्रष्टाचार चरम पर है। श्रीपद्मनाभस्वामी मंदिर से लगभग दो सौ करोड़ रु मूल्य के सोने और हीरों की चोरी र्सुिखयों में रही थी। तिरुपति के मुख्य पुजारी रमन्ना दीक्षितुलु ने आंध्र के बड़े नेताओं पर गर्भगृह से बेशकीमती हीरे-जवाहरात हड़पने का आरोप लगाया था, जिसके बाद उन्हें हटा दिया गया था। तमिलनाडु में मात्र पांच वर्ष की अवधि में मंदिरों की लगभग 50,000 एकड़ भूमि पर अवैध कब्जे की बात सामने आई। अव्यवस्था और भ्रष्टाचार के चलते यह कोई आश्चर्य नहीं कि मंदिरों की संपत्ति से हो रही आय नगण्य है। हिंदू धर्म आचार्य सभा के अनुसार तमिलनाडु में मंदिरों के पास कुल 5,00,000 एकड़ जमीन है और उससे होने वाली आय कम से कम एक हजार करोड़ रु प्रतिवर्ष होनी चाहिए, परंतु मात्र 70 करोड़ रु सालाना आय ही दिखाई जा रही है। मंदिरों की संपत्ति से र्अिजत आय का दुरुपयोग भी चिंता का विषय है। महत्वपूर्ण बात यह है कि धर्म प्रचार, गौशाला, वेद पाठशाला चलाने जैसे प्रयोजनों के लिए मंदिरों के पास संसाधन ही नहीं बचते। कई जगह पुजारी और अर्चकों को मामूली वेतन मिल पाता है।
जहां तक मंदिरों के माध्यम से सामाजिक न्याय साधने की बात है तो दूसरे मतों के पूजास्थलों में भी कई समस्याएं देखने को मिलती हैं। मस्जिदों में महिलाओं के नमाज पढ़ने के अधिकार की मांग उठती रही है। दलित ईसाइयों द्वारा पादरियों की नियुक्ति में भेदभाव या फिर गिरजों में अलग बैठाने की शिकायतें आती रही हैं। इसके बावजूद किसी सरकार ने कभी किसी मस्जिद या चर्च को नियंत्रण में लेने की हिम्मत नहीं दिखाई। मंदिरों में दलितों के प्रवेश संबंधी शिकायतें बीते दिनों की बातें हो चुकी हैं।
मंदिरों के प्रति उपेक्षित रवैया 1925 के मद्रास रिलीजियस एंड चैरिटेबल एंडावमेंट एक्ट की देन है। मुस्लिम और ईसाई समुदायों के विरोध के बाद इसे मद्रास हिंदू रिलीजियस एंड चैरिटेबल एंडावमेंट एक्ट में परिर्वितत कर हिंदू मठ और मंदिरों को नियंत्रण में ले लिया गया। यह एक्ट द्रविड़ कजगम का पूर्ववर्ती रूप जस्टिस पार्टी लाई थी, क्योंकि द्रविड़ आंदोलन ने चिदंबरम के मंदिर को तोप के गोले से उड़ाना अपनी मुहिम का उद्देश्य बताया था। स्वतंत्रता के बाद 1951 में मद्रास राज्य ने इसी नाम से एक और एक्ट पास कर दिया। उसी वर्ष मद्रास उच्च न्यायालय ने और फिर 1954 में सर्वोच्च न्यायालय की सात जजों की बेंच ने इस कानून के कई प्रविधानों को असंवैधानिक करार दिया था। इसी तरह रतीलाल बनाम स्टेट आफ बांबे में भी सर्वोच्च न्यायालय ने किसी कानून द्वारा र्धािमक संस्थाओं के नियंत्रण और हस्तक्षेप को अनुच्छेद 26(डी) का उल्लंघन बताया। न्यायालय ने माना कि धार्मिक संस्थाओं का प्रबंधन संप्रदायों का मौलिक अधिकार है और इसे कोई दूसरा कानून बनाकर छीना नहीं जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने ऐसे ही कई और निर्णय दिए हैं। बावजूद इसके कई राज्यों ने एचआरसीई एक्ट 1954 की तर्ज पर कानून बना लिए हैं और अब उत्तर भारत तक नित नए मंदिरों को सरकारी नियंत्रण में लेने के प्रयास जारी हैं।
मंदिरों के सरकारी नियंत्रण का एक परिणाम यह हुआ है कि अनुच्छेद 12 के अंतर्गत ऐसे मंदिर 'राज्य' की परिभाषा में आ जाते हैं, क्योंकि इसके अनुसार राज्य द्वारा नियंत्रित या संचालित कोई भी संस्थान 'राज्य' ही माना जाता है। इससे इन मंदिरों के प्रबंधन से जुड़े पहलुओं, नौकरियों, रखरखाव आदि में गैर हिंदुओं या नास्तिकों के प्रतिभागी होने पर कोई रोक नहीं। सबरीमला मंदिर में भगवान अयप्पा की विशिष्टता और मूल चरित्र के विरुद्ध जाकर न्यायिक दखल की गुंजाइश भी इसी संवैधानिक जटिलता से उत्पन्न हुई थी।
हिंदू मठ-मंदिरों में सिर्फ गर्भगृह, मूूर्ति या पूजा ही नहीं, बल्कि सभी क्रियाओं, कार्मिकों और प्रांगण की पवित्रता भी महत्वपूर्ण होती है। ऐसे में श्रद्धा और संस्कृति के केंद्रों पर सरकारी नियंत्रण न सिर्फ इस क्षेत्र के महात्म्य को दूषित करता है, बल्कि पुजारियों तक की नियुक्ति को गैर र्धािमक क्रिया बताकर अपने अधिकार क्षेत्र में ले लेता है। पुरी जगन्नाथ मंदिर में तो इस विकृति के अंतर्गत न्यायालय द्वारा सेवा और पूजा को भी धार्मिक के साथ-साथ लौकिक क्रिया बताया गया। सरकारों द्वारा मंदिरों को सार्वजनिक स्थल मानने की मानसिकता ने मंदिरों को स्मारक और संग्रहालयों की श्रेणी में ला दिया है। केंद्र सरकार को चाहिए कि एक समावेशी मंदिर प्रबंधन कानून बनाकर सभी मंदिरों को उनके मूल संप्रदायों को वापस करे। इससे सरकार का संविधान और पंथनिरपेक्षता अनुरूप आचरण भी बनेगा और हिंदुओं को बाकी मतों के समान अपने धार्मिक स्थलों के प्रबंधन का अधिकार भी मिलेगा। यदि किसी स्थिति में सरकार को किसी धर्मस्थल का नियंत्रण लेना भी पड़े तो वह तात्कालिक समस्या के निवारण के बाद संबंधित समाज को शीघ्र वापस मिलना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद चिदंबरम मंदिर को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने के बाद ऐसा वचन स्वयं तमिलनाडु सरकार ने दिया है।