सम्पादकीय

बदतमीज शुभचिंतक कृपया ध्यान दें

Shantanu Roy
28 Jun 2022 7:20 PM GMT
बदतमीज शुभचिंतक कृपया ध्यान दें
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मेरी मंडली के हम प्याला, हम निवाला एक दूसरे के आगे से गले लगते, पर पीछे से एक दूसरे की पीठ में हरदम पेन की निब घोंपने को तैयार शुभचिंतकों को उनका दिल दहला देने वाली यह बुरी खबर देते हुए मुझे हार्दिक प्रसन्नता हो रही है कि अबके इस पुरस्कार की रेस में मैं पहले नंबर पर आ गया हूं

मेरी मंडली के हम प्याला, हम निवाला एक दूसरे के आगे से गले लगते, पर पीछे से एक दूसरे की पीठ में हरदम पेन की निब घोंपने को तैयार शुभचिंतकों को उनका दिल दहला देने वाली यह बुरी खबर देते हुए मुझे हार्दिक प्रसन्नता हो रही है कि अबके इस पुरस्कार की रेस में मैं पहले नंबर पर आ गया हूं। यानी कि साफ-साफ शब्दों में कहूं तो मैं पुरस्कार की रेस जीत गया हूं। मेरे पुरस्कार की रेस जीतने की आधिकारिक रूप से घोषणा भी हो चुकी है। इसलिए अब पुरस्कार किसी और के नाम बदलने के चांस बिल्कुल खत्म। लेट इट! अब यह कोई मायने नहीं रखता कि पुरस्कार की रेस में शामिल होने के बाद मैं कितना दौड़ा! कहां कहां दौड़ा! किस किसके आगे पीछे दौड़ा! किस किसके आगे घुटने टेके। किस किसने अपने आगे मेरे घुटने टिकवाए! किस किसके आगे नाक रगड़ा! किस किसने अपने आगे मेरे नाक रगड़वाए! पुरस्कार मिलने के बाद ये सब गौण हो चुका है। मैं यह सब भूल चुका हूं। अंततः मेरी पुरस्कार रेस सफल हुई।

मेरे लिए इससे बड़ी खुशी की बात और कोई नहीं। अंत भला सो भला। अब मैं भी अवार्डिड लेखक हूं। अब मैं भी अपने नाम के आगे लिख सकता हूं, अबस, ब्रेक्ट में अवार्डिड लेखक। शादीशुदा लेखक की समाज में उतनी पूछ नहीं होती जितनी पुरस्कारशुदा लेखक की होती है। आज के दौर में जो कबीर, सूर, तुलसी भी होते तो बिन पुरस्कारों के उन्हें भी कोई नहीं पूछता। न निराकार! न साकार! सबसे बड़ा पुरस्कार! पहले घोड़ों की रेस हुआ करती थी, गधों की रेस हुआ करती थी। अब उनसे प्रेरणा पाकर साहित्यिक के मैदान में लेखकों की रेस होने लगी है। जो सट्टेबाज पहले घोड़ों पर पैसा लगाया करते थे, वे अब लेखकों की पुरस्कार रेस में लेखकों पर लगाने लगे हैं। गए वे दिन जब समाज में उसके कार्यों की तटस्थ समीक्षा हुआ करती थी, उसका समाज को दिए अवदान का ईमानदार मूल्यांकन हुआ करता था। और उसे बिन पता चले पुरस्कार मिल जाया करता था। अब पुरस्कारों का यह दौर पुराना हो गया है। जिस तरह से आज जीवन का ट्रेंड बदल गया है, उसी तरह पुरस्कारों का भी बदल गया है।
आज का दौर पुरस्कारों का वह दौर है जब किसी व्यक्ति के कार्यों की समीक्षा न होकर उसकी पहुंच की समीक्षा होती है। अब पुरस्कार देते हुए उसके कार्य नहीं, उसका कद देखा जाता है। कद किसी भी तरह का हो, कैसे भी हुआ हो, बस, ऊंचा होना चाहिए। अब पुरस्कार काम से नहीं, पहुंच से मिलते हैं। इसलिए अब विवेकशील पुरस्कार पिपासु पुरस्कार लेने की कला पर नहीं, पुरस्कार पाने की तकनीक पर जोर देने लगे हैं। और जिस पुरस्कार अभिलाषी को पुरस्कार पाने की इस तकनीक का एक बार आइडिया हो जाता है, वह पुरस्कारों के जगत में परमादरणीय हो जाता है। पुरस्कार उससे मिलने को आतुर रहते हैं। तब वह पुरस्कारों के पीछे नहीं, पुरस्कार उसके पीछे भागते हैं। उसे ग्रहण कर खुद को गौवान्वित करने के लिए। काम दुनिया में कौन नहीं कर रहा? अब बताओ इनमें से अपने काम के लिए पुरस्कृत कितने होते आए हैं? इसीलिए कि आदमी काम से नहीं, पहुंच से बड़ा बनता है। जिसकी जितनी ऊंची पहुंच, उसे उतना बड़ा पुरस्कार। इसलिए अब ऊंचे टाइप तक के लेखकों ने भी चोरी छिपे मुझे फॉलो करना शुरू कर दिया है। वे लेखन की तकनीक पर कम, पहुंच बनाने की तकनीक पर अपने को अधिक फोकस करने लगे हैं। आज का वक्त वह वक्त है कि जो भगवान स्थापित भगवान होते ऊपर तक अपने रसूख न रखें तो उन्हें भी कोई न पूछे। चकाचौंध कर देने वाले प्रकाश में अब अंधेरे में तपस्या करने वाले को कोई नहीं पूछता। उसे अपना परिचय देने के लिए ऊपर तक पहुंच बनानी ही पड़ती है, योग्य होते हुए भी पद, पुरस्कार पाने के लिए अपनी पहुंच उठानी ही पड़ती है।
अशोक गौतम

सोर्स- divyahimachal

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