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लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी (Adhir Ranjan) ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु (Draupadi Murmu) को पत्र लिखकर क्षमा याचना कर ली
सोर्स- Jagran
अंतत: लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी (Adhir Ranjan) ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु (Draupadi Murmu) को पत्र लिखकर क्षमा याचना कर ली, लेकिन यदि वह यह काम पहले ही कर लेते तो न तो उन्हें और न ही उनकी पार्टी को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि उन्होंने मजबूरी में माफी मांगी, क्योंकि पहले उन्होंने यह स्पष्टीकरण दिया कि उनकी जुबान फिसल गई थी, फिर यह कहने लगे कि बांग्लाभाषी होने के नाते उन्हें हिंदी का सही ज्ञान नहीं है।
यह इसलिए गले नहीं उतरा, क्योंकि बांग्ला में भी राष्ट्रपति को राष्ट्रपत्नी नहीं कहा जाता। इसके अतिरिक्त लंबे समय से सांसद होने के नाते उन्हें यह सामान्य सी जानकारी होनी चाहिए थी कि जब प्रतिभा पाटिल पहली महिला राष्ट्रपति बनी थीं, तब किसी ने उस तरह की कोई टिप्पणी नहीं की थी, जैसी उन्होंने की। उन्हें यह भी स्मरण होना चाहिए था कि जब नजमा हेपतुल्ला राज्यसभा की उपसभापति थीं, तब भी ऐसा कोई सवाल नहीं उठा था कि उन्हें किस रूप में संबोधित किया जाना चाहिए? नि:संदेह यह भी समझ नहीं आया कि अधीर रंजन ने अपनी सफाई में यह क्यों कहा कि राष्ट्रपति चाहे ब्राह्मण हो या मुसलमान अथवा आदिवासी, उनकी पार्टी के लिए राष्ट्रपति ही होता है।
फिलहाल यह कहना कठिन है कि अधीर रंजन के माफी मांग लेने के बाद इस प्रकरण का पटाक्षेप हो जाएगा या नहीं, क्योंकि राष्ट्रपति के संदर्भ में उनकी अभद्र टिप्पणी को लेकर संसद में सोनिया गांधी और स्मृति ईरानी के बीच जो तकरार हुई, वह भी एक मुद्दा बन गई है। इसे लेकर संसद में हंगामा भी हुआ। इस सत्र में संसद के भीतर और बाहर जैसा हंगामा हो रहा है, वह अभूतपूर्व भले न हो, लेकिन यह साफ है कि राजनीतिक विमर्श का स्तर सबसे निचली सतह को छूता हुआ दिख रहा है।
इससे बड़ी विडंबना यह है कि इसमें किसी की रुचि नहीं दिख रही कि संसद सही तरह चले। यह जनाकांक्षाओं का निरादर ही नहीं, संसद की गरिमा की अनदेखी भी है। क्या यह विचित्र नहीं कि जो विपक्षी सांसद लोकसभा और राज्यसभा में नारेबाजी और हंगामा करने के आरोप में निलंबित किए गए, वे यह प्रतीति करा रहे हैं कि हंगामा करके सदन न चलने देना ही उनका प्राथमिक दायित्व है।
स्थिति कितनी दयनीय है, यह इससे समझा जा सकता है कि एक बड़ी संख्या में विपक्षी सांसद नारे लिखी तख्तियां लेकर सदन पहुंचते हैं और फिर इसके लिए हरसंभव कोशिश करते हैं कि वे किसी तरह संसद टीवी के कैमरों में कैद हो जाएं। इसके बाद वे यह शिकायत भी करते हैं कि उन्हें अपनी बात कहने का अवसर नहीं मिल रहा है। इसे ढोंग न कहें तो क्या कहें?
Rani Sahu
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