सम्पादकीय

नासमझी दोनों तरफ : राजनीति के दुश्चक्र में हिंदुत्व

Neha Dani
26 Dec 2021 2:40 AM GMT
नासमझी दोनों तरफ : राजनीति के दुश्चक्र में हिंदुत्व
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हिंदुत्व से अधिक वृहद, उदार और सर्वसमावेशी विचारधारा दूसरी नहीं मिलेगी।

हिंदुत्व को लेकर जंग छिड़ी है। 'हिंदुत्व' राजनीति के दुश्चक्र में फंस गया है। एक तरफ हाहाकारी हिंदुत्ववादी हैं और दूसरी ओर 'मैं हिंदू हूं, पर हिंदुत्ववादी नहीं' के झंडाबरदार। फिर कोई खुर्शीद साहब आते हैं और हिंदुत्व को 'बोको हराम' बता जाते हैं। बोको हराम जैसे नृशंस संगठन की तुलना हिंदू धर्म से करना अपनी जाहिलियत का एलान ही है।

कभी कोट के ऊपर जनेऊ पहनने वाले राहुल गांधी हिंदुत्व को हिंसा और सांप्रदायिकता का औजार बता देते हैं। दरअसल हिंदू और हिंदुत्व अद्वैत हैं। हिंदुत्व अपने आप में कोई धर्म, पंथ या वाद नहीं है। जो 'हिंदुइज्म' के जरिये हिंदुत्व को समझने की कोशिश करते हैं, उन्हीं से यह बखेड़ा खड़ा हुआ है। हिंदुत्व सिर्फ 'हिंदू-पन' है।
हमारी परंपरा में चार्वाक ईश्वर के अस्तित्व को ही नहीं मानते थे। उन्होंने वर्तमान में जीने और कर्ज लेकर घी पीने का एलान किया था। हमने उनका सिर कलम नहीं किया, बल्कि ऋषि का दर्जा दिया। कबीर पत्थर को पूजने (मूर्तिपूजा) के खिलाफ खड्गहस्त थे। हमने उन्हें भक्त माना। तुलसी सगुण उपासक थे। पर उन्होंने लिखा पद बिन चले, सुनै बिन काना यानी ईश्वर बिना पैर के चलता और बिना कान के सुनता है।
यानी ईश्वर निर्गुण है। एक ही बिस्तर पर मेरी सनातनी दादी अंतकाल रघुवर पुर जाई गाती थी, तो आर्य समाजी दादा अंतकाल अकबरपुर (फैजाबाद पैतृक गांव) जाई का उद्घोष करते थे। एक मूर्ति पूजा करता, दूसरा उसका विरोध। पर दोनों हिंदू थे। एक ही छत के नीचे कोई राम भक्त, कोई शिव भक्त, कोई कृष्ण भक्त, तो कोई शक्ति की उपासना करता था। पर सब हिंदू थे। यह है हिंदू धर्म का मूल।
हिंदू धर्म की इस संवादप्रियता के कारण ही भारतीय इस्लाम और भारतीय ईसाई यहां वैसे नहीं हैं, जैसे अपने मूल रूप में अरब और पश्चिम में हैं। हिंदू धर्म में आस्तिकता की भी जगह है और नास्तिकता की भी। इसमें मूर्ति को मानने वाले भी हैं, मूर्ति को न मानने वाले भी। द्वैत-अद्वैत और सगुण-निर्गुण को मानने वाले भी
धर्म के व्यापक फलक में सनातनी भी हिंदू हैं, आर्य समाजी भी और ब्रह्म समाजी भी। ऐसा विशाल और व्यापक धर्म दुनिया में नहीं है। तो फिर हिंदुत्व क्या है? क्या बजरंग दल और श्रीराम सेना की सोच हिंदुत्व है? क्या हिंदुत्व प्रेमी जोड़ों पर हमला है? पहनने-ओढ़ने पर सामाजिक पुलिसिंग है? क्या 'लव जिहाद' के नाम पर आंदोलन हिंदुत्व है? घर वापसी हिंदुत्व है?
वैलेंटाइन-डे का डंडे से मुकाबला हिंदुत्व है? प्राय: कट्टरता को नव राष्ट्रवादी हिंदुत्व का लक्षण मान रहे हैं। एक पवित्र शब्द का अर्थ ऐसे गिरा कि इस शब्द ने अपनी अर्थवत्ता ही खो दी। धारणा में हिंदुत्व के नाम पर एक आक्रामक लठैत समाज खड़ा हो गया, जिसे कोई आलोचना बर्दाश्त नहीं। जैसे बंधु-बंधुत्व, बुद्ध-बुद्धत्व, मनुष्य-मनुष्यत्व होता है, वैसे ही हिंदू-हिंदुत्व होता है।
उसमें गड़बड़ की अंग्रेजी शब्द 'हिंदुइज्म' ने, जिसका अनुवाद अंग्रेजीदां मित्रों ने हिंदुत्व कर लिया। हिंदुत्व शब्द का सबसे पहले इस्तेमाल बंकिमचंद्र के आनंदमठ में हुआ था। बाद में सावरकर ने इसे राजनीतिक विचारधारा से जोड़ा। नासमझी दोनों तरफ है। जो हिंदुत्व में बोको हराम जैसी नृशंसता देख रहे हैं, उन्हें हिंदू धर्म के बारे में कुछ नहीं पता।
हिंदू धर्म न किसी एक किताब से जुड़ा है, न किसी एक धर्म प्रवर्तक या भगवान से। यह दुनिया का इकलौता धर्म है, जहां से आप कोई धार्मिक पुस्तक या भगवान निकाल लें, तो भी बगैर खतरे के धर्म बना रहेगा। हिंदू आत्मा के अमरत्व में विश्वास करता है। हिंदू का धर्म ही उसे वह ताकत देता है कि वह अधर्म से निपट सके।
प्रतिशोध और प्रतिक्रिया की कायर हिंसा के बल पर नहीं, अपनी आस्था, विचार, अहिंसा और अपने धर्म की अक्षुण्ण शक्ति पर। हिंदू को किसी मुल्ला, पोप, आर्क बिशप या महंत के जरिये उस तक नहीं पहुंचना होता है। हिंदू धर्म इस बात की पूरी स्वतंत्रता देता है कि कोई अपना आराध्य, पूजा पद्धति, जीवन शैली अपनी आस्था के अनुसार चुन सकता है।
आप वेद में भी विश्वास कर सकते हैं। उपनिषद् में भी भरोसा कर सकते हैं। रामायण को भी मान सकते हैं। गीता को ही अपना धर्म ग्रंथ मान सकते हैं। उपनिषद भी एक नहीं, 108 हैं। महापुराण भी 18 हैं। हिंदू होने के लिए गीता को बाइबिल या कुरान की तरह अपने धर्म की पहली और अंतिम पुस्तक मानना अनिवार्य नहीं है।
भक्त कवियों ने गुरु का होना अनिवार्य माना है। लेकिन गुरु को सब कुछ मानने वाले कबीर ने भी कह दिया कि गुरु की करनी गुरु जाएगा, चेले की करनी चेला। आदि शंकराचार्य जब केरल के कलाडी गांव से बौद्ध और जैन मत के सामने सनातन धर्म की पुनर्स्थापना करने निकले थे, तो उनके साथ लाखों कारसेवक नहीं थे। उनके साथ उनका धर्म था, जिसे उन्होंने अपने ज्ञान और तप से स्थापित किया।
शंकराचार्य ने चार पीठों की स्थापना की, लेकिन यह नहीं कहा कि यह पीठ उस पीठ से ऊंची या बड़ी है। उन्होंने चार शंकराचार्य बैठाए, लेकिन किसी एक के अधीन तीन को नहीं किया। किसी भी शंकराचार्य को अधिकार नहीं दिया कि अपने धाम के लोगों के लिए धर्मादेश निकाल सकें, जो सभी हिंदुओं के लिए बाध्यकारी हो। सो हिंदू धर्म के मर्म को समझिए और हिंदुत्व पर कृपा कीजिए। हिंदुत्व से अधिक वृहद, उदार और सर्वसमावेशी विचारधारा दूसरी नहीं मिलेगी।
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