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भई जन्म दिवस तो बड़े आदमियों का मनाया जाता है। यह आपने क्या रोग पाल लिया? भला हो उन फेसबुक और इन्टरनैट वालों का, यह किस भलेमानस को सूझी कि उसने फेसबुक पर हमारे पैदा होने की तारीख डाल दी। इस भीड़ भरे देश में जहां कि अनाज से अधिक बच्चों की पैदावार हो जाती है। पिछली सदी में लगाए गए परिवार नियोजन के नारों की तरक्की के बावजूद आज भी इस नई सदी में इसकी संख्या देश के लिए उतना ही बड़ा संकट है। अर्थशास्त्री जनाब मालथस साहिब कितना कहते रहे कि भई परिवार नियोजन कर लो, नहीं तो अगर यूं ही जनसंख्या वृद्धि करने से बाज न आए तो जहां तुम्हारा अन्न उत्पादन दो से चार से छह की गति से बढ़ेगा वहां तुम्हारे यहां बच्चों की पैदायश दो से चार, चार से सोलह की गति से बढ़ती नजर आएगी। परिवार नियोजन नहीं किया तो कुदरती प्रतिबंध, अकाल, सूखा, भूकम्प, महामारी के लिए तैयार हो जाओ, क्योंकि कुदरत को तो रोटी और खाने वालों की संख्या में कोई न कोई संतुलन पैदा करके रखना ही है। पिछली सदी के मध्य में जब देश आजाद हुआ था, तो पहला काम नेताओं ने किया, वह यही था कि देश जैसे चलता है, चलता रहे, लेकिन अकादमिक रूप से देश की बेहतरी के लिए बने सिद्धांतों को लागू करने में कोई कमी न रखो। कमी हुई भी नहीं। इस देश में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बना देने की घोषणा के साथ पहला लक्ष्य रखो ‘प्रजातान्त्रिक समाजवाद की स्थापना का।’ यह दीगर बात है कि प्रजातन्त्र में मुखर अभिव्यक्ति के नाम पर कुछ ऐसे वाचाल लोग नेताओं का वेश धारण करके उभर आए जो हमारे जैसे लोगों से दावों, नारों और घोषणाओं के जरिए संवाद करते हैं।
दावे जो वायवीय होते हैं, नारे जो दो हिस्सों में बंट कर पक्ष और विपक्ष का कोहराम मचा जलूसों, शोभायात्राओं या धरनों में तबदील हो जाते हैं और घोषणाएं जो ऊंचे स्वर में जनकल्याण से प्रतिबद्धता जताती हैं, लेकिन ‘मारूं घुटना फूटे आंख’ की तरह भला ऊंची अट्टालिकाओं या भव्य अटारियों का ही करती हुई नजर आती हैं। फुटपाथी लोग तो पौन सदी पहले जहां बैठे थे, वहां के वहां ही अपना तकिया जमाए हैं। हां, इस बीच भारत विभाजन का सन सैंतालीस का नजारा एक बार फिर से नजर आ गया। लोग तब जहां थे, वहां से उखड़ कर अजनबी धरती पर ठौर ठिकाना तलाश करने निकले थे, आज फिर वैसा हो गया। कहते हैं इतिहास अपने आपको दोहराता है। दुर्घटनाएं किसी घिसे हुए रिकार्ड की तरह बार-बार बजने की प्रवृत्ति रखने लगती हैं। अरे साहिब नहीं हुआ न। स्वर्णिम घटनाएं तो सोन चिड़ी की तरह हमारे आकाश से गायब रही, और कोविड या कोरोना के नाम से आयातित महामारी रोजी रोजगार लताशते लोगों को उनकी जड़ों से उखाडऩे के लिए चली आई। जो लोग इस किसान देश में खेतीबाड़ी को जीने का ढंग न मान कर एक हानिकारक धंधा मान महानगरों और परदेस में रोटी रोजी की तलाश में चले आए थे, और इस नई जिंदगी में दोयम दर्जे के नागरिक की पहचान को अहोभाग्य मान कर जीने का मन्सूबा बना रहे थे, उन्हें कोरोना के प्रकोप के साथ-साथ पधारे पूर्णबंदी के तालों ने अपनी जड़ों से उखाड़ दिया। उधर मालथस साहिब का कहा मान कर देश ने इजरायल के साथ दुनिया के उस पहले देश का दर्जा हासिल कर लिया था, जहां परिवार नियोजन एक सरकारी नीति के रूप में घोषित हो गया था। लीजिए जनाब पहले ‘हम दो और हमारे दो’ का नारा उठा, फिर उसे तरक्की देकर ‘हम एक और हमारा एक’ का नाम दे दिया गया। लेकिन आप तो जानते हैं कि इस देश में नारे हवा में उछालने के लिए होते हैं। परिणाम आकलन करो तो सरकारी योजनाएं धराशायी नजर आती हैं।
सुरेश सेठ
By: divyahimachal
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