सम्पादकीय

स्कूल में समय बिताना अच्छा लगे तो बच्चों की उपस्थिति में समस्या नहीं होगी

Gulabi
1 Dec 2021 3:17 PM GMT
स्कूल में समय बिताना अच्छा लगे तो बच्चों की उपस्थिति में समस्या नहीं होगी
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आज मैं आपको एक छोटे-से स्कूल की कहानी बताने जा रही हूँं
रुक्मिणी बनर्जी का कॉलम:
आज मैं आपको एक छोटे-से स्कूल की कहानी बताने जा रही हूँं। काम के सिलसिले में मुझे बहुत घूमने का मौका मिलता है। दूर दराज के गांव, क़स्बे और शहर की बस्तियों में स्थित स्कूलों में जाकर बच्चों और शिक्षकों के साथ समय बिताने का अवसर मिलता है। छोटा हो या बड़ा, हर स्कूल की अपनी पहचान होती है और अपनी विशेषता भी। कक्षा में गतिविधियां, आपसी बातचीत, आदान-प्रदान, खेल-कूद, मोहल्ले का वातावरण- ये सभी इस पहचान के अंश होते हैं। भ्रमण करते हुए कुछ विद्यालय हमेशा याद रह जाते हैं। आज मैं ऐसे ही एक प्राथमिक विद्यालय के बारे में आप को बताऊंगी।
पश्चिम बंगाल का नक्शा देखें तो निचला हिस्सा चौड़ा और ऊपरी पतला दिखाई देता है। उसके एक दम ठीक बीच में मालदा जिला है। जिले की सीमा पार करते ही आप झारखंड, बिहार या बांग्लादेश पहुंच जाएंगे। कोलकाता से ट्रेन रात को निकलकर, सुबह मालदा पहुंचती है। मालदा नाम सुनते ही आम याद आने लगते हैं। जैसे ही सूरज की किरणें फैलती हैं, चारों तरफ बड़े-घने आम के पेड़ और बगीचे दिखाई देते हैं।
जिला मुख्यालय से हमारा यह स्कूल बहुत दूर नहीं है; दो घंटे में इस तक पहुंचा जा सकता है। विद्यालय के नजदीक का रास्ता पक्का बना हुआ है। पर विद्यालय जाने तक के रास्ते का शेष भाग, पगडंडी से होते हुए नीचे महानंदा नदी के किनारे पहुंचता है। लकड़ी की बनी हुई लंबी-सी नाव से लोग नदी पार करते हैं। उसी नाव से सभी लोग आते-जाते हैं। स्कूल के समय, किताबों के बस्ते के साथ, ड्रेस पहने नाव पर बच्चों की भीड़ होती है। इसी तरह हम भी स्कूल पहुंचने के लिए नाव पर चढ़ गए।
नदी के पार, ढलान चढ़कर, आम के बगीचे से होते हुए हम विद्यालय के परिसर में पहुंचे। छोटी-सी इमारत, सफेेद और नीले रंग से रंगी हुई- देखते ही लग रहा था कि बहुत साधना और प्रेम से सजाया गया है। प्रांगण में नीले और सफेद चौकोर में बांग्ला और अंग्रेजी अक्षर बने हुए थे। फूल और पौधे से सुसज्जित थे बरामदे। पर स्कूल की हालत हमेशा ऐसी नहीं हुआ करती है।
साठ साल पहले मिट्टी से बने एक कमरे में, पंचायत के सदस्यों ने इस विद्यालय की स्थापना की। उद्देश्य यह था कि गांव के बच्चों को शिक्षा की वैसी ही सुविधा मिले जैसे शहर के बच्चों को मिलती है। 1986 में महानंदा नदी में बाढ़ आने के कारण विद्यालय के कक्ष बह गए थे। तब तुरंत ग्रामवासियों ने अपनी मेहनत से बच्चों के पढ़ने के लिए दोबारा जगह बनाई।
कुछ वर्षों के बाद सरकारी अनुदान से पाँंच पक्के कमरों का निर्माण हुआ। पक्की इमारत तो खड़ी हो गई पर विद्यालय को सुंदर और बच्चों की रुचि को बनाए रखने में लगातार ग्रामवासियों का सहयोग मिलता रहा। इतने वर्षों के बाद भी विद्यालय एक दम चमकता हुआ प्रतीत होता है, जैसे कल ही बना हो।
जैसी इमारत वैसे बच्चे, या शायद यह कहना ज्यादा सही होगा कि जैसे बच्चे वैसी इमारत। बच्चों की खिलखिलाती हंसी और खेल की आवाज ही इमारत में असली रंग भरती हैं। शिक्षक और छात्रों का रिश्ता जितना स्नेहमय होता है, सीखने-सिखाने की प्रक्रिया उतनी ही मजबूत होती है। अगर विद्यालय में समय बिताना अच्छा लगे तो न बच्चों की उपस्थिति में समस्या होगी और न ही शिक्षकों के आने में परेशानी। विद्यालय के अंदर जो होता है, उससे अगर अभिभावक संतुष्ट हों तो उनका सहयोग लगातार बढ़ता जाता है।
इस विद्यालय में अतिथि का स्वागत करने का तरीका भी मुझे बहुत अच्छा लगा। एक बड़े पान के पत्ते में अपने बगीचे का एक आम और थोड़े से रंग-बिरंगे फूल, मेरे हाथ में सौंपे गए। अक्सर विद्यालयों में पहुंचने पर शिक्षकगण औपचारिकता से घेर लेते हैं। पर यहां ऐसा नहीं हुआ। प्रधानाध्यापक ने आग्रह किया कि आप हर कक्षा के छात्रों के साथ बात कीजिए।
बड़े और छोटे बच्चों के साथ समय बिताकर लगा कि उन्हें अलग-अलग तरह के लोगों से मिलने की आदत है- उनको अपनी बात बताने और उनसे कुछ नई चीजें सीखने में दिलचस्पी है। बातचीत में बच्चे आगे थे, शिक्षक सिर्फ कभी-कभी मदद कर रहे थे। विद्यालय के इतिहास को मैंने ऐसे ही गपशप में जाना।
बातचीत करते हुए यह पता चला कि विद्यालय में अधिकांश लोगों को कहानियों और किताबों में रुचि है। यह तय हुआ कि क्यों न इस विद्यालय के बारे में बच्चे और शिक्षक मिलकर एक किताब लिखें! लेख, कहानी और उन रचनाओं के लिए चित्र भी विद्यालय के बच्चे और शिक्षक ही बनाएंगे। वापस आने का वक्त हो गया था।
नदी के किनारे तक पहुंचाने के लिए पूरा विद्यालय आ गया। साथ ले जाने के लिए हमारे हाथ में बहुत सारे 'मालदा आम' थमा दिए गए। नदी के उस पार जाने तक सभी बच्चे और टीचर खड़े-खड़े देखते रहे और अंत में सभी ने हाथ हिला कर हमें विदा किया। कुछ दिनों के बाद मेरे पास एक छोटी-सी पुस्तिका पहुंची। मालदा के विद्यालय की कहानियां। काश ऐसा होता कि हिंदुस्तान के हर एक विद्यालय में बच्चे और शिक्षक मिल कर अपने विद्यालय की कहानी लिखते!
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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