सम्पादकीय

अपने मत का सही मूल्य नहीं आंक सकते तो फिर स्वाभाविक हैं परेशानियां

Gulabi
19 Jan 2022 4:59 AM GMT
अपने मत का सही मूल्य नहीं आंक सकते तो फिर स्वाभाविक हैं परेशानियां
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चुनाव आते ही भारतीय राजनीति किस तरह विभाजनकारी मुद्दों के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने के साथ समाज को बांटने का काम करने लगती है
राजीव सचान। चुनाव आते ही भारतीय राजनीति किस तरह विभाजनकारी मुद्दों के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने के साथ समाज को बांटने का काम करने लगती है, इसका प्रमाण है पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव। चुनावों की घोषणा होते ही न केवल आयाराम-गयाराम की राजनीति तेज हो गई है, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा और रोजगार के मुद्दे नेपथ्य में जाते दिख रहे हैं। इन मुद्दों की जगह हावी हो रहे हैं जाति, बिरादरी, मजहब के मसले और अगड़े-पिछड़े के सवाल। स्वामी प्रसाद मौर्य, इमरान मसूद, हरक सिंह रावत जैसे लोग जब और इधर-उधर होंगे तब ऐसे मसले और अधिक सतह पर आएंगे। इसी के साथ तेज होगी जाति, बिरादरी, मजहब के नाम पर गोलबंदी। कोई इसे ध्रुवीकरण की संज्ञा देगा तो कोई सोशल इंजीनियरिंग के रूप में रेखांकित करेगा। कोई इसे सांप्रदायिक राजनीति बताएगा तो कोई पंथनिरपेक्ष राजनीति के उदाहरण के रूप में पेश करेगा।
एक समय था जब जाति तोड़ो अभियान चलते थे और जातिविहीन समाज बनाने की बातें होती थीं, लेकिन अब जाति-मजहब के आधार पर वोट बैंक बनाने के जतन ही नहीं किए जाते, बल्कि जाति-संप्रदाय के आधार पर राजनीतिक दल ही गठित कर लिए जाते हैं। यह एक तथ्य है कि कहीं दलित-ब्राह्मïण समीकरण बनाने की कोशिश हो रही है तो कहीं दलित-मुस्लिम एका की मुहिम छेड़ी जा रही है। कई ऐसे दल भी उभर आए हैं जो जाति ही नहीं उपजाति विशेष की राजनीति कर रहे हैं। इस पर भी गौर करें कि जिस उत्तर प्रदेश में यह शोशा छोड़ा गया था कि ब्राह्मïणों की उपेक्षा हो रही है, वहां अब यह सुनने को मिल रहा है कि वही मलाई काट रहे हैं। जाति-समुदाय को बांटने वाली राजनीति ने पहले महापुरुषों को बांटा। अब वे रंगों का भी बंटवारा करने में जुट गए हैं। लाल, हरा, भगवा, नीला आदि अब राजनीतिक रंग ले चुके हैं। इस पर भी ध्यान दें कि जिन्हें भारत माता की जय कहना गवारा नहीं, वे जय भीम-जय मीम का नारा लगा रहे हैं।
गायब होती विचारधारा
एक समय था जब हर दल की अपनी एक विचारधारा होती थी और वह स्पष्ट होती भी थी और दिखती भी थी, लेकिन अब न जाने कितने दल ऐसे हैं जिनकी विचारधारा का कोई अता-पता नहीं। इसके चलते दलबदलू नेताओं को बहुत आसानी हो गई है। वे बिना किसी शर्म-संकोच एक कथित विचारधारा त्यागकर दूसरी धारण कर लेते हैं, ठीक वैसे ही जैसे वे अपना कुर्ता पायजामा बदलते हैं। तमाम नेता ऐसे हैं, जो अपने राज्य के करीब-करीब सभी दलों में वक्त गुजार चुके हैं। कुछ तो हर दल से चुनाव भी लड़ चुके हैं और जीत भी चुके हैं। दलबदलुओं की इसीलिए पौ बारह रहती है, क्योंकि जहां राजनीतिक दल उन्हें गले लगाने को आतुर रहते हैं, वहीं जनता जाति, बिरादरी, मजहब के नाम पर उन्हें वोट देने को तैयार रहती है। बाद में यही जनता शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, रोजगार के अभाव का रोना रोती है। यह कुछ वैसे ही है जैसे कोई बबूल का पेड़ उगाकर इसकी शिकायत करे कि उससे आम क्यों नहीं मिल रहे हैं? जाति-मजहब के आधार पर वोट देने वाले एक तरह से यह शिकायत करने का अधिकार खो देते हैं कि उनकी बुनियादी समस्याओं का समाधान क्यों नहीं हो रहा है?
रंग बदलते राजनीतिक दल
राजनीतिक दल अब गिरगिट जैसे हो गए हैं। बंगाल के चुनाव के वक्त जो ममता बनर्जी भाजपा के केंद्रीय नेताओं को बाहरी बता रही थीं, वह अब गोवा की जनता को अपना बताने में लगी हुई हैं। महाराष्ट्र में जिस शिवसेना ने उत्तर भारतीयों के खिलाफ अभियान छेड़ा, वह अब उत्तर प्रदेश में चुनाव लडऩे की तैयारी कर रही है। अंबानी-अदाणी को खलनायक बताने वाले पंजाब के कथित किसान संगठन राजनीतिक दल का रूप धारण कर उद्योगपतियों को चुनाव मैदान में उतारने में लगे हुए हैं। विडंबना यह भी है कि नई तरह की राजनीति का वादा करने वाले टिकट बेचने के आरोपों से घिरे हुए हैं। बेअंत सिंह के नेतृत्व में जिस कांग्रेस ने खालिस्तानी तत्वों को कुचला, वही अब उनसे हमदर्दी रखने वालों को चुनाव मैदान में उतार रही है। चुनाव आयोग ने भले ही यह कहा हो कि आपराधिक छवि वालों को उम्मीदवार बनाने पर इसका कारण भी बताना होगा, लेकिन राजनीतिक दलों की सेहत पर कोई असर नहीं दिख रहा। चुनाव में जाति-मजहब को तवज्जो देने वाली जनता भी इससे बेपरवाह दिखे तो हैरानी नहीं। जल्द ही राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र सामने आएंगे। उनमें क्या कुछ होगा, इसका अनुमान लगाने के साथ इसके प्रति भी सुनिश्चित हुआ जा सकता है कि वे लोक-लुभावन घोषणाओं से भरे होंगे और वह भी ऐसे समय जब कोरोना महामारी के चलते केंद्र सरकार के साथ राज्य सरकारों की अर्थव्यवस्था भी गहरे संकट में है। एक वक्त था, जब साड़ी, सिलाई मशीन, मिक्सी, टीवी, मोबाइल, लैपटाप आदि मुफ्त बांटने के वादे किए जाते थे, लेकिन अब नकद पैसे देने के भी वादे होने लगे हैं। यह और कुछ नहीं, लोगों को गुपचुप रूप से रुपये देकर उनके वोट हासिल करने वाली राजनीति का नग्न विस्तार है। ऐसी खबरें आने लगी हैं कि नेताओं और उनके समर्थकों की गाडिय़ों से पैसे बरामद होने लगे हैं। यह तय है कि चुनाव आयोग जितना धन जब्त करेगा, उससे ज्यादा उसकी नजरों से ओझल रहेगा और वह वोट खरीदने के लिए मतदाताओं के बीच बंटेगा। आने वाले दिनों में वे लोग भी सिर उठा लें तो हैरानी नहीं, जिन्होंने इस दुष्प्रचार को धंधा बना लिया है कि ईवीएम के जरिये धांधली होती है। कायदे से राजनीतिक दलों को समाज को दिशा देनी चाहिए, लेकिन आज के माहौल में यह आवश्यक हो गया है कि समाज दलों को दिशा दिखाने का काम करे।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
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