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महानता वंशानुगत नहीं होती। यह खुद अर्जित करनी पड़ती है। अपने कर्मों, गुणों और अपनी जीवनशैली से हम यह उपलब्धि हासिल करते हैं
तुषार गांधी महानता वंशानुगत नहीं होती। यह खुद अर्जित करनी पड़ती है। अपने कर्मों, गुणों और अपनी जीवनशैली से हम यह उपलब्धि हासिल करते हैं। बापू भी कोई अपवाद नहीं हैं। उनको परखने के बाद ही लोगों ने उन्हें महात्मा माना। बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी चाहते, तो दक्षिण अफ्रीका में अपनी वकालत जमा सकते थे। मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया। वहां रंगभेद के खिलाफ शुरू हुआ उनका आंदोलन, भारत लौटने के बाद आजादी की अहिंसक जंग में तब्दील हो गया, और 'हाड़-मांस का वह दुबला आदमी' एक ऐसे साम्राज्य के खिलाफ प्रतिरोध की मशाल बन गया, जिसके 'सूरज के कभी न डूबने' के दावे किए जाते थे।
ब्रिटिश साम्राज्यवाद का सूरज तो यहां अस्त हो गया, लेकिन बापू क्या आज उसी स्वरूप में मौजूद हैं? कतई नहीं। यह उत्तर-गांधी युग है। आज महात्मा कहीं नहीं दिखते। हाल के वर्षों में भारत की जैसी छवि उभरी है, उसको देखकर तो बस यही कहा जा सकता है कि आने वाले दिनों में बापू की तस्वीरों को शायद दीवारों पर भी स्थान न मिले। आज हमारे चाल-चलन में, जीवन-शैली में, मान्यताओं में, कहीं भी, न तो राजनीतिक रूप से और न ही सामाजिक जीवन में गांधी या उनके दर्शन की छाप दिख रही है। इसका नुकसान यह हुआ है कि हम तेजी से सांप्रदायिक बनते जा रहे हैं। सोशल मीडिया को यदि मापदंड मानें, तो घृणा और हिंसा के सिवा अब कुछ भी नहीं दिखता। समाज में घृणात्मक हिंसा को मान्यता मिल गई है। इसके खिलाफ इक्का-दुक्का ही आवाजें उठती हैं। आलम यह है कि 'जय जवान, जय किसान' की राष्ट्रीयता को जीने वाले देश में पिछले एक साल से अन्नदाता आंदोलन पर बैठे हैं, और हम उनके प्रति उदासीन बने हुए हैं। अगर यह भी मान लें कि किसानों का बहुत छोटा तबका ऐसा कर रहा है, तब भी सत्याग्रह की यह महानता है कि एक अदने इंसान की समस्या को भी यह उतना ही मान देता है, जितना बहुसंख्यक लोगों की मुश्किलों को। अगर मुट्ठी भर किसान ही मानते हैं कि उनके साथ अन्याय हो रहा है, तो यह हमारा फर्ज है कि हम उनको समझें और उनके प्रति सहानुभूति दिखाएं। मगर ऐसा नहीं हो रहा। हम घृणापोषक ही नहीं, खुदगर्ज भी हो गए हैं।
समाज के अंतिम व्यक्ति तक शासन की पहुंच सुनिश्चित करने जैसे बापू के अन्य संदेशों का भी कुछ यही हाल है। आखिर कहां फर्क पड़ा है हमारी जातिवादी परंपरा पर? महात्मा गांधी और बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर, इन दोनों राष्ट्रनायकों के जीवन का एक बड़ा मकसद शोषित वर्ग को समता तक लाना था। मगर हमने उनको निष्फल कर दिया। यह विफलता हालांकि, उनकी नहीं है, यह हमारी है कि हमने उनके प्रयासों को आगे नहीं बढ़ाया। आज सामाजिक न्याय का कहीं असर नहीं दिखता। अलबत्ता, इसका इस्तेमाल समाज में विघटन लाने और सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने के लिए किया जा रहा है। आज आरक्षण की पूरी सोच को ही कठघरे में खड़ा किया जा रहा है, जबकि इसकी संकल्पना सोशल इंजीनियरिंग के लिए की गई थी। आज बहुसंख्यक लोग यही मानते हैं कि यह सवर्णों के खिलाफ अन्याय है। मगर ऐसा करते हुए वे इतिहास भूल जाते हैं कि हरिजनों पर सैकड़ों वर्षों से कितना जुल्म किया गया। आज भी दलितों की राह आसान नहीं है, लेकिन इन बातों पर हम चुप्पी साध लेते हैं। ऐसी घटनाएं अब सामान्य समझी जाने लगी हैं।
अब एक भी ऐसा क्षेत्र या जगह नहीं है, जहां बापू या राष्ट्र के अन्य रचनाकारों के सपने को हमने साकार होने दिया है। उनकी सोच और उनके संदेशों को हमने अपने सार्वजनिक व निजी जीवन में कतई नहीं उतारा। महज उनकी मूर्तियां लगाने का काम जोर-शोर से किया गया है, और इसी से हम अपनी भक्ति जाहिर करने की कोशिश करते हैं। आज महात्मा गांधी बस प्रचार के माध्यम हैं। सोशल मीडिया पर होने वाली बेजा बहसों में अपनी बातों को असरदार बनाने के लिए हम उनको याद करते हैं। हालांकि, वहां भी उनका सही इस्तेमाल नहीं होता। उनकी भक्ति दंभी है और उनका टीका भी झूठ पर आधारित है। सत्य के पुजारी की बंदगी अब असत्य से की जा रही है।
इसी तारीख को पैदा हुए देश के दूसरे प्रधानमंत्री गांधीवादी लाल बहादुर शास्त्री का भी हमने ऐसा ही अपमान किया है। यह तो उनका सद्भाग्य रहा कि उनका प्रधानमंत्री-काल बहुत कम समय के लिए था। अगर वह लंबा होता, तो हम आज उनमें भी दोष निकाल रहे होते। उनकी सादगी भरी छवि को तार-तार कर रहे होते। उन पर जमकर टीका-टिप्पणी हो रही होती। वैसे, दिखावे के लिए कभी-कभी उनकी महिमा का मंडन किया जाता है, पर उनके जीवन के बुनियादी उसूलों को हमने भुला दिया है। वह किसानों का विकास और उनका उद्धार चाहते थे। मगर हमने यह नहीं होने दिया। हम आज ऐसी व्यवस्था को बढ़ावा दे रहे हैं, जो किसानों से बात तक करना गवारा नहीं समझती। ऐसा करने के लिए संवेदनशील लोगों को अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ता है।
साफ है, अब 2 अक्तूबर का यह महत्व नहीं रहा कि इससे महात्मा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री का नाम जुड़ा है। हमने इस तारीख को अब बस अपनी भक्ति के प्रदर्शन का दिन मान लिया है। इस दिन इन नेताओं के प्रचार-प्रसार पर पूरा ध्यान दिया जाता है, जबकि उनके संदेशों की कोई चर्चा नहीं करता। अगर उनके जीवन के एक भी मूलभूत तत्व को हमने अपनाया होता, तो आज देश की यह दशा नहीं होती। बहरहाल, उम्मीद अब भी बाकी है। बापू में जो भी आस्था रखता है, वह भला नाउम्मीदी कैसे ओढ़ सकता है? गांधी अपने जीवन में कभी निराश नहीं हुए। अगर कभी वह दो कदम पीछे हटे भी, तो आगे चार कदम बढ़ने के लिए। एक बड़े लक्ष्य को हासिल करने के लिए उन्होंने कभी-कभी छोटी-छोटी उपलब्धियों को दरकिनार कर दिया। बेशक हम गांधी को पूरे स्वरूप में अपने जीवन में नहीं उतार सकते, लेकिन अगर उनके जैसे थोड़े भी बन सके, तो देश का काफी भला हो सकता है। बापू में हमारी आस्था एक नया इतिहास लिख सकती है।
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