सम्पादकीय

भलाई के बदले अगर कुछ भी उम्मीद न करें, तो हम खुश होंगे

Gulabi Jagat
25 March 2022 8:37 AM GMT
भलाई के बदले अगर कुछ भी उम्मीद न करें, तो हम खुश होंगे
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दुनिया के अधिकांश लोगों की तरह हम सब भी यूक्रेन युद्ध पर नजर रखे हैं
एन. रघुरामन का कॉलम:
दुनिया के अधिकांश लोगों की तरह हम सब भी यूक्रेन युद्ध पर नजर रखे हैं। मैं भी अलग नहीं हूं। कई सारे वाट्सएप ग्रुप में युद्ध सबसे बड़ी चर्चा का विषय है और मैं देख रहा हूं कि लोग पक्ष ले रहे हैं कि क्या पुतिन सही हैं या गलत। ऐसी चर्चाओं को मुख्य रूप से युद्ध क्षेत्र में निराशा के बीच फंसे भारतीय छात्रों की तस्वीरों का समर्थन मिल रहा है। पर मैंने देखा कि लोगों ने जब से एयरपोर्ट पर लौटते भारतीयों के वीडियोज़ देखे, अचानक से उनकी भावनाएं बदल गई हैं।
एक वीडियो काफी घूम रहा है, उसमें एक मंत्री हाथ जोड़कर और मुस्कराकर विद्यार्थियों का स्वागत करते दिख रहे हैं। बदले में वो छात्र उन चुने हुए प्रतिनिधि को धन्यवाद देने के बजाय घर लौटने को लेकर ज्यादा चिंतित दिखे। वे उन्हें नजरअंदाज करते हुए आगे बढ़ते दिख रहे हैं। एक क्षण को मुझे भी लगा कि युद्ध क्षेत्र से निकल आने का सदमा भले हो पर थोड़ी सी शालीनता दिखाते हुए स्वागत के लिए खड़े सरकारी प्रतिनिधि को धन्यवाद तो कहना चाहिए।
मुझे लगता है कि हम जैसे पढ़े-लिखे लोगों को बताया जाता है कि मदद करने वाले को धन्यवाद कहें। और युद्ध क्षेत्र से जिंदा वापस लाने वाली यह मदद तो निश्चित तौर पर कोई 'छोटी मदद' नहीं है। अगर उन छात्रों को नहीं पता तो मैं उन्हें बताना चाहता हूं कि 'यह वाकई बहुत बड़ी मदद है।' इसलिए बाकियों की तरह मुझे भी लगता है कि उन्हें कम से कम हाथ मिलाना चाहिए था या नमस्ते या फिर धन्यवाद कहना चाहिए था। और तब वाट्सएप में सवालों की बाढ़-सी आ गई कि 'ग्रैटिट्यूड कहां है?
भारतीय सरज़मी को छूने की खुशी कहां है? क्यों वे खुशी से रो नहीं रहे थे और इमिग्रेशन से गुजरते हुए देशभक्ति के नारे नहीं लगा रहे थे?' अगर आप भी ऐसे ही सवाल पूछने वालों में से एक हैं, तो मैं बता दूं कि हर भारतीय को गर्व होना चाहिए कि हमारा देश और देश के लोग वाकई उदार हैं। 1971 के युद्ध में जब हमने बड़ी संख्या में लोगों की मदद की या खाड़ी युद्ध के समय हजारों भारतीयों को एयरलिफ्ट किया था तब अपनी भलाई के बदले में हमने उनसे किसी चीज की उम्मीद नहीं की थी।
ठीक दो साल पहले लॉकडाउन के दौरान एक अलग स्तर पर जाकर हर साथी भारतीय की मदद की। लॉकडाउन में मदद पाने वालों में से कितनों ने वापस आकर धन्यवाद दिया? ज्यादा नहीं होंगे। पर उनकी मदद करके हमें खुशी मिली थी, है ना? फिर जब सरकार रूस-यूक्रेन युद्ध में फंसे हमारे विद्यार्थियों की वही मदद कर रही है, तो हमारे अंदर दुखी भाव क्यों है? हममें से कुछ लोग इतने दुखी क्यों हैं और इन बच्चों को कोस रहे हैं? शायद हमने खुश रहने की कला नहीं सीखी।
अपनी बात समझाता हूं। अंग्रेजी का शब्द ग्रैटिट्यूड लैटिन शब्द ग्रेशिया (Gratia) से बना है, जिसका अर्थ है उदारता, अनुग्रह या कृतज्ञता। भारतीय संस्कृति में यह दृढ़तापूर्वक मानते हैं कि हमारे दानधर्म के कार्यों के बदले दूसरों से आभारी महसूस करने की अपेक्षा अशिष्टता है। पूर्वजों से सुनी पुरानी कहावत याद करें कि 'नेकी कर, दरिया में डाल'।
और यही वजह है कि हमारे देश भारत ने वही किया, जो उसे करना चाहिए था- अपने युवा छात्रों को सुरक्षित घर वापस लाए। आखिरकार बाहर पढ़ने गए वे भी हमारे ही बच्चे हैं। वे अभी युवा हैं और बड़े होने के साथ ही हमारी संस्कृति सीखेंगे। अभी वे असमंजस में हैं, इसलिए उनके प्रति उदार रहें।
फंडा यह है कि भलाई के बदले अगर कुछ भी उम्मीद न करें, तो हम खुश होंगे। पर हमें जो मिला है या जो हमारे पास है, उसके लिए आभारी महसूस करना और ये सीखना अपने आप में एक नेमत है। घर वापस लौटने वाले ये युवा जल्दी ही यह बात समझ जाएंगे।
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