सम्पादकीय

यूक्रेन ने 1994 के बुडापेस्ट समझौते के बाद परमाणु हथियारों का भंडार छोड़ न दिया होता तो क्या रूस उस पर हमला कर पाता?

Gulabi
1 March 2022 8:48 AM GMT
यूक्रेन ने 1994 के बुडापेस्ट समझौते के बाद परमाणु हथियारों का भंडार छोड़ न दिया होता तो क्या रूस उस पर हमला कर पाता?
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सबसे पहले एक पहेली- पोखरण में जब भारत ने पहला सफल परमाणु परीक्षण किया था तब
शेखर गुप्ता का कॉलम:
सबसे पहले एक पहेली- पोखरण में जब भारत ने पहला सफल परमाणु परीक्षण किया था तब इसकी सूचना इंदिरा गांधी को देने के लिए 'बुद्ध मुस्करा रहे हैं' जैसे कोडवर्ड्स का प्रयोग क्यों किया गया था? आप इसका हल सोचिए, तब तक हम यूक्रेन चलते हैं। पिछले कुछ दिनों से यह सवाल उठाया जा रहा है और आगामी कई दशकों तक उसकी गूंज सुनाई देती रहेगी कि यूक्रेन ने अगर 1994 के बुडापेस्ट समझौते के बाद अपने परमाणु हथियारों का भंडार छोड़ न दिया होता तो क्या आज उसे रूस इतनी आसानी से दबा पाता?
यूक्रेन ने अपने परमाणु हथियार अमेरिका, यूरोप और रूस से उसकी सुरक्षा की गारंटी मिलने पर सौंपे थे। इनमें से एक ने तो उस पर हमला ही कर दिया है, यूरोप मुंह छुपाने की जगह ढूंढ रहा है और अमेरिका मासूम प्यार जताने के सिवा कुछ नहीं कर रहा। वहीं क्या भारत इतना अविवेकी था कि उसने न केवल परमाणु हथियार बनाए बल्कि खुद को परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र भी घोषित किया? इन दशकों में चार विचारधाराओं के बीच इस सवाल पर जोरदार बहस होती रही है।
इनमें से एक, होमी भाभा के दौर के उग्र विचार वालों का मानना था कि भारत को चीन से भी पहले 1960 के दशक में ही परमाणु हथियार बना लेने चाहिए थे। पूर्व विदेश सचिव महाराज कृष्ण रसगोत्रा तो कई बार साफ कह चुके थे कि अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी ने भारत को एक परमाणु संयंत्र देने और अपना संयंत्र बनाने में मदद करने की पेशकश भी की थी, लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने इनकार कर दिया था।
दूसरी धारा इसके ठीक विपरीत इस सोच वालों की है कि परमाणु हथियार बुरे, अनैतिक, अनावश्यक, मानवता के लिए अभिशाप हैं और इस्तेमाल के लायक नहीं हैं। यह धारा इधर कमजोर पड़ी है, खासकर पोखरण-2 के बाद। इसका कुछ हिस्सा एक नए विचार की ओर मुड़ गया है कि अब जबकि एटमीकरण हो ही गया है तो इसे न्यूनतम रक्षात्मक उपाय के रूप में सीमित करें और 'व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि' (सीटीबीटी) जैसी वैश्विक व्यवस्थाओं में शामिल होकर सक्रिय भूमिका निभाएं।
तीसरी धारा का मानना है कि परमाणु हथियारों के मामले में अस्पष्टता रखना भारत के लिए ज्यादा अच्छा होता। आखिर, इंदिरा गांधी ने 1974 में पोखरण-1 परीक्षण करके दुनिया को हमारी क्षमता से अवगत करा ही दिया था, इसलिए 1998 में किए गए परीक्षण अपनी छाती ठोकने की अनावश्यक राजनीतिक कवायद थी, जिसने पाकिस्तान को भी परीक्षण करने का बहाना दे दिया। नतीजतन, दक्षिण एशिया में दो स्वघोषित परमाणु शक्ति संपन्न देश हो गए।
चौथी धारा उस समूह की है, जिसका मानना है कि 1974 में अपनी क्षमता का प्रदर्शन करना ही काफी नहीं था। यह अपने पैर पर दोबारा कुल्हाड़ी मारना था। यह करके भारत ने प्रतिबंधों को न्योता भी दिया। पहली धारा को ज्यादा तवज्जो नहीं मिली। दूसरी 1998 के बाद अप्रासंगिक हो गई। तीसरी और चौथी धारा पर विचार-विमर्श करने की जरूरत है, खासकर इसलिए कि यूक्रेन संकट हमारे सामने आ खड़ा हुआ है। ऐसे सवाल तब भी उठे थे, जब अमेरिका ने इराक पर दो-दो बार हमला किया, दूसरी बार इस बहाने से कि उसके पास परमाणु बम हैं।
लेकिन अगर इराक के पास सचमुच में जनसंहार करने वाले हथियार होते तो क्या बुश सीनियर या जूनियर इस पर हमला करने का जोखिम उठाते? भारत को अपने परमाणु हथियार दुनिया के सामने जाहिर करने से लाभ हुआ या नुकसान? वास्तव में किसी को शक नहीं था कि पाकिस्तान पहले से परमाणु हथियारों से लैस है। अमेरिका ने उसे 'परमाणु हथियार के मामले में निर्दोष' होने का अंतिम प्रमाणपत्र 1989 में दिया और उसके बाद इसे दोहराया नहीं।
1990-91 में जब भारत-पाकिस्तान की सेना आमने-सामने खड़ी हो गई थी तब पाकिस्तान ने भारत को परमाणु हथियार के बूते ब्लैकमेल किया था। लेकिन पाकिस्तानी खतरा यह था कि वह युद्ध के शुरू में ही परमाणु हथियार का प्रयोग कर देगा। वी.पी. सिंह सरकार को हकीकत का एहसास हो गया कि भारत के पास जवाबी कार्रवाई करने के लिए तुरंत दागा जाने वाला परमाणु अस्त्र नहीं है। इतने दशकों में विश्वसनीय हथियार और डिलीवरी सिस्टम नहीं तैयार किया गया था।
वह संकट तो गुजर गया लेकिन उसने हमारे पूरे राजनीतिक हलके का यह संदेह दूर कर दिया कि भारत को परमाणु हथियार तुरंत चाहिए। इस काम को एक दशक तक आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी सात प्रधानमंत्रियों ने राजनीतिक अस्थिरता के बावजूद बखूबी निभाई। लेकिन यह सवाल अब भी कायम है कि पोखरण-1 के लिए 'बुद्ध मुस्करा रहे हैं' मुहावरे का प्रयोग क्यों किया गया? ऐसा लगता है कि बुद्ध के काल में प्राचीन मगध साम्राज्य ने अपने पड़ोसी वैशाली पर विजय के लिए आक्रमण किया था।
मगध ने आम साम्राज्य की तरह अपनी विशाल सेना तैयार की थी और आक्रमण के लिए अस्त्र-शस्त्र तैयार किए थे, जबकि एक तरह के अराजक लोकतांत्रिक देश वैशाली के लोग इसी बहस में उलझे रहे कि लड़ें या न लड़ें, लड़ें तो कैसे लड़ें। जाहिर है, मगध ने वैशाली को तबाह कर दिया। यह खबर जब बुद्ध को दी गई, तब बताया जाता है कि वे चिंतित हुए।
मतलब यह कि शांति की खातिर साम्राज्य को युद्ध के लिए तैयार रहना चाहिए वरना उसका वैशाली वाला हश्र हो सकता है। 1964 के बाद से भारत मगध रूपी चीन के लिए वैशाली जैसा था। अब आप समझ गए होंगे कि बुद्ध क्यों मुस्कराए होंगे। या वे यूक्रेन का जो हश्र हुआ उस पर चिंतित होते?
यूक्रेन की सीख : एटमी हथियार नहीं छोड़ें
यूक्रेन आज गारंटी की छाया में निश्चिंत बैठे कई देशों को परेशान कर रहा है। इसमें शक नहीं कि जिन देशों के पास परमाणु हथियार हैं या जो इन्हें लगभग हासिल करने वाले हैं- उत्तरी कोरिया, इजरायल, ईरान या और कोई देश- वे इन्हें अब कभी छोड़ेंगे नहीं। वे यूक्रेन को याद करेंगे। इसी परिप्रेक्ष्य में पोखरण में भारत के द्वारा किए गए परमाणु-परीक्षणों को समझा जाना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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