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रूस ने यूक्रेन के दो इलाकों दोनेत्स्क और लुहांस्क को मान्यता प्रदान कर दी है यानी उसने यूक्रेन को तीन हिस्सों में बांट दिया है
डॉ. वेदप्रताप वैदिक का कॉलम:
रूस ने यूक्रेन के दो इलाकों दोनेत्स्क और लुहांस्क को मान्यता प्रदान कर दी है यानी उसने यूक्रेन को तीन हिस्सों में बांट दिया है। इन दोनों हिस्सों को अब वह स्वतंत्र राष्ट्रों की उपाधि दे देगा। इन क्षेत्रों में अराजकता न फैल जाए, इस दृष्टि से उसने वहां सैनिक भी तैनात कर दिए हैं। दूसरे शब्दों में यूक्रेन के खिलाफ उसने सैनिक कार्रवाई करने का रास्ता निकाल लिया है। अगर अमेरिका, नाटो या स्वयं यूक्रेन इन क्षेत्रों में रूसी फौजों को निकाल बाहर करने की कोशिश करेंगे तो यूरोप में तीसरे महायुद्ध की नौबत आ सकती है।
वास्तव में रूस ने यूक्रेन में जो अभी किया है, वह वैसा ही है, जैसा कि उसने 2014-15 में क्रीमिया में किया था। क्रीमिया यूक्रेन का हिस्सा था, लेकिन वहां रूसियों की आबादी और उसके सामरिक महत्व को देखते हुए रूस ने उस पर कब्जा कर लिया। न तो यूक्रेन कुछ कर सका और न ही नाटो राष्ट्र रूस को डरा सके। उसने अब दोनेत्स्क और लुहांस्क को स्वतंत्र घोषित करके यही किया है। रूस या तो इन इलाकों को अपने में मिला लेगा या उन्हें अपने गठबंधन में बांधे रखेगा।
दूसरे शब्दों में ऐसा प्रतीत होता है कि व्लादिमीर पुतिन अब सोवियत नेताओं की तरह 'वारसा पैक्ट' को फिर से जीवित करना चाहते हैं। ये अलग बात है कि यूक्रेन और जार्जिया के अलावा रूस के कई प्रांत और पूर्वी यूरोप के लगभग सभी राष्ट्र नाटों के सदस्य बन चुके हैं। शीतयुद्ध के जमाने में रूस का 'वारसा पैक्ट' अमेरिका के 'नाटो' को लगभग बराबरी की टक्कर दे रहा था लेकिन सोवियत-विघटन के बाद रूस बहुत कमजोर हो गया है। इसके बावजूद आज भी वह एक परमाणु शक्तिसंपन्न राष्ट्र है।
पुतिन की नजर में यूक्रेन व जार्जिया जैसे राष्ट्रों को आज भी अपनी वही हैसियत माननी चाहिए, जो स्तालिन और ब्रेझनेव के जमाने में उनकी थी। ब्रेझनेव ने 1968 में चेकोस्लोवाकिया पर हमला बोलते हुए 'सीमित सम्प्रभुता' के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था। पुतिन उसी सिद्धांत को यूक्रेन पर लागू करना चाहते हैं। यूक्रेन अगर स्वतंत्र और सम्प्रभु राष्ट्र है तो उसे अपना कोई भी निर्णय करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। वह चाहे तो रूस के अन्य पुराने प्रांतों की तरह नाटो का सदस्य बन जाए या स्वतंत्र रहकर रूस के साथ बंधा रहे।
लेकिन यूक्रेन के नेता पश्चिमी यूरोप के राष्ट्रों के साथ न केवल अपने आर्थिक, व्यापारिक और राजनीतिक संबंध घनिष्ठ बना रहे हैं बल्कि वे यूक्रेन को नाटो का सदस्य भी बनवाना चाहते हैं। रूस ने यूक्रेन की यही चोरी पकड़ रखी है। पुतिन का कहना है कि रूस और यूक्रेन तो एक ही हैं। वे सदियों से एक ही होकर रहे हैं। यूक्रेन में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी का प्रभाव इतना रहा है कि वहां जन्मे निकिता ख्रुश्चौफ सोवियत रूस के सर्वोच्च नेता बन गए।
अब भी रूस के साथ लगे कुछ यूक्रेनी इलाकों में रहनेवाले लोगों में रूसी मूल के लोग बहुसंख्यक हैं। इन्हीं इलाकों को रूस में मिलाने की खातिर रूस ने लाख-सवा लाख सैनिक रूस-यूक्रेन सीमांत पर डटा रखे हैं। रूस तो अभी भी यही दावा कर रहा है कि वह यूक्रेन पर हमला नहीं करना चाहता है। हालांकि उसने यह दावा भी अभी तक खुलेआम नहीं किया था कि वह दो इलाकों को यूक्रेन से अलग करना चाहता है।
इस बारे में रूस की संसद ने पिछले हफ्ते एक प्रस्ताव जरूर पारित किया था। लेकिन पश्चिमी राष्ट्रों की धमकियों को देखते हुए लग रहा था कि रूस आक्रामक कार्रवाई नहीं करेगा। रूस ने भी बार-बार दावा किया है कि वह बस एक ही बात चाहता है। वो यह कि यूक्रेन नाटो में शामिल न हो। यह आश्वासन अमेरिका और यूरोपीय राष्ट्रों ने रूस को दिया भी था। लेकिन रूस को डर है कि उसके पड़ोसी राष्ट्रों में नाटो फौजों को इसीलिए डटाया गया है कि यूक्रेन को आखिरकार नाटो में मिला लिया जाए।
सच्चाई तो यह है कि न तो रूस और न ही नाटो राष्ट्र चाहते हैं कि युद्ध छिड़े। नाटो राष्ट्र ज्यादा से ज्यादा यह करेंगे कि रूस पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगा देंगे। रूस दावा करेगा कि अपने आप को आजाद घोषित करने वाले यूक्रेनी इलाकों में वह शांति सेना भेज रहा है ताकि वहां खून की नदियां न बहें। यूक्रेन इसे रूसी हमले की ही संज्ञा देगा। यदि रूसी और नाटो खेमों ने संयम से काम नहीं लिया तो भयंकर युद्ध छिड़ सकता है, जिसकी लपटें दूर-दूर तक फैल सकती हैं।
दोनों पक्ष परमाणु शक्ति संपन्न हैं। यदि युद्ध होता है तो वह किसी भी हद तक जा सकता है। वह पिछले दोनों महायुद्धों की तुलना में कहीं विनाशकारी हो सकता है। संयुक्त राष्ट्र में भारत के प्रतिनिधि ने दोनों खेमों से संयम की अपील की है। हमारे विदेश मंत्री जयशंकर आजकल यूरोप में ही हैं।
भारत के इस वक्त रूस और अमेरिका, दोनों से इतने अच्छे संबंध हैं कि वह किसी एक पक्ष का खुलेआम समर्थन नहीं कर सकता है, जैसा कि शीतयुद्ध के जमाने में इंदिरा गांधी ने 1981 में अफगानिस्तान में, 1968 में चकोस्लोवाकिया में और पं. नेहरू ने 1956 में हंगरी के मामले में सोवियत-समर्थन या चुप्पी का रुख अपनाकर किया था।
भारत को अपने हितों का ध्यान रखना है लेकिन उसका निष्क्रिय रहकर कोरे नखदंतहीन बयान जारी करना भी उचित नहीं। दोनों पक्षों से भारत की मित्रता ही वह तत्व है, जो उसे उत्कृष्ट कोटि का मध्यस्थ बना सकती है। भारत के समक्ष न केवल हमारे 20 हजार छात्रों की सुरक्षा का सवाल है, बल्कि तेल की कीमतों पर नजर रखना भी महंगाई के मद्देनजर हमारे लिए जरूरी है।
यूक्रेन में फिर अफगानिस्तान वाली गलती
यदि युद्ध होता है तो रूस के द्वारा यूरोप को सप्लाई की जाने वाली गैस की पाइपलाइन बंद हो जाएगी। यूरोप की 40 प्रतिशत गैस अकेले रूस से आती है। यूरोप का दम घुट जाएगा और उधर रूस की अर्थव्यवस्था के घुटने टूट जाएंगे। अमेरिका और रूस दोनों को अफगानिस्तान ने सबक सिखा दिया है। दोनों वहां से बेआबरू होकर भागे हैं। अब वे यूक्रेन में उलझकर वही मात खाने से बचेंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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