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जब यूक्रेन में युद्ध दूसरे सप्ताह में प्रवेश कर गया है
पी एस राघवन,
जब यूक्रेन में युद्ध दूसरे सप्ताह में प्रवेश कर गया है, तब रूस की बढ़त और यूक्रेनी रक्षा कामयाबी की रिपोर्ट मीडिया एजेंसियों और देशों में अलग-अलग है। संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके सहयोगियों ने रूस पर प्रतिबंधों का सबसे कठोर पैकेज थोपा है, जो अभूतपूर्व है, जिससे अमेरिका के सहयोगियों की भागीदारी व्यापक रूप से बढ़ गई है। प्रतिबंधों पर भारत की स्थिति यह है कि ये प्रतिबंध तब तक अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन करते हैं, जब तक संयुक्त राष्ट्र उन्हें अनुमोदित नहीं करता है। यह रुख आज अजीब लगता है, जब देशों पर लगने वाले प्रतिबंध राजनय के हथियार बन गए हैं, जब किसी कमजोर के मामले में मजबूत के आर्थिक लाभ पर जोर दिया जाता है। अब तो माध्यमिक प्रतिबंध भी हैं, जिनके तहत किसी तीसरे देश को भी दंडित किया जा सकता है, क्योंकि वह किसी का पक्ष ले रहा है। ऐसे दंडित किया जाना वास्तव में किसी मजबूत देश के विशेषाधिकार हैं।
साल 2014 में क्रीमिया पर कब्जा करने के बाद से अमेरिका और उसके सहयोगियों ने अंतरराष्ट्रीय कानून के उल्लंघनों के लिए रूस पर कई प्रतिबंध लगाए थे। वीजा प्रतिबंध, संपत्ति जब्ती, क्षेत्र और प्रौद्योगिकी विशिष्ट प्रतिबंध भी लगे थे, डॉलर और यूरो में व्यापार की भी सीमा तय की गई थी। बेशक, पिछले वर्षों में उन्होंने रूसी अर्थव्यवस्था के विकास को सीमित कर दिया, मगर रूस को घुटनों पर नहीं ला सके। इसका प्रमुख कारण रूसी हाइड्रोकार्बन और अन्य वस्तुओं पर भारी वैश्विक निर्भरता है, इसलिए प्रतिबंध के बावजूद पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं को बड़े दुष्प्रभाव से बचाने के लिए रूस में व्यापार व निवेश की पर्याप्त गुंजाइश थी।
सैन्य हमलों, दोतरफा गोलीबारी में फंसे नागरिकों की भयानक छवियों, युद्ध क्षेत्रों से लोगों के भागने और बम हमले से बचने के लिए छिपने की घटनाओं पर अभी ज्यादा ध्यान है। अपने खुद के सेंट्रल बैंक के भंडार तक रूस की पहुंच बाधित करने के साथ ही पश्चिमी वित्तीय बाजारों से रूस के प्रमुख बैंकों को बाहर करने के उपाय करने और रूस को वैश्विक बैंकिंग प्रणाली से काटकर रूसी अर्थव्यवस्था का गला घोंटने की कोशिश दिखती है। बहुराष्ट्रीय तेल कंपनियों ने रूस से अपना अरबों डॉलर का निवेश निकालने की घोषणा की है। विदेशी शिपिंग, रसद, प्रौद्योगिकी और विनिर्माण कंपनियों ने रूस के साथ अपना व्यापार टाल दिया है। अमेरिका व यूरोप अपने अधिकार क्षेत्र में रूसी कुलीन वर्गों की संपत्तियों को निशाना बनाएंगे। प्रौद्योगिकी के मोर्चे पर भी रूस के साथ काफी कड़ाई की जा रही है।
हालांकि, यह ऐतिहासिक सत्य है कि प्रतिबंध शायद ही कभी किसी धुर-विरोधी को रोक पाते हैं। लेकिन ऐसे प्रतिबंध समय के साथ आर्थिक व सैन्य ताकत को कम जरूर कर देते हैं। ऐसे प्रतिबंध दोधारी तलवार की तरह भी हैं, जिनसे प्रतिबंध लगाने वाले देशों को भी दर्द होता है। लेकिन ध्यान रहे, समेकित राजनीतिक दबाव और आर्थिक प्रतिबंध सामान्य से बहुत आगे की बात है, यह एक गहरी 'सर्जिकल स्ट्राइक' है, जिसका उद्देश्य तत्काल नतीजे प्राप्त करना है। अब सवाल यह है कि क्या और कितनी जल्दी पश्चिमी प्रतिबंधों के मकसद को समेटा या पूरा किया जा सकता है?
व्लादिमीर पुतिन के लिए युद्ध का मकसद यूक्रेन का विसैन्यीकरण है, लेकिन इससे अंतत: क्या होगा, इसका खुलासा नहीं होता है। मोटे तौर पर, रूस के लिए स्वीकार्य परिणाम एक ऐसा समझौता हो सकता है, जो यूक्रेन की तटस्थता और रूस के दायरे में नाटो के जवानों व हथियारों की तैनाती न करने की गारंटी देता हो। वैसे अमेरिका और उसके सहयोगियों ने अपने प्रतिबंधों के अंतिम स्वरूप का अभी खुलासा नहीं किया है। उनको उम्मीद है कि दमदार बाहरी दबाव से पैदा आर्थिक व्यवधान और असंतोष राष्ट्रपति पुतिन को मजबूर कर देगा। कुछ लोग यह भी उम्मीद कर सकते हैं कि विरोध की लहर पुतिन को बेदखल भी कर सकती है। नाटो के लिए यह न्यूनतम मकसद है कि यूक्रेन से रूसी सैनिक लौट जाएं। नाटो देश यूक्रेन सहित रूस के आसपास के देशों की सुरक्षा की गारंटी भी चाहेंगे। वे स्वाभाविक रूप से चाहेंगे कि रूस जल्द से जल्द सामने आए, ताकि प्रतिबंधों की जरूरत को जायज ठहराया जा सके। इस बीच, नाटो देशों की अर्थव्यवस्थाएं तेजी से दर्द महसूस करेंगी। वैश्विक स्तर पर चीजों की कीमतें बढ़ेंगी। वैसे, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने घोषणा की है कि अमेरिका और 30 अन्य देश तेल की कीमतों को कम करने के लिए दुनिया भर के रणनीतिक भंडारों से 60 मिलियन बैरल तेल जारी करेंगे, यह एक दिन की वैश्विक तेल खपत का लगभग 60 प्रतिशत है।
जैसी स्थिति दिखती है, निराशाजनक ही है, इसलिए रूसी कार्रवाई और पश्चिम की कड़ी प्रतिक्रिया के बीच समझौते के लिए एक खिड़की बनाई जा सकती है। रूस की वार्ता-शक्ति सैन्य नतीजों और घरेलू लचीलेपन से तय होगी; पश्चिम की स्थिति इस बात पर निर्भर करेगी कि वह प्रतिबंधों के दर्द को कब तक झेल सकता है। जो समझौता उभरेगा, क्या वह मौजूदा घावों पर केवल सामान्य मरहम-पट्टी की तरह होगा या अंतर्निहित समस्याओं को गहराई से संबोधित करेगा। आज यह एक खुला सवाल है, जब यूरोपीय सुरक्षा का ढांचा टूट गया है। अब कोई संदेह नहीं, युद्ध और प्रतिबंधों के चलते अनेक वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि से भारत स्वाभाविक रूप से प्रभावित होगा। वैसे रूस के साथ हमारे द्विपक्षीय आर्थिक संबंध कम प्रभावित होंगे। साल 2014 के बाद रूस पर लगे प्रतिबंधों का भारत ने विरोध किया था, लेकिन अनेक कारणों से रूसी बाजारों में हमारे व्यवसायों पर सीमित जोखिम था। द्विपक्षीय मुद्र्रा व्यवस्था से दोनों देशों के बीच रक्षा सहयोग यथावत कायम रहा है और भारत ने अमेरिकी कानून, 'काउंटरिंग अमेरिकाज एडवर्सरीज थ्रू सेंक्शंस ऐक्ट '(सीएएटीएसए) के चलते प्रतिबंधों के खतरे का सामना भी किया है।
तय है, लंबे समय तक तनाव के कायम रहने से भारत पर किसी एक का पक्ष लेने का दबाव बढ़ जाएगा। अभी तक भारत ने ऐसा केवल इसलिए नहीं किया है, क्योंकि भू-राजनीतिक स्थिति भारत को युद्ध के सभी नायकों से अलग-अलग तरीकों से जोड़ती है। मौजूदा खराब स्थिति के सुधरने के बाद भी ऐसा ही रहेगा।
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