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सम्पादकीय
पुलिस और जांच एजेंसियों की व्यवस्था ठीक नहीं हो तो जनता के अधिकारों की बलि चढ़ती
Gulabi Jagat
6 April 2022 8:14 AM GMT

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दूसरे विश्व युद्ध के समय मिलिट्री सप्लाई में भ्रष्टाचार रोकने के लिए 1941 में अंग्रेजों ने केंद्रीय एजेंसी का गठन किया था
विराग गुप्ता का कॉलम:
दूसरे विश्व युद्ध के समय मिलिट्री सप्लाई में भ्रष्टाचार रोकने के लिए 1941 में अंग्रेजों ने केंद्रीय एजेंसी का गठन किया था। आजादी के पहले दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टैब्लिशमेंट एक्ट 1946 के तहत इसे कानून के दायरे में लाया गया। आजाद भारत में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 1963 में उस एजेंसी को सीबीआई बनाने के लिए प्रस्ताव पारित कर दिया। इस पृष्ठभूमि में अपराधियों को कानूनी शिकंजे में कसने वाली सीबीआई का खुद का कानूनी आधार कमजोर है।
नवंबर 2013 में गुवाहाटी हाईकोर्ट ने गृह मंत्रालय के 1963 के नोटिफिकेशन को रद्द करते हुए सीबीआई के अस्तित्व और उसके दर्ज किए मामलों की वैधानिकता पर सवाल उठाया। मामला इतना गरमाया कि सरकार ने आनन-फानन में अपील फाइल की, जिस पर चीफ जस्टिस ने सुनवाई करके स्टे आदेश पारित किया। लेकिन 9 साल बाद भी नया कानून नहीं बनने से सीबीआई एडहॉक सिस्टम पर काम कर रही है। सीबीआई को 3 तरीके से जांच का हक है।
पहला केंद्र सरकार और केंद्र शासित प्रदेश के मामले, दूसरा हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से जारी आदेश, तीसरा राज्य सरकारों का जांच के लिए विशेष निवेदन। 1946 के जिस कानून से सीबीआई की स्थापना हुई, उसमें खोट की वजह से राज्यों में अपराध दर्ज करने या जांच के लिए राज्य सरकारों की अनुमति लेनी पड़ती है। सामान्य तौर पर सभी सरकारें यह अनुमति देती रही हैं। लेकिन सीबीआई की वैधानिकता पर सवाल और बढ़ते दुरुपयोग के बाद अनेक राज्यों ने इस सहमति को वापस ले लिया।
इसकी वजह से 8 राज्यों में 150 से ज्यादा मामलों की जांच नहीं हो पा रही। सीबीआई की राह में राज्यों के साथ केंद्र भी अड़ंगेबाजी करता रहा है। पिछले साल संसद में दिए जवाब के अनुसार सीबीआई में कुल 7273 पदों में से 1374 यानी 20 फीसदी पोस्ट खाली हैं। 2018 में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में बदलाव के बाद केंद्र सरकार के किसी भी कर्मचारी के खिलाफ मामला दर्ज करने के लिए सरकारी अनुमति जरूरी हो गई है।
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने कहा है कि राज्यों की पुलिस के साथ केंद्र की सीबीआई पर भी जनता का भरोसा कम हुआ है। जस्टिस रमना के भाषण का लब्बोलुआब देखा जाय तो इसका मुख्य कारण यह है कि अधिकारी रूलबुक के बजाय नेताओं के इशारे पर काम करते हैं। इसकी मिसाल यूपीए काल में हुए कोल ब्लॉक घोटाले में देखने को मिली। सीएजी ने ड्राफ्ट रिपोर्ट में इसे 10.76 लाख करोड़ और फिर फाइनल रिपोर्ट में 1.8 लाख करोड़ का घोटाला बताया था।
सीबीआई डायरेक्टर ने अपने हलफनामे में कबूल किया था कि सीबीआई अफसरों ने पीएमओ, कोयला मंत्रालय, अटॉर्नी जनरल समेत सरकारी अधिकारियों के साथ मिलकर अदालत को गुमराह करने वाला जवाब फाइल किया था। परदे के पीछे का यह सच सामने आने पर चीफ जस्टिस लोढ़ा ने सीबीआई को पिंजरे में बंद तोता कहा था। सीबीआई के कार्यक्षेत्र के स्पष्ट निर्धारण, अधिक शक्तियां और कैडर रिस्ट्रक्चरिंग के लिए सुशील मोदी की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने अनेक सिफारिशें दी थीं।
सीबीआई में संस्थागत सुधार के लिए मद्रास हाईकोर्ट ने अगस्त 2021 में ऐतिहासिक आदेश पारित किया था, जिस पर सरकार को 6 हफ्ते में अमल करना था। छिटपुट मामलों पर हाईकोर्ट के आदेश पर देश भर में बखेड़ा खड़ा हो जाता है। लेकिन अपराधों की रोकथाम और भ्रष्टाचार को रोकने के लिए पारित इन आदेशों को सरकार ने ठंडे बस्ते में डाल दिया। एफबीआई की तर्ज पर सीबीआई की साख बने इसके लिए इन सभी सुझावों और आदेशों पर अमल जरूरी हैं।
आधुनिक जरूरतों के अनुसार सीबीआई के अधिकार क्षेत्र को परिभाषित करने वाला स्पष्ट और ठोस कानून, जिसके शिकंजे से अपराधी भाग ना सकें; चुनाव आयोग और कैग की तर्ज पर स्वायत्तता; स्वतंत्र बजट; कैडर रिस्ट्रक्चरिंग, साइबर और बैंकिंग फ्रॉड रोकने के लिए विशेष दस्ता; अभियोजन और जांच को अलग करने जैसी बातों पर अमल हो तो अपराधियों पर लगाम लग सकेगी।
सीबीआई लगभग 1200 मामलों की जांच कर रही है और 13000 मामले अदालतों में लंबित हैं। हर अपराध और मर्ज की दवा सीबीआई जांच है तो शातिर अपराधियों से निपटने के लिए सीबीआई को वैधानिक कवर और सहूलियतें भी तो मिलनी चाहिए?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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