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कल यानि 6 अक्टूबर को मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के कुछ शहरों में जियो का नेटवर्क ग़ायब हो गया
शंभूनाथ शुक्ल।
कल यानि 6 अक्टूबर को मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के कुछ शहरों में जियो का नेटवर्क (Jio Network) ग़ायब हो गया. कुछ देर के इस हादसे से हाय-तौबा मच गई. कुछ लोगों ने तत्काल एयरटेल अथवा आइडिया के लिए आवेदन कर दिया, किंतु मोबाइल के सिम के पोर्ट होने में समय लगता है इसलिए सब बेचैन रहे. दूसरे नेटवर्क से सोशल मीडिया पर उछल-कूद होती रही. इसके दो दिन पहले रात 9 बजे से सुबह पांच बजे तक फेसबुक (Facebook), वाट्सऐप (Whatsapp), इंस्टाग्राम (Instagram) और गूगल की सेवाएं ध्वस्त रहीं थीं.
इससे भी तहलका मचा था और खूब हाय-तौबा हुई. बताया गया कि इस गड़बड़ी से फेसबुक के मालिक जुकरबर्ग को 7 अरब डॉलर (लगभग 52,217 करोड़ रुपए) की चपत लग गई. यानि आज मोबाइल, नेटवर्क इतने महत्त्वपूर्ण हो गए हैं कि उनके बिना जीने की कल्पना मुश्किल है.
तेरहवीं भी निपट गई, लेकिन चिट्ठी नहीं मिली
साल 1985 में मेरी दादी की मृत्यु हुई. तब मैं दिल्ली में था. पिताजी ने फौरन मुझे पत्र लिखा जो नहीं मिला. इसके बाद उनकी तेरहवीं की सूचना का पत्रक भेजा गया, वह भी नहीं मिला. तब न तो दिल्ली स्थित मेरे आवास पर फोन लगा था न कानपुर स्थित मेरे पैतृक घर में. ऑफिस का नम्बर मेरे परिजनों को पता नहीं था. दादी की तेरहवीं हो जाने के हफ्ते भर बाद मेरा चचेरा भाई दिल्ली किसी जगह इंटरव्यू देने आया तो मेरे घर ही रुका. उसका घुटा हुआ सर देखकर मैंने पूछा- "पप्पू इस भीषण जाड़े में तुमने सर क्यों मुड़वा लिया?" तब उसी ने बताया कि भैया दादी नहीं रहीं और यह भी कि ताऊ जी ने आपको कई बार खत भेजे. चूंकि दादी की मृत्यु से दो दिन पहले ही मैं कानपुर से लौटा था इसलिए मेरे पिता जी ने सोचा कि शायद मैं दादी के अंतिम संस्कार में इसलिए नहीं आना चाह रहा हूंगा क्योंकि अभी तो वहां गया था. और यह बात पिताजी को इतनी फील कर गई कि उन्होंने एकाध लोगों से कहा भी कि उनके एकमात्र पुत्र को उनकी मां की मृत्यु से कोई दुःख नहीं पहुंचा. पिता जी इसके बाद मुझसे हुलस कर नहीं मिलते रहे.
जाय जो बद्री, वह लौटे न उद्री, और लौटे जो उद्री तो होय न दरिद्री!
लेकिन आज स्थिति एकदम उलट है. सुबह वॉक से लौटते हुए देर हो जाए तो पत्नी का कॉल मोबाईल पर आ जाएगा. आफिस में जरा-सी भी देर हुई तो फोन आ जाएगा. यहां तक कि ट्रेन में सफ़र करते समय हर घंटे-आध घंटे में पूछा जाता है- कहां पहुंचे! अब क्या माना जाए कि जब मोबाईल या फोन नहीं थे तब क्या लोग अपने प्रियजनों के बाहर जाते ही मान लेते थे कि अब वह लौटेगा नहीं! बचपन में दादा जी बताते थे कि जो बद्रीनाथ जाता है वह या तो वापस नहीं आ पाता और अगर आ गया तो फिर वह दरिद्र नहीं होता.
वे इसे एक कविता में सुनाते थे- "जाय जो बद्री, वह लौटे न उद्री, और लौटे जो उद्री तो होय न दरिद्री!" अब पता नहीं उनकी बात कितनी सच थी, लेकिन इसका एक व्यवहारिक पक्ष है कि तब चूंकि संचार के साधन नहीं थे इसलिए पता भी नहीं चलता था कि हमारा जो रिश्तेदार इतने ऊंचे पहाड़ पर घने जंगलों को लांघते हुए गया वह जीवित बचा भी है या नहीं. जून 2013 में जब केदारनाथ हादसा हुआ था तब बहुत से लोग तो इसलिए मारे गए क्योंकि उनके पास मदद मांगने के लिए संचार का कोई साधन नहीं बचा था. क्योंकि दूर पहाड़ों पर नेटवर्क काम नहीं करता. आज भी ऋषिकेश के आगे बढ़ते ही सिवाय बीएसएनएल के और कोई मोबाईल सिम काम नहीं करता. और कहीं-कहीं तो वह भी लापता हो जाता है.
एक ने सुनी दूजे ने बताई
इससे एक ही निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य की जान बचाने में संचार साधनों का कितना बड़ा योगदान है. अंग्रेज जब भारत आए तब यहां पर एक स्थान से दूसरे स्थान तक सूचना भेजने के लिए डुग्गी पिटवाई जाती थी. जो एक ने सुनी दूजे ने बताई के जरिए एक गांव से दूसरे और फिर तीसरे गांव पहुंचती थी. तथा जब भी कोई संधिपत्र या इकरारनामा अथवा राजकीय आदेश किसी राज्य से दूसरे राज्य या दूरस्थ स्थान पर भेजा जाता तब कोई राजपुरुष उसे लेकर जाता. इसके लिए तेज गति से भागने वाले घोड़े जुटाए जाते और गांव-दर-गांव तथा शहर-दर-शहर होते हुए वह सूचना गंतव्य तक पहुंचाई जाती.
लेकिन आम आदमी को अपनी सूचना भेजने का कोई साधन नहीं था. इसलिए अंग्रेजों ने डाक सेवा शुरू की. जिसके जरिये इस डाक सेवा का निर्धारित शुल्क चुका कर कोई भी व्यक्ति अपना पत्र भेज सकता था. हालांकि शुरू में डाकियों को कोई वेतन नहीं दिया जाता था, वे बस इनाम-इकराम पाकर खुश रहते. यह काम करने वाले ज्यादातर गांव के चौकीदार होते. कभी तो वे पत्र भेजते, कभी इन पत्रों को या तो जला देते अथवा नदी-नाले में फेंक देते.
अब पल-पल की ख़बर
बाद में इनके लिए वेतन मुक़र्रर किया गया और इस सेवा के लिए बाकायदा डाक विभाग बनाया गया. इसके काफी दिनों बाद अंग्रेज सैनिकों की सुविधा के लिए तार सेवा चालू की गई. 1853 में भारत में तार सेवा चालू हो गई थी. टेलीफोन सेवा 20वीं सदी की शुरुआत में अमल में आई. लेकिन इसके लगभग सौ वर्ष बाद मोबाईल आ सके. मोबाईल ने तो आते ही मानव जीवन में क्रांति कर दी. हर क्षण की सूचना अब मिल जाती है. इसी के साथ इंटरनेट सेवा और फिर सोशल मीडिया ने तो दुनिया ही बदल दी. पलक झपकते ही हज़ारों किमी दूर की घटना को आप रू-ब-रू देख सकते हैं और इसके लिए आपको किसी तीसरे माध्यम की मदद भी नहीं लेनी.
जानवरों का सूचना तंत्र
मानव जीवन में संचार ही उसका केंद्रबिंदु है. संचार ही उसको चलायमान करता है. यह सारी जीवन्तता सिर्फ संचार के ही बूते संभव है. यह संचार ही सूचना का जनक है. सृष्टि में मानव ही अकेला प्राणी है जो संचार के लिए प्रकृतिजन्य साधनों के ही भरोसे नहीं है. क्योंकि उसने खतरे से सजग रहने के लिए सूचना के साधन विकसित किये. मसलन सृष्टि में मनुष्येतर हर प्राणी आसन्न खतरे से दूर होने के लिए प्रकृतिजन्य साधनों पर भरोसा करता है. और दूसरे प्राणी इसमें मदद करते हैं. उदाहरण के तौर पर शेर के करीब आने पर बन्दर सबसे पहले शोर मचाते हैं जिससे आसपास के जानवर सतर्क हो जाते हैं. इसी तरह सांप की सूचना चिड़िया देती है. इसके बदले में हिरन बन्दर को भोजन देते हैं और दूसरे जानवर चिड़ियों की सुरक्षा करते हैं बाज़ से. मगर मनुष्य के सृष्टि के अन्य प्राणियों के साथ ऐसे अन्योन्याश्रित सम्बन्ध नहीं हैं. शायद इसलिए भी नहीं कि प्रकृति का हर प्राणी सबसे अधिक मनुष्य से डरता है. और मनुष्य सदैव हर जीव से डरता है. लेकिन मनुष्य चूंकि संचार सुविधाओं से लैस है इसलिए हर खतरे को वह स्वयं पहचान लेता है.
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